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________________ भक्ते द्वेषो जडे प्रीति - रुचितं गुरुलङ्घनम्। मुखे कटुकतात्यन्तं, धनिनां वरिणामिव॥ अर्थात् - जिस प्रकार बुखार से पीड़ित व्यक्ति को भोजन बुरा लगता है, जल खारा लगता है, बड़ों की आज्ञा अनुचित लगती है, मुख का स्वाद कड़वा हो जाता है उसी प्रकार धनवान लोग भक्तों/सज्जनों से द्वेष करते हैं, मूों से प्रीति करते हैं, बड़ों की अवहेलना करते हैं और मुख से अत्यन्त कड़वी बात करते हैं। उन छहों भाईयों का अन्यायपूर्ण व्यवहार होने के कारण गाँव के लोग दुःखी हो गये और अपने घर-बार, गाँव छोड़कर चले गये। छहों भाई वापिस दुःख में पड़ गये और स्वार्थवश लक्ष्मी के लिए छोटे भाई राजा की सेवा में लग गए। कहा जाता है- "क्षीणश्चन्द्रःसूर्यं सेवते"। अर्थात् चन्द्रमा की किरणें जब क्षीण हो जाती हैं तो वह सूर्य के आगोश में चला जाता है। राजा सज्जन प्रकृति का था, अतः भाईयों को भाई मानकर उनको धन प्रदान किया। एक दिन उस नगर में गुरु महाराज पधारे। धर्म प्रेमी होने के कारण वह राजा भी उनके पास धर्मदेशना सुनने के लिए गया। देशना के बाद राजा ने गुरु से धर्म का स्वरूप पूछा और यह भी पूछा कि पूर्वजन्म में मैंने क्या पुण्य किया था कि मैं राजा बना। गुरु ने कहा - पूर्व जन्म में तुम कमल नामक सेठ थे और तुम्हारी पत्नी का नाम कमला था। तुम दोनों ने गुरु महाराज के पास में धर्म सुनकर अतिथि संविभाग अर्थात् अपने भोज्य पदार्थों में से पूर्व में अतिथियों को भोजन करवाकर भोजन करने व्रत ग्रहण किया था। उस समय सम्यक्त्व और व्रत का पालन करने के कारण ही तुम इस जन्म में अपनी पत्नी के साथ राजा हुए हो। विशेषरूप से अतिथिसंविभाग व्रत/अतिथियों का आदर-सत्कार करते हुए शुद्ध धर्म का आराधन कर दोनों राजा और रानी पंचम देवलोक में गये और वहाँ से मनुष्य लोक में जन्म लेकर कर्मक्षय कर मुक्ति को प्राप्त करेंगे। शुभशीलशतक 81 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003993
Book TitleShubhshil shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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