Book Title: Mahavira ka Jivan Sandesh
Author(s): Rajasthan Prakruti Bharati Sansthan Jaipur
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : देवेन्द्रराज मेहता सचिव राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान जयपुर - ३०२००३ प्रथमावृत्ति सन् १९८२ मूल्य २०.०० प्राप्ति स्थान राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान यति श्यामलालजी का उपाश्रय मोती सिंह भोमियो का रास्ता, जयपुर - ३०२००३ (राज० ) मुद्रक प्रजन्ता प्रिन्टर्स घी वालों का रास्ता, जयपुर - ३०२००३ Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय स्वर्गीय प्राचार्य काका कालेलकर साहब देश के प्रमुग्न मौलिक विचारक थे। गांधी दर्शन उनका विशिष्ट क्षेत्र रहा। अन्य विषय पर भी उन्होने लिखा । जैन दर्शन भी उनका प्रिय विपय रहा है। भगवान् महागेर और जैन दर्शन पर उन्होने कई लेख लिखे । जिनमे से कुछ लेख समय-समय पर सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए व कुछ अप्रकाशित रहे । इन सब का सकलन इस पुस्तक के रूप में प्रस्तुत है । पुम्नक की विशेषता यह है। कि इसमे उनकी वैचारिक स्वतन्त्रना, सैद्धान्तिक-टिगता, स्पष्टवादिता व समन्वयवादिता स्पष्टत झलकती है। यह सम्भव है कि परम्पगगन विचागे से उनका मतभेद कई विन्दुग्रो पर रहा हो, पर जैमे उन्होो लिखा उसी तरह उनके लेख प्रस्तुत किये गये। यह आवश्यक नहीं कि उनके विचार एव इम सस्थान के विचार पूर्णस्पेण मेल खाए । पर इस मस्थान की नीति कि, वैचारिक स्वतन्त्रता एव स्पष्टवादिता का सम्मान किया जाय, के सन्दर्भ में उनके विचार ज्यो के त्यो प्रस्तुन किये गये है। प्राचार्य श्री काका माहब का पार्थिव शरीर अब हमारे बीच नही है, पर इस अवसर पर हम उनके प्रति प्रादरपूर्वक भावभीनी हार्दिक श्रद्धाजलि अर्पित करते है। पुस्तक की पाण्डुलिपि उपलब्ध कराने मे वहिन सरोजिनी नानावती, वहिन कुसुम शाह का विशेष योगदान रहा। श्री गुलाबचन्दजी साहब जैन, दरियागज दिल्ली ने उन्हे प्राकृत भारती का परिचय दिया और पाण्डुलिपि प्राप्त कराने के लिये विशेष प्रयास किया। यह सस्था दोनो के प्रति आभार प्रकट करती है। राष्ट्र सन्त कवि उपाध्यायश्री अमरमुनिजी महाराज साहव ने मौन और ध्यानावस्था में सलग्न रहते हुये भी इसकी प्रस्तावना लिखी है इसके लिये सस्थान उनके प्रति हृदय से श्रद्धापूर्वक आभार व्यक्त करती है । महोपाध्याय श्री विनयसागरजी साहब सयुक्त सचिव, Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान प्राकृत भारती सस्थान एव श्री प्रोकारलालजी मेनारिया ने पुस्तक के प्रकाशन में अपना अमूल्य ममय व सहयोग दिया, उसके लिये भी सस्था उनके प्रति आभार व्यक्त करती है। श्री जितेन्द्र सघी, अजन्ता प्रिन्टर्स ने इस पुस्तक का मुद्रण किया उसके लिये भी मस्थान उनके प्रति आभार प्रकट करता है। 