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________________ उदयन ने कहा - मेरी मानसिक अभिलाषा है - श्री शत्रुञ्जयतीर्थ मन्दिर का उद्धार हो और भृगुकच्छ (भडोंच) में शकुनिविहार का उद्धार हो । जब तक मेरी ये दोनों कामनाएँ पूर्ण न हो अथवा पूर्ण होने का आश्वासन न प्राप्त हो जाए तब तक मैंने यह अभिग्रह धारण कर लिया है कि मैं भूमि पर ही शयन करूँगा और एकभत्त अर्थात् एकासन ही करूँगा। मेरे दोनों अभिग्रह यदि मेरे पुत्र वाग्भट्ट आदि सुनेंगे तो वे अवश्य ही मेरे मनोरथों को पूर्ण करेंगे। ___यह सुनकर ताम्बूलवाहक ने कहा - आपके दोनों अभिग्रहों को आपके माननीय पुत्रों के समक्ष मैं नहीं कह दूँगा तब तक मैं भी ..........। ताम्बूलवाहक की प्रतिज्ञा सुनकर उदयन मन्त्री अत्यन्त हर्षित हुआ और बोला - तुम भी धन्य हो। मेरा एक मनोरथ और है। ताम्बूलवाहक ने कहा - वह दूसरा मनोरथ भी बतलाईये? मन्त्री उदयन ने कहा - यदि इस संग्राम स्थल में कोई साधु महाराज पधार जाए और अन्तिम आराधना करवा दे तो मेरी निश्चिय ही सद्गति हो जाए। अनुचरों ने सोचा - मन्त्रीजी का जीवनकाल समाप्ति पर है। यदि विलम्ब किया गया तो यह मनोरथ उनके मन के मन में ही रह जायेंगे। जैसे भी हो इनकी आकांक्षा की पूर्ति करनी ही चाहिए। यह सोचकर उन अनुचरों ने किसी विदूषक को जैन साधु का वेष पहनाकर, समझा-बुझाकर मन्त्रीजी के समक्ष खड़ा कर दिया और उनके सम्मुख जिनेश्वर देव की प्रतिमा भी लाकर रख दी। मन्त्री उदयन जिनमूर्ति को नमस्कार कर उसकी भावस्तवना की और साधु-वेषधारी को वास्तविक साधु समझ कर उसको वन्दन किया तथा सब प्राणियों के साथ क्षमा-याचना की। मन्त्री उदयन के प्राणपखेरु उड़ गये। उदयन को भक्तिपूर्वक वन्दना करते हुए देखकर नकली वेषधारी उस विदूषक की भावना भी परिवर्तित हो गई। 'कहाँ मैं और कहाँ सेनापति मन्त्री उदयन, जिनके दर्शन भी दुर्लभ होते है। मैं नकली वेषधारी और मन्त्री उदयन मेरे चरणों में नमस्कार करे! यह वेष का चमत्कार है। अभी तक मैं 138 शुभशीलशतक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003993
Book TitleShubhshil shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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