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अनिरुद्ध ने उक्त बातें स्वीकार की और नियम ग्रहण करके अपने घर आ गया। समय बीतने पर वह अपने सब नियमों को भूल गया। अंगीकार किए हुए नियमों के विरुद्ध सारे कृत्य कर डाले। फलस्वरूप उसको कुष्ठ रोग हो गया।
कुष्ठि के रूप में उसको देखकर गुरु ने पुनः कहा - कर्म से कोई छूटता नहीं है, इसके आगे किसी का वश नहीं चालता है।
यह सुनकर अनिरुद्ध राजा जागृत हुआ और विशेष रूप से प्रतिदिन प्रशस्त पुण्योत्पादक सत्कार्य करने लगा और क्रमशः अपने कर्मों का नाश कर सका। कहा है :
कत्थई जीवो बलिओ, कत्थइ कम्माई हुंति बलिआई। जीवस्स य कम्मस्स य, पुव्वनिबद्धाई वयराई॥
अर्थात् - कहीं जीव बलवान होता है और कही कर्म बलवान होते हैं। जीव और कर्म को पूर्व में बंधे हुए वैरादिभाव भोगने ही पड़ते हैं।
अतः जगत् के सब जीव कर्माधीन होकर पुण्य और पाप के योग से इस संसार में सुख और दुःख प्राप्त करते हैं। ५८. अतिथि-सत्कार का फल.
वीरपुर नगर में धीर नाम का कौटुम्बिक रहता था। उसकी पत्नी का नाम मदना था। उनके सात पुत्र थे। जिनके नाम क्रमशः इस प्रकार थे - चन्द्र, भीम, सोम, देवदत्त, धनदत्त, मदन और सान्तल । एक समय सातों ही पुत्र अपने खेतों में हल चला रहे थे। धीर ने अपनी सातों ही पुत्र-वधुओं को
खेत की सफाई करने के लिए भेज दिया था, वे सातों ही खेत की सफाई कर रही थी। वर्षों होने लगी, सातों ही बड़ वृक्ष के नीचे बैठकर आपस में बातें करने लगी।
संयोग से उसी समय धीर कौटुम्बिक खेत में आया और बातों में लगी हुई सातों बहुओं की बातें सुनने लगा।
शुभशीलशतक
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