17 अक्टोबर, 1982 देवेन्द्रराज मेहता सचिव राजस्थान प्राकृत भारती सस्थान जयपुर Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना साहित्यकार साहित्य का वह महतो महीयान् देवतात्मा हिमगिरि है, जिसके अन्तस्तल से जनमन को पावन करने वाली माहित्यिक भावधारा प्रवाहित होती है । ग्रन्तस्तत्त्व का साहित्यकार, लिखने के लिए नही लिखता । वह लिखता है सत्य के साक्षात्कृत ज्ञानसागर मे सहज रूप से उच्छलित उदात्त भावतरंगो को जनहित मे शब्दबद्ध करने के लिए। यह लेखन, उसकी अपने में अनिवार्यता है । सत्य का बोधामृत ज्योही अनुभूतिगम्य होता है, त्यही उसे वह जनकल्याणी भावना से जन-जन मे मुक्तभाव से वितरण करने के लिए ग्राकुल हो उठता है । साहित्य शब्द का निर्वचन है - " सहितस्य भाव साहित्यम् ।" उक्त निरुक्ति मे जो 'हित' मुखरित है, वही सार्वजनीन सर्वमंगल हित है, जो तत्त्वदर्शी साथ ही उदारमना एव करुणामूर्ति साहित्यकारो को साहित्य लेखन मे प्रवृत्त करता है। यही वह साहित्य है, जो काल के तीव्रगति से बहते प्रवाह मे भी चिरस्थायी रहता है, और रहना हे हरक्षण ताजा । वह यो ही अकालमृत्यु नही पा जाता, बासी नही हो जाता कि ग्राज वना श्रीर कल मुर्दाघाट मे या रद्दी की टोकरी मे । प्रज्ञापुरुप, विद्वद्वरेण्य श्री काका साहेव यथार्थ मे उपरि वर्णित महत्तम कोटि के साहित्यकार है । उनका साहित्य न किसी सम्प्रदाय एव मतविशेष की रूढ मान्यताओ पर प्राधारित होता है और न किन्ही पूर्वाग्रहो मे प्रभावित । उनके साहित्य का मूल स्वानुभूति सत्य पर प्रतिष्ठित है । उनका सत्य केवल भाषा का सत्य ही नही, उनके स्वय के शब्दो मे जीवन सस्कृति की बुनियाद है । सत्य से भिन्न कोई धर्म हो ही नही मकता । तीर्थकर भगवान महावीर का सत्य के सम्बन्ध में एक बोधवचन है 'मच्च खु भगर्व'"- - सत्य ही भगवान है । और, इसी श्रमर दिव्यध्वनि से मुखरित सत एकनाथ का वचन उद्धृन करते हुए काका साहेव ने कहा है- 'सत्य ही परब्रह्म है' - 'सत्य तेचि परब्रह्म ।' जिसके अन्तश्चेतना मे सत्य के प्रति इतना प्रगाढ समर्पण हो, उसके विचार प्रोर व्यवहार मे सर्वत्र सत्य का अपराजित स्वर ग्रनुगु जित रहता है । यही १ प्रश्नव्याकरण सूत्र Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VIII कारण है कि काका साहेब के हर लेखन और भपण से प्राणवत्ता एव तेजस्त्रिता के दर्शन होते है । लगभग पचास वर्षों से मेरा उनसे परिचय रहा है । इन वर्षो मे अनेक बार स्नेह - स्निग्ध मिलन हुग्रा है और साथ ही मुत्त मन से विचार विनिमय भी । मैंन हर विचार चर्चा मे उन्हे खुले मन का वह सत्यसाधक देखा है, जो अपने प्रतिभासित सत्य के प्रति मन, वचन एव कर्म से पूरी तरह वफादार है । उसके प्रतिपादन मे, हाँ या ना कहने मे उन्हे न कही कोई संकोच है, न झिझक है और न घुमाव फिराव है । जो भी बात है, वेलाग और बेदाग | मत्य के प्रति समर्पित ऐसे महान् मनीपी हर युग दुर्लभ रहे है और रहेगे । काका साहेब इस युग के ऐसे ही दुर्लभ मनीपियो मे से एक स्वनामधन्य मनीपी थे । काका साहेव की प्रस्तुत पुस्तक उनकी इसी उपरि चर्चित गरिमा के अनुरूप है । यह एक संग्रह