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अर्थात् - जिस प्रकार दूध से दही और घी की प्राप्ति होती है वैसे ही धर्मोपासना से निश्चित रूप से द्युम्न और प्रद्युम्न की तरह सिद्धि प्राप्ति होती है।
नमस्कारसमो मंत्रः, शत्रुञ्जयसमो गिरिः। गजेन्द्रपदजं नीरं, निर्द्वन्द्वं भुवनत्रये ॥
अर्थात् - त्रिभुवन में निश्चित रूप से नमस्कार के समान मंत्र नहीं है, शत्रुजय के समान कोई तीर्थ नहीं है और गजेन्द्र पद के समान कोई निर्मल जल नहीं है।
कृत्वा पापसहस्राणि, हत्वा जन्तुशतानि च। शत्रुञ्जयं समाराध्य, तिर्यञ्चोऽपि दिवं गताः॥
अर्थात् - हजार तरह के पाप करने पर और सैंकड़ों प्राणियों का नाश करने पर भी शत्रुजय तीर्थ की आराधना करने से तिर्यंच गति के प्राणि भी देवगति को प्राप्त होते हैं।
स्पृष्ठा शत्रुञ्जयं तीर्थं, नत्वा रैवतकाचलम्। स्नात्वा गजपदे कुण्डे, पुनर्जन्म न विद्यते॥
अर्थात् - शत्रुजय तीर्थ का स्पर्श करने से, रैवतगिरि को नमस्कार करने से और गजपद कुण्ड में स्नान करने से पुनर्जन्म नहीं होता है।
आचार्यश्री के मुख से इस प्रकार उपदेश सुन सेठ जगत्सिंह ने आचार्य सोमतिलकसूरि की अध्यक्षता में समस्त श्रीसंघ के साथ शत्रुजय और गिरिनार तीर्थ की यात्रा हेतु संघ निकला। इसमें २९०० बैलगाड़ियाँ, १००० घोड़े तथा ५२ जिनालय भी साथ चलते थे।
यस्मात् श्रीभरतेश्वराग्रिमनृपाः संजज्ञिरे चक्रिणः। श्रीमच्छेणिकसम्प्रतिप्रभृतयस्तीर्थेशभावाञ्चिताः ॥ निःसीमद्रविणानुबन्धिसकताः श्रीशालिभद्रादय-।
स्तस्मिन्निर्मलधर्मकर्मणि सदा कार्यः प्रयत्नो बुधैः॥ फलं च पुष्पं च तरुस्तनोति, वित्तं च तेजश्च नृपप्रसादः। वृद्धिं प्रसिद्धिं तनुते सुपुत्रो, भुक्तिं च मुक्तिं च जिनेन्द्रधर्मः॥
शुभशीलशतक
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