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इधर घूमते-घूमते वह तपस्वी पुनः वहाँ आया और उसके घर पर वैदिक कर्मकाण्ड यजन-याजनादि देखकर अत्यधिक प्रसन्न हुआ। उसको प्रसन्न मुद्रा में देखकर उस ब्राह्मण ने कहा - आप इतने हर्ष से पागल क्यों हो
गये?
उस तपस्वी ने उसके पितामह से लेकर आज तक का वृतान्त कहा और बोला – 'तुम्हारे पितामह वैदिक षट्कर्म किया करते थे और आज तुम्हें भी उसी कर्म में कार्य करता देखकर मैं हर्ष से पागल हो गया हूँ।' वह तपस्वी उसके यहाँ से अपनी धोती ले कर बोला - 'जिस प्रकार की परिस्थिति होती है उसी प्रकार का मानव का आचार बन जाता है अत: इसमें उत्तम, मध्यम और जघन्य का विचार नहीं करना चाहिए। ऐसा कहकर वह तपस्वी आगे चला गया। ३५. अच्छे-बुरे का सूचक.
राजा भोजराज ने अपना अन्तिम समय निकट जानकर समस्त दार्शनिकों को बुलाया और सबको यथा-योग्य सम्मानित कर उनकी उपस्थिति में ही अपने मन्त्रियों को कहा - 'मैंने अपने जीवन में पुण्य कार्य बहुत कम किये हैं और पाप कार्य अधिक में किये हैं, अत: आप लोग मेरे मरण के पश्चात् मेरे एक हाथ को काली स्याही से पोत देना और दूसरे हाथ पर थोड़े से चन्दन का लेप कर देना।'
राजा के उक्त मन्तव्य को सुनकर मन्त्रियों ने कहा - आप इस प्रकार का निर्देश क्यों दे रहे हैं?
राजा भोजराज ने उत्तर दिया - मेरे दोनों हाथों को इस प्रकार देखकर लोग बुरे कार्यों से बचकर अच्छे कार्य करने लगेंगे, अच्छाई और बुराई का विचार करने लगेंगे।
कुछ समय पश्चात् भोजराज की मृत्यु हुई। मन्त्रियों ने भोजराजा की इच्छानुसार ही एक हाथ को काला और एक हाथ को चन्दनयुक्त बनाया। अन्तिम संस्कार के लिए सब लोग उसे ले गये। राजा के दोनों हाथों को 44
शुभशीलशतक
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