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३७. माता द्वारा धर्म-मार्ग दिखलाना.
वटप्रद नगर का मन्त्री सारंग डीशावाल गोत्रीय था। वह मिथ्या धर्म का आचरण करने वाला था। उसकी माता जैन धर्म का पालन करने वाली थी। एक दिन माता ने पुत्र से कहा - 'वत्स! तुम मिथ्या धर्म का आचरण कर रहे हो। सर्व दर्शन मान्य जैन धर्म का आचरण क्यों नहीं कर रहे हो? जैन धर्म का और वीतराग की उपासना के बिना मुक्ति प्राप्त नहीं होती है। मैं तो अब मौत के किनारे बैठी हूँ। मेरे मरण के पश्चात् तुम धर्मशाला में जाकर जैन साधुओं को वन्दन अवश्य करना और उनसे सम्पर्क रखना।'
पुत्र सारंग ने उत्तर दिया - 'हे माता ! तुम चिन्ता मत करो। जैसा तुमने कहा है, वैसा ही मैं करूँगा।' माता की मृत्यु के पश्चात् सारंग ने अपने वचनों का पालन नहीं किया और मिथ्या धर्म का आचरण करने लगा। स्वर्गवास के पश्चात् उसकी माता स्वर्ग में देवी बनी। पुत्र-स्नेह के कारण उसको प्रतिबोध देने के लिए रात्रि में उसके कमरे में प्रकट हुई और एक श्लोक लिख कर दिया तथा कहा - 'हे पुत्र ! मैं तुम्हें किसी धर्म का पालन करने के लिए बाधित नहीं कर रही हूँ किन्तु मेरा यह कथन है जो इस श्लोक का युक्ति-संगत अर्थ कर दे उसी मार्ग/धर्म का अनुसरण करना।' ऐसा कहकर वह देवी माता अन्तर्ध्यान हो गई। उस श्लोक को प्राप्तकर, पढ़कर वह चिन्तनशील हो गया, स्वयं अर्थ निकालने का प्रयत्न करने लगा किन्तु असफल रहा। उसके पश्चात् अपने नगर के विद्वान्, दूसरे नगर के विद्वानों से सम्पर्क किया किन्तु कोई भी इस श्लोक का अर्थ न कर पाया। अन्त में वह उदास हो कर सिद्धपुर नगर में विराजमान तपागच्छाधिपति देवसुन्दरसूरि के पास जाकर उस श्लोक का अर्थ पूछा।
कामकान्तं व्रजै स्थानं, शिशिरा वापय श्रुते । अत्रोदितं मतं ग्राह्यं, त्वया पुत्रान्तदर्शनात्॥
इस श्लोक के पूर्वार्द्ध में गूढ रूप से गुम्फित वर्णाक्षरों मतं जैनं शिवाय ते अर्थात् जैन मत तेरे लिए शिवकारी हो और इस धर्म के मत को तुम स्वीकार करना। जब देवसुन्दरसूरि ने इसका अर्थ बतलाया तो वह
शुभशीलशतक
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