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________________ का दान देकर सिंहासन से उतरता था । एक दिन कर्ण राजा ने देखा कि प्रात:काल के प्रारम्भ होने के समय ही सत्पात्र दान की इच्छा से दो चारण सभा में उपस्थित हुए। इनमें एक चारण सम्यक्त्वधारक था और दूसरा चारण मिथ्यामत का धारक था। उस समय कर्ण ने विचार किया कि मुझे सर्वप्रथम सत्पात्र को ही दान देना चाहिए, वही दान सद्गति का देने वाला होता है कुरुते अन्नदातुरधस्तीर्थंकरोऽपि तच्च दानं भवेत्पात्रे, दत्तं बहुफलं अर्थात् - तीर्थंकर जैसे महापुरुष भी अन्न ग्रहण करने हेतु अन्नदाता के समक्ष हाथ फैलाते हैं, इसी कारण से सत्पात्र में दिया हुआ दान भी बहुत ही फलदायक होता है । पात्र-परीक्षण का विचार करते हुए कर्ण ने जब दान देने में विलम्ब किया, उस समय एक चारण ने कहा किं 122 पत्त-परिक्खह करुह, अंबुदहं, वरसंतह किमु जोई अर्थात् - हे राजन्! दान देते समय पात्र का परीक्षण क्यों करते हो कि यह सत्पात्र है या कुपात्र ? आप जैसों को तो जो याचक सामने आ जाए, उसको दान देना चाहिए । विचार करिये, क्या मेघ वर्षा करते हुए सम और विषम स्थानों का विचार करते हैं ? यह सुनकर कर्ण ने कहा अंबरहत वरसु वरसु धत्तूरइ विस - - Jain Education International करम् । यतः ॥ दिज्जउ वरसीडां फल एवडुं अंतर शुभशीलशतक इक्खुरस, अर्थात् – हे मेघ! बरसो - बरसो । आप वर्षा करते समय किसी - प्रकार का भेद नहीं रखते हैं किन्तु उसी वर्षा के जल से पात्र के कारण भेद भी नजर आता है। आपका वही पानी धतूरा भी पैदा करता है और इक्षुरस भी पैदा करता है । मग्गंताह । सम-विसमाई ॥ For Personal & Private Use Only जोइ । होइ ॥ www.jainelibrary.org
SR No.003993
Book TitleShubhshil shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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