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राजा ने कहा - जो आप कहें वही कला दिखला देता हूँ।
मन्त्री ने कहा - हे देव! ऐसा ही है तो इस लोहमयी छुरि का आप भक्षण कर लें।
राजा ने तत्काल ही उस छुरि का के फलक का भक्षण कर लिया।
उसी समय दूसरे आमात्य ने छुरी हाथ में लेकर कहा – 'हे देव! आपने श्रेष्ठ लोहमय फलक को भक्षण कर जो कला का प्रदर्शन किया है वैसी ही कला का प्रदर्शन ये दोनों योगिनियाँ भी करें।
ज्यों ही राजा उसकी मूठ को देने लगा, उसी समय मन्त्री ने कहा - यह तो झूठी हो गई। झूठी मूठ को आप कैसे दे रहे हैं?
मन्त्री ने कहा - धातुयें उच्छिष्ट नहीं होती, अतः जल से प्रक्षालन कर इन्हें दी जाएँ।
उसी समय वे दोनों योगिनियाँ बोली – 'हे देव! आप इस प्रकार शक्तिसम्पन्न हैं, यह तो हमने कल्पना भी नहीं की थी। आपका सिद्धचक्रवर्ती विरुद युक्तियुक्त है। इस प्रकार की शक्ति अन्य किसी में नहीं है।' सब लोग आश्चर्यचकित हो गए। उन योगिनियों का भी राजा ने सम्मान किया और वे अपने स्थान पर चली गईं। पूर्व मन्त्री हरपाल का भी सम्मान कर उसको पुनः मान्यता प्रदान की। इस प्रकार महाराजा सिद्धराज जयसिंह का सिद्धचक्रवर्ती विरुद कला के साथ सिद्ध हुआ। ९८. भाग्यानुसार ही प्राप्त होता है.
सप्तद्वीपाधिपस्यापि, तृष्णा यस्य विसर्पिणी। दरिद्रः सां तु विज्ञेयः, सन्तुष्टः परमेश्वरः॥
अर्थात् - सातों द्वीपों का अधिपति होने पर भी तृष्णा बढ़ती ही जाती है और उस तृष्णा का धारक दरिद्र ही होता है। सन्तुष्ट तो केवल परमेश्वर ही होते हैं।
शुभशीलशतक
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