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________________ श्रीधर ने कहा - हे माता! मैंने कौन सा अहंकार किया? देवी ने कहा - 'उत्तरतः सुरनिलयं' यह श्लोक ही तुम्हारे घमण्ड का कारण है। श्रीधराचार्य मस्तक झुका कर बोले - हे माता! आप अपने स्वरूप को प्रकट करें, मेरे साथ छल न करें। उसी समय सरस्वती अपने निज स्वरूप में प्रकट हुई। वाग्देवी का यह रूप देखकर श्रीधर उठा और देवी के चरणों में गिरकर बोला - हे माता! मैं मूर्ख हूँ इसलिए मैंने गर्व किया। देवी ने कहा - हे पुत्र ! आगे से तुम घमण्ड मत करना । अहंकार के कारण ही प्राणी इस लोक और परलोक में दुःखी होता है। कहा है : ज्ञानं मददर्पहरं माद्यति यस्तेन तस्य को वैद्यः । अमृतं यस्य विषायति तस्य चिकित्सा कथं क्रियते॥ अर्थात् - ज्ञान अहंकार का हरण करने वाला है, यदि ज्ञान ही गर्व का कारण बनता है तो उसका निवारक वैद्य कहाँ मिल सकता है? यदि अमृत ही विष का रूप धारण कर लेता है तो उसकी चिकित्सा कैसे की जा सकती है? विद्ययैव मदो येषां, कार्पण्यं विभवे सति। तेषां दैवाभिभूतानां, सलिलादग्निरुत्थितः॥ अर्थात् - विद्या से ही जिनको अहंकार हो जाता है, और वैभवशाली होने पर भी कृपण कहलाता है तब दैवयोग्य से यही मानना होगा कि पानी में ही आग लग गई। ___ इस प्रकार सरस्वती देवी के वचन सुनकर श्रीधराचार्य ने गर्व का त्याग किया। ४५. कूट प्रश्नों द्वारा गर्व-हरण. महारथी कृष्णद्वैपायन व्यासजी ने महाभारत के अन्त में यह श्लोक लिखा है: शुभशीलशतक 55 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003993
Book TitleShubhshil shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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