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६८. धूर्तों का चक्कर.
व्ययन्ति केचिन्मनुजा धनं मुधा-विमृश्य कार्यकपरा जडाशयाः। स कूपवाहा इव कूपकम्बली-प्रघातकान्मानवतोऽतिधूर्त्तकान्॥
अर्थात् - हर साल कितने ही मूर्ख मनुष्य आगे-पीछे का सोचे बिना ही धूर्तों के चक्कर में आकर अपने गाँठ की पूंजी को भी बरबाद कर देते है, जैसे धूर्तों के कुँए में कम्बल डालने के झांसे में आकर कूपवाहक कुंए और फसल से हाथ धो बैठा।
किसी नगर में अरघट्ट यंत्र द्वारा कुंए से पानी निकालने वाले कई कूपवाहक अपने कुँए के खेत में गेहूँ के बीज लेकर फसल के लिए पानी देते थे। एक दिन कोई पथिक उस मार्ग पर चलता हुए वहाँ आया और पानी पीने की इच्छा प्रकट की। कूपवाहक ने जलयंत्र-घटी से कुंए से जल निकालकर उसको पिलाया। पानी पीने के बाद वह पथिक बोला - हे पानी निकालने वालों! कुएं के बीच में ये जल के सकोरे कौन भर देता है?
___ उस पथिक के बेतुके प्रश्न को सुनकर खिसियाकर हंसते हुए कूपवाहक ने कहा - इन जल-घटियों में पानी तुम्हारा बाप भरता है।
यह सुनकर उस पथिक ने कहा - 'यदि मेरा बाप इस कुँए में रहकर जल-घटियों में पानी भरता है तो स्वाभाविक है कि कुँए में रहने के कारण उसको ठण्ड भी लगती होगी। उनको ठंड से बचाने के लिए आप लोग अपना कम्बल क्यों नहीं देते?' वे मूर्ख कूपवाहक उसके कूट आशय को नहीं समझ सके और पथिक ने अपना ओढ़ा हुआ कम्बल पिता को ठण्ड न लगे इसलिए कुँए में डाल दिया। वह पथिक चला गया।
समय पर गेहूं की अच्छी फसल हुई और सब लोग अपने-अपने हिस्से को बांटने लगे। उसी समय वह पथिक भी वहाँ आया और बोला - हे कूपवाहकों! आप लोगों ने पूर्व में कहा था कि यह कुँआ मेरे पिता का है
और उस कुँए के जल से ही तुम अपने खेतों की सिंचाई करते रहें, अत: खेत में पैदा हुए अनाज पर मेरा भी हिस्सा बनता है।
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शुभशीलशतक
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