पुस्तक है । इसमे भगवान महावीर, उनके जीवन सन्देश, जैन धर्म, जैन यात्रा स्थल, अहिंसा, अनेकान्त, अपरिग्रह एव मानवता आदि बहुविध विषय से सम्बन्धित निवन्धो तथा प्रवचनो का महत्त्वपूर्ण सकलन है । प्राय प्रत्येक विषय पर काका साहेब का गहरा तलस्पर्शी चिन्तन है, जो पाठक के अन्तर्मन को काफी गहराई तक छू जाता है । उनके बोल हृदय के बोल है, अत हृदय की बात हृदय में अनायास पैठ जाती है । भगवान महावीर और उनके दिव्य व्यक्तित्व एव कृतित्व का वर्णन करते समय लगता है कि काका साहेव उन्ही की निकट परम्परा के अनुयायी है । महावीर को वे परमगुरु, अहिंसा की दिव्यमूर्ति एवं समन्वय दृष्टि के रूप मे यथाप्रसंग श्रद्धा के साथ स्मरण करते है । प्रस्तुत पुस्तक मे ही एक जगह काका ने लिखा है “ऐसे जो इने गिने मृत्यु जय महापुरुष हो गए है, उनने महावीर का स्थान अनोखा है ।" अनोखा का अर्थ है- अनूठा अर्थात् अनुपम । इस पर से स्पष्ट है कि महावीर से और उनके लोकमगल दिव्य धर्म-सन्देगो से वे कितने अधिक प्रभावित है | जैन धर्म और दर्शन के प्रति भी उनकी आस्था सहज श्रद्धा से धनुप्राणित है । जैनत्व कितने ऊँचे आदर्श की स्थिति है, यह उन्ही के शब्दो मे देखिए | जैन और जैनेनर की भेदरेखा खीचते हुए उदारमना काका साहेब ने लिखा है - "जो मनुष्य केवल श्रात्मा के प्रति सच्चा है, श्रात्मा की उन्नति के लिए ही जीना है, अनात्मा के मोहजाल में नही फँसता है, वही जैन है । १ प्रस्तुत पुस्तक पृ ९५ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IX बाकी के सब लोग जैनेतर है ।" जैनत्व की कितनी उदात्त एव उच्चस्तरीय व्याख्या है । यह जैनत्व की वह व्यापक व्याय्या है, जिसमे धर्म के रूप मे प्रचारित जीवन के सभी उच्च आदर्श समाहित हो जाते है, जिनसे कभी भी, कही भी किसी का विरोध नही हो सकता । इन्ही भावनात्मक क्षणो मे उन्ही ने एक बार मुझ से कहा था- " मैं प्राज का साम्प्रदायिक जैन तो नही, परन्तु महावीर का अनुयायी शुद्ध जैन अवश्य हूँ ।" काश, यह दृष्टि मानवमात्र को मिल जाए, तो धरती पर पारस्परिक सौहार्द भावना के प्रकाश मे सर्वतोमुखी मंगल कल्याण का एक प्रखण्ड विश्वराज्य स्थापित हो जाए । 1 आजकल यत्र तत्र विश्वधर्म की काफी लम्बी चौडी चर्चाएँ होती है । प्रत्येक धर्म-परम्परा का पक्षधर अपने साम्प्रदायिक धर्म को विश्वधर्म के रूप मे प्रतिष्ठापित करने की धुन मे है । मैं और मेरा धर्म ही सर्वोत्कृष्ट, अन्य सव निकृष्ट, यह है ग्राज का मानसिक द्वन्द्व, जो यदा कदा तन की मारा मारी के रूप मे भी अवतरित हो जाता है । धर्म के पवित्र नाम पर घात, प्रतिघात और रक्तपात की एक ऐसी दीर्घाति दीर्घ परम्परा वन जाती है, जो खत्म होने का नाम तक नही लेती । इस सन्दर्भ मे तत्त्वदर्शी काका साहेव ने "महावीर का विश्वधर्म" शीर्षक से जो विचार प्रकट किए है, यदि उन पर यत्किचित् भी ध्यान दिया जाए तो मानव-जाति की जीवन-यात्रा पूर्णरूपेण मंगलमय हो सकती है। महावीर के अहिंसा धर्म को विश्व धर्म