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भूमिका
अनेक ग्रन्थों के निर्माता श्री शुभशीलगणि जैन कथा साहित्य, व्याकरण और कोष के उद्भट विद्वान् थे। तपागच्छाधिराज श्री सोमसुन्दरसूरि के विशाल परिवार में इनकी गणना की जाती है। इनका समय विक्रम की १५वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और १६वीं का पूर्वार्द्ध है।
श्री शुभशीलगणि ने पञ्चशती - प्रबोध-सम्बन्ध के मंगलाचरण में स्वयं को श्री लक्ष्मीसागरसूरि का शिष्य लिखा है और इसी ग्रन्थ की प्रशस्ति में स्वयं को श्री रत्नमण्डनसूरि का शिष्य ख्यापित किया है । विक्रमादित्य चरित्र और भरतेश्वरबाहुबलिवृत्ति में अपने को श्री मुनिसुन्दरसूरि का शिष्य लिखा है। श्री मुनिसुन्दरसूरि, श्री लक्ष्मीसागरसूरि और श्री रत्नमण्डनसूरि ये सब आचार्य श्री सोमसुन्दरसूरि के ही शिष्य परिवार में थे । संभव है इन तीनों आचार्यों में किसी के पास उन्होंने दीक्षा ग्रहण की हो, किसी के तत्त्वावधान में मुनिचर्या का पालन किया हो, किसी की निश्रा में रहकर विद्याध्यन किया हो और किसी से गणि पद प्राप्त किया हो ! यह उनकी विनयशीलता थी कि सभी को अपने गुरु के रूप में स्मरण किया है।
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इस पञ्चशतीप्रबोध की रचना विक्रम सम्वत् १५२१४ में की है । रचना प्रशस्ति का केवल एक पद्य होने के कारण स्थल - विशेष का भी संकेत नहीं है, किन्तु यह निश्चित है कि इसकी रचना गुजरात प्रान्त में ही हुई है।
१. मंगलाचरण पद्य ३
२. रचना प्रशस्ति पद्य
३. विक्रम चरित्र प्रशस्ति पद्य १२
४. रचना प्रशस्ति
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