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________________ मेरे दीक्षित शिष्य केवलज्ञानी और मैं? एक समय भगवान् महावीर के मुख से अष्टापद तीर्थ के नमन का फल सुन कर जब गौतमस्वामी अष्टापद तीर्थ के समीप गये, उस समय वहाँ पर तपस्या करने वाले तपस्वियों ने यह विचार किया कि 'यह क्या कर सकता है?' वे तापस गण विचार करते ही रहे और गौतम गणधर सूर्यकिरणों का आलम्बन लेकर तीर्थ पर चढ़ गये। वहाँ चक्रवर्ती भरत द्वारा बनवाये हुए मन्दिर में शरीर प्रमाण आकार की और वर्ण/रंग के अनुसार बनवाई हुई २४ तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ विराजमान थीं । क्रमशः वन्दन किया। १. क्रमशः चारों दिशाओं में ४, ८, १० और २ कुल २४ तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ विराजमान थीं, उनको वन्दन किया । निश्चित अर्थानुसार परमार्थ को प्रदान करने वाले ये सिद्ध भगवान् मुझे सिद्धि प्रदान करें । अष्टापद तीर्थ स्थित जिनवरों को नमस्कार कर गौतम गणधर उस पर्वत से उतरे, उस समय पर्वत की सीढ़ियों पर तपस्या करने वाले १५०३ तापसगण गौतमस्वामी के उपदेश से प्रतिबोध को प्राप्त हुए और उनके पास चारित्र को ग्रहण किया । मार्ग में चलते हुए गौतमस्वामी ने किसी ग्रामवासी के यहाँ से निर्दोष खीर को पात्र में ग्रहण किया। खीर से भरे हुए पात्र में अपना अंगूठा स्थापित कर समस्त तापसों को भोजन करवाया । लघु पात्र में भरी हुई खीर से भोजन करते हुए, गौतमस्वामी की अत्यन्त चमत्कारिणी अक्षीणमहानसी लब्धि का विचार करते हुए ५०० तापसों को केवलज्ञान प्राप्त हो गया । वहाँ से आगे चलते हुए मार्ग में भगवान् महावीर की सर्व व्यापि वाणी को सुनकर ५०० तापसों को केवलज्ञान हो गया । आगे बढ़ते हुए भगवान् के असाधारण सौन्दर्य को देख कर शेष ५०३ तापसों को भी केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। 2 Jain Education International शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003993
Book TitleShubhshil shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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