के रूप मे प्रतिष्ठापित करते हुए काका कहते हे कि - " स्याद्वादरूपी बौद्विक अहिंसा, जीवदयारूपी नैतिक अहिंसा और तपस्यारूपी आत्मिक हिंसा ( भोग यानि आत्महत्या -- आत्मा की हिंसा, तप यानि श्रात्मा की रक्षा - आत्मा की अहिंसा) ऐसी त्रिविध हिंसा को जो धारण कर सकता है, वही विश्व धर्म हो सकता है । वही प्रकुतोभय विचर सकता है ऊपर बताई हुई प्रस्थानत्रयी के साथ ही व्यक्तिगत एव सामाजिक जीवन-यात्रा हो सकती है । आत्मा की खोज मे यही पाथेय काम श्राने योग्य है ।" हिमा के सम्बन्ध मे काका का विश्लेपण एव विवेचन काफी गहरा है, साथ ही व्यापक भी। कुछ धर्म-परम्पराम्रो मे अहिंसा सिमट कर बहुत छोटे-से क्षुद्र घेरे मे ग्रावद्ध हो गई है । श्रमुक दिन अमुक माग-सब्जी न खाना, कन्दमूल तथा बहुवीज वनस्पति का त्याग करना, कीड़े-मकोडो की यथासाध्य रक्षा करना -कुछ ऐसे ही विधि-निपेध के विकल्प है, जिनमे हिंसा और ग्रहिसा Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का विचार तथा आचार अटक कर रह गया है। उक्त सूक्ष्म अहिंसा का विचार-व्यवहार भी अयुक्त नही है। परन्तु काका साहेब इस पर जो कटाक्ष जैसी शब्दावली का प्रयोग करते है, उसका अर्थ कुछ और है। काका की दृष्टि जनजीवन पर सब ओर व्यापक रूप में जल रहे हिंसा के दावानल पर है, जिस मे मानव-जाति की मानवता का शिवत्व ही अनियन्त्रित गति से भस्म होता जा रहा है । आप सब देख रहे है, आज क्या स्थिति है, देवदुर्लभ कहे जाने वाले पवित्र मानवीय जीवन की। आये दिन हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख आदि साम्प्रदायिक धर्मों के नाम पर मानव का रक्त बह जाता है, उच्च और निम्न वर्ण के जातीय संघर्ष मे निर्दोष नर नारी मौत के शिकार हो जाते है। वैज्ञानिक एव चिकित्सा सम्बन्धी परीक्षण, खाद्य समस्या का समाधान, विलास एव सौन्दर्य-सामग्री का निर्माण तथा देवी-देवतापो को बलिदान आदि के रूप मे मूक पशु-पक्षियो तथा जलचर आदि पर जो क्रूरतापूर्ण हत्याकाण्ड के कार्य हो रहे है, वे कितने भयकर हृदयप्रकम्प है, कुछ पूछिए नही। दहेज आदि के रीति-रिवाजो पर नारी-जाति पर क्रूर अत्याचार हो रहे है-बलात्कार ही नही सामूहिक बलात्कार जैसे नृशस अपकर्म भी कम नही है । आर्थिक शोषण, युद्ध, विग्रह, कालावाजार और तस्करी आदि की हिंसा का ताण्डवनृत्य अलग ही अपनी विभीपिका दिखा रहा है। अपराधकमियो द्वारा खुले आम हत्या, लूटमार, छीना-झपटी आदि के कुकृत्यो का अभिशाप अपनी चरम-सीमा पर पहुंच रहा है । मब ओर भय व्याप्त है। कही भी मनुष्य का जीवन और मान-मर्यादा सुरक्षित नहीं है । "जीवन व्यापी अहिंसा और जैन समाज" शीर्पक से काका साहेव इसी अोर सकेत करते है । स्पष्ट है, जब तक हम सब ओर फैल रही उक्त व्यापक हिंसा का प्रतिरोध न करेगे, व्यापक स्तर पर अहिंसा एव मंत्री का प्रचार-प्रसार न करेंगे, तव तक मानव न अपना आध्यात्मिक विकास कर पाएगा और न सामाजिक मगल और कल्याण । प्रस्तुत संग्रह मे काका के अहिंसा से सम्बन्धित विचार