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उसको देखा और कहा - हे दुर्गत! यह तुम्हारे भाग्य से ही तुम्हे प्राप्त हुआ है इसलिए इसे तुम ही ग्रहण करो और इसका उपभोग करो। उस मारवाड़ी ने उस लोटे में से प्राप्त आधा धन तीर्थ में खर्च कर दिया। मन्त्री ने उसका सम्मान किया।
मन्त्री ने जो तीर्थोद्धार का कार्य प्रारम्भ किया था, वह मूल प्रासाद का उद्धार कार्य पूर्ण हुआ। मन्त्री ने इस कार्य में बहुत धन सुकृत में व्यय किया। कहा जाता है - लक्षत्रयीविरहिता द्रविणस्य कोटीस्तिस्रो विविच्य किल वाग्भटमन्त्रिराजः। यस्मिन् युगादिजिनमन्दिरमुद्दधार, श्रीमानसौ विजयतां गिरिपुण्डरीकः॥
___अर्थात् – मन्त्रीराज वाग्भट्ट ने युगादि जिनेश्वर के मूल प्रासाद के उद्धार में दो करोड़ ९७ लाख रुपये व्यय करके इस तीर्थ का उद्धार करवाया। गिरिराज पुण्डरीक और श्रीमान् वाग्भट्ट की जय हो। ८४. लूणिग वसही का नामकरण.
पूर्व में धवलका नगरी (धोलका) में श्रेष्ठि लूणिग अपने भाईयों के साथ - मालदेव, वस्तुपाल, तेजपाल के साथ निर्धन अवस्था में निवास करते थे। लूणिग की अन्तिमावस्था के समय तीनों भाईयों ने यह प्रतिज्ञा कीइनके पुण्यार्जन हेतु १-१ लाख नमस्कार मंत्र का जाप करेंगे।
तीनों भाईयों ने लूणिग से यह भी कहा - भाई साहब ! इस समय में आपकी जो भी इच्छा हो, वह प्रकट करिये। उसको पूर्ण करने में हम अपना पूर्ण सामर्थ्य झोंक देंगे।
भाइयों की इस प्रकार प्रेम-विह्वल वाणी सुनकर लूणिग ने कहा - हे भाइयो! मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि अर्बुदगिरि पर्वत पर विमल वसही के पास नवीन देव मंदिर का निर्माण हो, यही मेरी अन्तरभावना है। यदि यह देव-मंदिर का निर्माण होता है और इसको पूर्ण करने का वचन देते हो तो मेरा मन समाधि में रमण करेगा।
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शुभशीलशतक
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