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________________ ९०. राजपितामह अम्बड़ पुहविकरंडे बंभंड - संपुडे भमइ कुंडलिजंतु। तुह अंबडदेव जसो अलद्धपसरो भुयंगव्य ॥१॥ अर्थात् - करण्डिये में बंद होकर सर्प कुण्डली मारकर बैठा रहता है उसी प्रकार अम्बड़देव के यश का विस्तार पृथ्वी रूपी करण्डिये में बंद होने के कारण भू-मण्डल पर फैल नहीं रहा है। किसी समय चौलुक्य कुमारपाल भूपति अपनी राज्यसभा में बैठे हुए थे। उसी समय एक भट्ट ने प्रशंसा करते हुए कोङ्कण-देशीय मल्लिकार्जुन राजा को राजपितामह विरुद से प्रख्यापित किया। उसी समय महाराजा कुमारपाल ने मन में विचार किया-- जैसे भी हो मल्लिकार्जुन का राजपितामह विरुद खत्म कर देना चाहिए। एक दिन राजसभा में अपने हाथ में पान का बीड़ा लेकर राजा ने कहा - जो भी मल्लिकार्जुन का निग्रह करने में सामर्थ्य रखता हो, वह सुभट इस पान के बीड़े को स्वीकार करे। मल्लिकार्जुन के अत्यन्त बलशाली होने के कारण किसी भी बलशाली (सुभट) ने वह पान का बीड़ा स्वीकार नहीं किया। सभा की इस प्रकार की दशा देखकर अम्बड़ खड़ा हुआ और हाथ जोड़ कर बोला - हे स्वामी! आप मुझे आदेश दीजिए, मैं आपकी कृपा से उस मल्लिकार्जुन का राजपितामह विरुद दूर कर दूंगा। राजा ने हर्षित होकर वह पान का बीड़ा अम्बड़ को दिया। तत्पश्चात् राजा को प्रणाम कर बहुत बड़ी सेना लेकर मन्त्रीश्वर अम्बड़ पाटण नगर से चलता हुआ क्रमशः अगाध जल से परिपूर्ण और दुश्तर कलविणी नदी को पार कर किनारे पर अपनी सेना का पड़ाव डाला। मन्त्री अम्बड़ के आगमन स्वरूप को सुनकर मल्लिकार्जुन राजा अकस्मात् ही वहाँ पहुँच गया। क्षण मात्र तनिक युद्ध कर अथवा भविष्य में युद्ध का समय निश्चित कर अम्बड़ सपरिवार वापस लौट आया। मल्लिकार्जुन से पराजित हो शुभशीलशतक 131 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003993
Book TitleShubhshil shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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