पक्षमुक्त भाव से मननीय है, मननीय ही नही सर्वात्मभाव मे जीवन मे अवतारणीय है। इसके अतिरिक्त दूसरा कोई पथ नही है मानव-जाति के अभ्युदय एव नि श्रेयस् का। प्रस्तावना का अक्षरदेह लबा होता जा रहा है। विचार क्रान्ति के सूत्रधार काका साहेव के एक-एक विचार-चिन्तन पर बहुत कुछ कथ्य है, परन्तु Page #11 --------------------------------------------------------------------------  Page #12 --------------------------------------------------------------------------  Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशन का इतिहास स्वर्गीय पूज्य आचार्य काका कालेलकर की पुस्तक 'महावीर का जीवन सन्देश युग के सन्दर्भ में पाठको के समक्ष रखने से पहले इस पुस्तक के प्रकाशन के पूर्व प्रयत्नो के सन्दर्भ मे कुछ गहना आवश्यक है। प्रस्तुत लेखो का सकलन काका साहब के जीवन काल मे बहुत पहले ही तैयार हो चुका था और प्रकाशनार्थभा रतीय ज्ञानपीठ को सोप दिया गया था, किन्तु यह ज्ञानपीठ भगवान् महावीर की अहिंसा, अपरिग्रह व सत्य के विपय मे काका साहव के स्वतन्त्र विचार और शोधपूर्ण दृष्टिकोण को अपने सकीर्ण दृष्टिकोण के कारण झेल न सका एव कई वर्षों तक यह पाण्डुलिपि यो ही पडी रही और अन्न मे व बाद वारस लौटा दी गई । पश्वात् श्री राजकिशन जैन ट्रस्ट दिल्ली वानो ने इप्तको प्रकाशनार्य स्वीकार किया किन्तु यहाँ भी यह सकीर्ण वृत्ति का शिकार रही। श्री डी. आर मेहता, सचिव, राजस्थान प्राकृत भारती सस्थान ने जब इस पाण्डुलिपि का परिचय दिया गया तो उनकी प्रवल उत्कठा रही कि यह पुस्तक सस्थान द्वारा प्रकाशित की जाय । उनके अनुरोध को स्वीकार कर हमने प्रयत्न पूर्वक इस पुस्तक की पाण्डुलिपि को सकीर्ण दलदल की भूमिका से निकालकर श्री मेहता जी को प्रकाशनार्थ प्रदान की। हम मव की यह अभिलापा यी कि इस पुस्तक की भूमिका स्वनामधन्य काका साहव के चिर परिचित सहयोगी-साथी जैनागम वेत्ता तत्त्वा-वेपक पण्डित वेवरदास जीवराज दोसी से लिखवाई जाय । इसके लिये उनसे अनुरोध भी किया गया था जिसे उन्होने 93 वर्ष की वृद्धावस्था मे भी स्वीकार कर लिया था, किन्तु दैव दुर्विपाक से अकस्मात ही 12 अक्टूबर 1982 को अहमदाबाद मे उनका स्वर्गवास हो गया। ऐसी स्थिति मे हमने पुस्तक की प्रस्तावना लेखक के विचार और उनके ध्यवहार से अनुप्राणित गांधीवादी से ही लिखवाना उपयुक्त समझा । इमनिये हम सब साथियो का यही विचार रहा कि अब पुस्तक की प्रस्तावना स्वर्गीय Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ X1V काकाजी के चिरपरिचित और पण्डित बेचरदासजी के प्रिय विद्यार्थी, स्वतन्त्र चिन्तक, सत्यशोधक, राष्ट्रसत, कविवर उपाध्याय अमरमुनिजी से लिखवाई जावे । कवि श्री से लिखवाने का भार श्री गुलाबचन्द जी जैन, दिल्ली को सौपा गया। श्री गुलाबचन्द जी वार्धक्य एव अस्वस्थ होते हुए भी स्वय अपने पौत्र श्री अजितकुमार को साथ लेकर राजगृह गये और उपाध्याय श्री से प्रस्तावना के लिए निवेदन किया । उपाध्याय