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वियोग होता है तो उसमें समुद्र को किसी प्रकार क्षोभ नहीं होता है उसी प्रकार हमें क्षोभ क्यों हो? ६३. व्यंग से मंदिर का निर्माण.
आरासण नगर में श्रेष्ठि गोगा का का पुत्र पासिल रहता था। शारीरिक दुर्बलता के कारण वह मन में बहुत दुःखी रहता था। कहा भी है
वरं वनं व्याघ्रगणैर्निषेवितं, जलेन हीनं बहकण्टकाकलम। तृणैश्च शय्या वसने च वल्कलं, न बन्धुमध्ये निर्धनस्य जीवितम्।
अर्थात् – बघेरों से सेवित वन में, कांटों से व्याप्त जंगल में, जलरहित गाँव में, घास की शय्या और झाड़ की छाल का वस्त्र पहन कर जंगल में रहना अच्छा है किन्तु निर्धन होकर अपने भाईयों के मध्य में जीवन बिताना मौत के समान है।
एक समय तेल से भरी हुई कुपिका को लेकर व्यापार करने के लिए वह पत्तन नगर गया। वहाँ त्रिभुवन विहार में जिनेश्वर भगवान् का मन्दिर था। दर्शन हेतु वह मंदिर में गया। भगवान् को नमस्कार कर मन्दिरस्थ खम्भों की गणना और उसका प्रमाण (लम्बाई-चौड़ाई) लेने लगा। श्रावक छाण्डा की पुत्री उसके इस कार्य को देख रही थी। अपनी हंसी रोक नहीं सकी। हास्य के साथ उसने पासिल को कहा - क्या इसी प्रकार का मन्दिर तुम बनवाओगे, जो तुम इसका नाप ले रहे हो?
पासिल ने भी मधुरता के साथ उत्तर दिया - हे बहन ! हो सकता है मैं इसी आकार का मंदिर बनवाऊ, उसकी प्रतिष्ठा के समय तुम अवश्य आना।
उसके पश्चात् वह पासिल नगर गया। छाण्डा की पुत्री के वाक्य उसके हृदय में चुभ गये और उसने विधि-विधान सहित १० उपवास करते हुए माता अम्बिका देवी की आराधना की।
अम्बिका देवी ने प्रत्यक्ष होकर के कहा - हे पुत्र! वर माँगो।
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शुभशीलशतक
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