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________________ धीर कौटुम्बिक ने कहा - हे राजन् ! हम लोगों ने आपका कोई गुनाह/अपराध नहीं किया। फिर भी आप मालिक हैं, जैसा चाहें, वैसा करें। राजा ने उन सब को अपने राजघर में ठहरने का स्थान दे दिया। राजा जब स्वयं स्नान करने बैठा तो उसके हाथ के चिह्नों, लक्षणों को देखकर धीर सोचने लगा - ये लक्षण तो मेरे लड़के के हाथ में थे। क्या मेरा लड़का ही राजा है? इधर राजा ने स्नान किया, सुन्दर-वस्त्र, अलंकार आदि धारण किये और उसके पश्चात् वहाँ आकर माता-पिता, बड़े भाईयों और बड़ी भोजाईयों के चरणों में ढोक देने लगा, तत्पश्चात् वह राजा अपने पिता से बोला - हे पिताश्री ! आप लोग तो वीरपुर में आनन्दपूर्वक रह रहे थे। आपके घर में किसी प्रकार की कमी नहीं थी, फिर भी मजदूरी करने के लिए आप यहाँ क्यों आए? धीर कौटुम्बिक बोला - पुत्र ! वीरपुर में अकाल पर अकाल पड़ता रहा, हमारा सारा धन्धा चौपट हो गया। घर का काम चलना मुश्किल हो गया तो हम लोग गाँव-गाँव घूमते हुए, मजदूरी करते हुए, पेट पालते हुए यहाँ आए। राजा ने अपनी पूर्व पत्नी को पट्टरानी का दर्जा प्रदान किया और उसे कहा - हे प्रिये ! दानादि देकर अपने मन के मनोरथों को पूर्ण करो। पुण्य का उर्पाजन करो। अपने घर में लक्ष्मी की कोई कमी नहीं है। अपनी माता से वह बोला - हे माँ ! तुमने पहले कहा था कि जिसको पेट में पाला है, वह बहुत समय के बाद भी मिलता है तो उसे कैसे भूल सकती है? तुम भूल गई या नहीं यह जानने के लिए मैंने यह नाटक रचा था। इसके पश्चात् अपने छहों बड़े भाईयों को पाँच-पाँच गाँव देकर जागीरदार बना दिया। जागीरदार बनने पर भी बड़े भाई हैं, इस घमण्ड से राजा के सामने लघुता से पेश नहीं आते थे। कहा गया है - प्राय: धनवानों में विनय का अभाव होता है। कहा है शुभशीलशतक 80 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003993
Book TitleShubhshil shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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