श्री ने मौन एव ध्यानावस्था मे रहते हुए भी काकाजी की इस पुस्तक की महत्ता को स्वीकारते हुए प्रस्तावना लिखकर हम सब को ग्रनुग्रहीत किया, एतदर्थ हम उनके हृदय से कृतज्ञ हैं । राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान के सचिव श्री देवेन्द्रराजजी मेहता और सयुक्त सचिव जैन साहित्य मनीषी महोपाध्याय विनयसागरजी ने इसे प्रकाशित कर स्वतन्त्र चिन्तको के लिए पाथेय प्रदान किया, एतदर्थं हम इन दोनो के भी हृदय से आभारी है | दिल्ली 23 अक्टूबर 1982 गुलाबचन्द जैन सरोज नानावती कुसुम शाह Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखानुक्रमणिका 1-32 3-7 8-16 17-32 १. जैन स्थलो का दर्शन 1 महावीर की निर्वाणभूमि 2 अहिमा की पृष्ठभूमि 3 अजितवीर्य बाहुबलि जैन समाज से परिचय 1 जैन समाज के माथ मेरा परिचय 2 जैनेतर 3 हिन्दू की दृष्टि से जैनधर्म 4 समस्त हिन्दू 3. महावीर का जीवन सदेश 1 महावीर का विश्वधर्म 2. महावीर का जीवन मदेश धर्म-सस्करण की आवश्यकता 1 धर्म-सस्करण 2 मुधारक धर्म में सुधार 33-54 35-40 41-44 45-50 51-54 55-66 57-62 63-66 67-92 69-80 81-92 93-104 95-98 99-101 102-103 5. धर्म-सस्करण का समाजशास्त्र । हम भूतपरस्त बनें या भविष्य के मक ? 2 नया प्रा यात्मिक ममाजगाम्य 3 परम्परा निगे बहे ?स्यावाद की समन्वय शक्ति 1 नाममाय 2 त्रिवेणी समन्वय 3 नगगागेन नि 6 105-36 107-110 115-117 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XV1 118-120 121-123 124-128 129-133 134-135 4. प्राण और सस्कारिता 5 धर्मों से श्रेष्ठ धार्मिकता 6 धर्म के प्रकार और नये धार्मिक प्रश्न 7 सर्वत्याग या सर्वस्वीकार 8 स्याद्वाद की समन्वय शक्ति जैन धर्म और अहिसा 1 जैन धर्म और अहिंसा 2 जीवनव्यापी अहिंसा और जैन समाज 3 अहिंसा का नया प्रस्थान 4 अहिंसा का वैज्ञानिक प्रस्थान 7. 137-154 139-142 143-146 147-148 149-154 8 महामानव का साक्षात्कार 1 क्षमापन का दिन 2 धार्मिक व्यक्तिवाद 3 धर्सभावना का सवाल 4 महामानव का साक्षात्कार 155-182 157-162 163-164 165-174 175-182 9. उपसहार 1. क्या जैन समाज धर्मतेज दिखायेगा? 183-193 185-193 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन स्थलों का नि महावीर को निर्वाणभूमि अहिंसा की पुण्यभूमि अजितवीर्य बाहुबलि Page #18 --------------------------------------------------------------------------  Page #19 --------------------------------------------------------------------------  Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का जीवन सदेश वेल' के समान दिखाई देते है । आसपास सभी जगह धान की खेती और बीच मे सफेद मन्दिर । रास्ता गोल चक्कर काटकर हमे मन्दिरो की ओर ले जाता है। ये पाँच मन्दिर हैं। इनमें एक ही मन्दिर प्राचीन माना जाता है। ये मन्दिर जैनियो के हैं। अत' उन्होने प्राचीनता को कही भी टिकने नहीं दिया है। काफी रुपये खर्च करके प्राचीनता का नाश करना ही मानो