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तब जगत्सिंह के कथनानुसार परीक्षण हेतु बहुमूल्य रत्न पर हथौड़े से सौ बार चोट की गई, किन्तु वह नहीं टूटा। दूसरा रत्न दस बार चोट खाने पर कुछ खण्डित हो गया। तीसरे रत्न पर हथौड़े के चोट पड़ते ही दो टुकड़े हो गये और उसमें से मृत मेंढ़क के अवशेष नजर आए। परीक्षणोपरान्त सुलतान ने जगत्सिंह को सम्मानित किया और उस व्यापारी से पहले रत्न के ३ लाख, दूसरे रत्न के १ लाख और तीसरे रत्न के लिए कौड़ियाँ देकर रत्न खरीद लिये। १६. संघ रक्षण हेतु देवियों को शिक्षा.
एक नगर में श्रीसंघ में कोई रोग उत्पन्न हो गया था। अनेक उपचार करने पर भी उसका निवारण न हो सका था, इसलिए समाज ने रोग निवारण हेतु जिनप्रभसूरि के पास दो श्रावकों को भेजा। जिस समय वे दोनों उपासक जिनप्रभसूरि के पास पहुँचे, उस समय जिनप्रभसूरि ध्यान कर रहे थे और उनके समीप में उन श्रावकों ने दो तरुणियों को देखा। उन्होंने विचार किया कि 'ये गुरु तो स्त्री-परिग्रहधारी हैं, अत: उनसे क्या निवेदन किया जाए?' वे दोनों श्रावक उलटे पैर ही वापस चले, उसी समय वे दोनों उसी स्थान पर स्तम्भित हो गए। स्तम्भित अवस्था में ही उन दोनों ने आश्चर्यजनक चमत्कार देखा। ध्यान पूर्ण होने पर दोनों देवियों ने आचार्यश्री से पूछा - 'यहाँ आपने हमें किसलिए बुलाया है?'
आचार्य ने उत्तर दिया - 'तुम दोनों संघ में उपद्रव मचा रही हो, अतः शिक्षा देने के लिए मैंने तुम्हे बुलाया है।'
तत्काल ही दोनों देवियों ने हाथ जोड़कर निवेदन किया-'आज से हम श्रीसंघ में किसी प्रकार उपद्रव नहीं करेंगे।'
उन दोनों की ओर से स्वीकृति मिलने पर आचार्य ने उन्हें वापस जाने का आदेश दिया। दोनों दर्शक श्रावक अत्यन्त प्रमुदित हुए और आचार्य को नमस्कार किया और दोनों देवियों के सम्बन्ध में पूछा।
शुभशीलशतक
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