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अर्थात् - भृगुपुर नगर में देवताओं और मनुष्यों के द्वारा स्तूयमान, तीन जगत के अधिपति अर्हत् मुनिसुव्रत स्वामी के मन्दिर में आरती के समय उनके सद्गुणों का कीर्तन सुनकर जिसने अर्थीजनों/गंधर्वो को बत्तीस लाख मुद्रा का दान दिया था वह लक्ष्मीमान् आम्रदेव जो कि दानवीरों में अग्रगण्य है, उसकी विश्व में विजय हो।
कुमारपाल के स्वर्गवास होने पर पाटण की राजगद्दी पर अजयपाल बैठा। उसने राज्यसभा में सब मन्त्रियों को बुलाया। जब आम्रभट्ट ने उसको नियमानुसार नमन नहीं किया तब अजयपाल ने रुष्ट होकर कहा - मुझे नमन क्यों नहीं कर रहे हो?
आम्रभट्ट ने उत्तर दिया - मैं देव बुद्धि से वीतराग को, गुरु बुद्धि से आचार्य हेमचन्द्र को और स्वामी/मालिक की दृष्टि से कुमारपाल को नमस्कार करता हूँ, अन्य किसी को नहीं। (जैन धर्म जिसके रग-रग में बसा हुआ है, उसी को नमस्कार करता हूँ, सात धातुयुक्त शरीरधारी को नहीं)।
यह सुनकर अजयपाल ने कहा - यदि तुम मुझे प्रणाम करोगे, मेरे सन्मुख झुककर नमन करोगे तो तुम्हें जीवनदान मिलेगा अथवा मृत्यु का आलिंगन करोगे।
आम्रभट्ट ने तत्काल ही मन से जिनेश्वर भगवान् का स्मरण कर अनशन धारण कर लिया और अजयपाल के साथ युद्ध करने लगा। जिनेश्वर का ध्यान करते हुए युद्ध में आम्रभट्ट की मृत्यु हुई और वह स्वर्ग में गया।
वरं भट्टैर्भाव्यं वरमपि च खिङ्गैर्धनकृते, वरं वेश्याचार्यै वरमपि महाकूटनिपुणैः । दिवं याते दैवादुदयनसुते दानजलधौ,
न विद्वद्भिर्भाव्यं कथमपि बुधैर्भूमिवलये॥ अर्थात् - भविष्यकाल में श्रेष्ठ भट्ट हो सकते हैं, युद्ध स्थल में श्रेष्ठ महारथी हो सकते हैं, श्रेष्ठ कलाचार्य हो सकते हैं, श्रेष्ठ कूट-राजनीतिज्ञ हो सकते हैं, किन्तु इस दान-समुद्र में उदयन पुत्र आम्रभट्ट के समान दानवीर
और श्रेष्ठ विद्वान् इस पृथ्वीतल पर भाग्य से ही उत्पन्न होंगे। 136
शुभशीलशतक
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