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यह सुनकर जिनप्रभसूरि ने शत्रुञ्जय तीर्थ की महिमा का विस्तार से वर्णन किया। महिमा सुनकर दर्शन करने हेतु जिनप्रभसूरि और समस्त श्रीसंघ के साथ सुलतान शत्रुञ्जय तीर्थ गया। तीर्थ को देखते ही वह भावविभोर हो गया। उसी समय आचार्य ने कहा – 'यदि मोतियों से रायण वृक्ष को वधाया जाए तो इस वृक्ष से खीर झरती है।' सुलतान ने वैसा ही किया। रायण वृक्ष से खीर झरने लगी। सुलतान ने संघपति पद का महोत्सव किया। उसने वहाँ एक लेख लिखवाया - जो भी इस तीर्थ की अवज्ञा करेगा वह अपराधी होगा। सात लक्ष्मण रेखाओं से अंकित किया।
शत्रुञ्जय पर्वत से उतरते हुए सुलतान ने सब लोगों से कहा - 'अपने-अपने देवों की मूर्तियाँ लाओ।' यात्रिगण ने अपने-अपने आराध्य देव - ब्रह्मा, विष्णु, महेश और जिनेश्वर आदि की मूर्तियों को लेकर आए। उन सब मूर्तियों को एक स्थान पर विराजमान कर पूछा - 'इन देवताओं में बड़ा कौन है?' किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया, तब जिनेश्वर देव की प्रतिमा को मुख्य स्थान पर विराजमान कर और विष्णु आदि की प्रतिमाओं को उसके आस-पास में विराजमान कर दी और स्वयं जिन प्रतिमा के समक्ष आसन पर बैठ गया और अपने शस्त्रधारी सैनिकों को अपने चारों ओर नियुक्त कर दिया। तत्पश्चात् फिर सुल्तान ने पूछा - 'बड़ा कौन है?'
जनसमूह ने कहा – 'स्वामी ही बड़े हैं।'
अन्त में सुलतान बोला – 'यदि ऐसा ही है तो जिनेश्वर देव ही बड़े हैं क्योंकि ये शस्त्र-रहित हैं। शस्त्रधारी सब इनके सेवक हैं।'
सब लोगों ने कहा - 'प्रभु के सम्बन्ध में आपके विचार ही प्रमाणभूत हैं।' १०. जिन प्रतिमाएँ अच्छेद्य होती हैं.
एक समय सुरत्राण गिरिनार तीर्थ पर गये, वहाँ विराजमान नेमिनाथ की प्रतिमा का माहात्म्य सुना। कहा गया कि, 'यह प्रतिमा अच्छेद्य, अभेद्य होती है। खण्डित नहीं की जा सकती।' इसके परीक्षण हेतु उसकी आज्ञा से
शुभशीलशतक
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