________________
उसके शरीर का अच्छी तरह निदान किया और खाने के लिए चावल, दाल, घी आदि पदार्थ बतलाए। वह जब भोजन कर रहा था, तब उस वृद्ध वैद्य ने कहातुम मरुस्थल का वर्णन करो। वह मरुस्थल का इस प्रकार वर्णन करता है -
मृगतृष्णां सदा दर्श, दर्श तृषितवक्षसम्।
ओष्ठ-तालु-गलादीनि, शुष्यन्ति स्म दिने दिने ।
अर्थात् - जहाँ मृग-तृष्णा सदा दिखाई देती है, जहाँ प्यास की अकुलाहट के कारण हृदय नीचे-ऊपर होता है और जहाँ होठ, तालु और गला आदि प्रतिक्षण सूखते रहते हैं।
हर समय इस प्रकार मरुस्थली का वर्णन करते-करते उसका जलोदर रोग समाप्त हो गया।
श्रीराम ने वैद्य से पूछा - वैद्यराज ! बतलाइए मरुस्थल का वर्णन करते-करते यह रोग-रहित कैसे हो गया अथवा इसका जलोदर रोग कैसे नष्ट हो गया?
वैद्य ने उत्तर दिया - राजन् ! इस सुबुद्धि को रात-दिन पम्पा-सरोवर का वर्णन करते हुए उसके दृष्टि के सम्मुख जल ही जल नजर आता था। उसका ध्यान प्रति-समय जल की ओर ही रहता था। निरन्तर जल के ध्यान के कारण उसे जलोदर रोग हो गया और इन दिनों निरन्तर, प्रतिक्षण मरुस्थल का वर्णन करते हुए इसका ध्यान रूखे-सूखे पर ही केन्द्रित हो गया, इसी कारण यह रोग मुक्त हो गया है। जिस प्रकार का हर समय ध्यान रहता है। वैसी ही मानसिक विचारधारा बन जाती है, यही नहीं, शुभ अथवा अशुभ वर्णों को हर समय सुनने से मन भी प्रसन्नता या अप्रसन्नता का अनुभव करता है। कहा भी है -
वीतरागं स्मरन् योगी, वीतरागत्वमश्नुते। सरागं ध्यायतस्तस्य, सरागत्वं तु निश्चितम्॥
अर्थात् - वीतराग का स्मरण करते हुए योगीगण वीतरागता को प्राप्त करते हैं । सराग का ध्यान करने पर सराग वस्तु निश्चित रूप से प्राप्त होती है।
शुभशीलशतक
41
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org