इनका खास शौक है। पालीताणा की भी यही हालत हो गयी है। सिर्फ देलवाडे में ही उतनी मरम्मत होती है जितनी पुरानी कारीगिरी को शोभा दे सके । मुख्य मन्दिर एक सुन्दर तालाब मे है। तालाब मे कमलो की एक घटा लिपटी हुई है। पानी में मछलियाँ और जलसर्प अंगडाई लेते हुए इधरउधर घूमते दिखाई देते है। हम जव वहाँ गये, तालाब का पानी कुछ सूख गया था । अत कमलो की गरदन खुली पड़ी थी और बेचारे पत्ते मानो सूखे पापड जैसे हो गये थे। अमृतसर के स्वर्ण मन्दिर की तरह यहाँ पर भी मन्दिर मे जाने के लिए एक पुल है । मन्दिरो का आकार नाटा पर प्रमाणशुद्ध है। गर्भगृह के आसपास चारो ओर लम्ब चौरस गुम्बज है। मन्दिर की यही विशेषता है। कलाकोविद लोग ऐसे गुम्बजो के आकार की काफी स्तुति करते है । आसपास के दूसरे मन्दिरो के शिखर ऊँचे है। शिखरो मे कोई खास कला दिखाई नही देती। फिर भी दृष्टि पर उनका असर अच्छा पडता है। इन मन्दिरो में जो मूर्तियाँ है वे असाधारण सुन्दर हैं। ध्यान के लिए ऐसी ही मूर्तियाँ होनी चाहिए । इन मूर्तियो की सुन्दरता को देख कर मैं उन्हे मोहक कहने जा रहा था। पर तुरन्त याद आया कि इनका ध्यान तो मोह को दूर करने के लिए ही किया जाता है। चित्त को एकाग्र करने की शक्ति इन मूर्तियो मे अवश्य है। इन मन्दिरो मे पूजा वहाँ के ब्राह्मण ही करते है। जैन मन्दिगे में पूजा ब्राह्मण के हाथो हो । यह कुछ अजीव-सा लगा। फिर भी 'हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेज्जिनमन्दिरम्' कहने वाले ब्राह्मण-लोमलेटी क्यो न हो-इतने उदार हो सके इस बात का सतोप जरुर हुआ। ___आज पावापुरी एक छोटा-मा देहात है । अहिंमा धर्म का प्रचार करने भाले महावीर जव यहाँ रहते थे तव उमका स्वरूप कैसा रहा होगा? Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. महावीर की निर्वाण-भूमि हिन्दुस्तान के बबई नगर तो प्रब देहात होना पोरकर नगगे। तो नामोनिया भी नहे। प्रत जोदेशात पर प्रान पायागेकी कोई नल्पना भी नहीं पी जा मानी। प्राचीन काल का या कोई प्रयोग दिखायी नहीं देना। मिर्फ महावीर में महाशियोण सामग्ण उग म्पन गे चिपका हुमा है जानिये भवानीष्टि वा हजार गाल पतीन में जामती है और महावीर क्षीण किन्नु भजन्बी नाया शान्न निन गे शिलो मो उपदेश दे रही है गंगा निप्र 17 माग ग्राम पाना समार ना परम रहस्य. जीवना मार मोक्ष पाया र मुगार में जव पर रहा था. नर पर गुनो में लिये गह कोन कोन बैटगे अपना गगेर अब गिग्ने वाला है या जागर उग शरीरमा अनिम कार्य-प्रमान गम्भीर उपदेग-प्रत्यन्न मारना गाय करने में प्राधिगे मव क्षण काम में लेने वाले उम परम पिग्गी गागिरी गन गिगी गिगा होगा? और उनके उपदेन का प्राय गिाने नोग ठीक ममने होगे अन्टि गे लिए भी अगोनर सूक्ष्म जीवों में लार पपना के लिए भी प्रगोगर पनत गोटि ब्रह्माट तफ मागे वन्नु जाति या गायाण गाने गात उम परिमा मूनि का हादं विमने जमा पिया हागा ? मनुष्य पापा । उमसी इष्टि पा. देशी होनी है, माचिन होनी है। इसलिये गे गपूर्ण मान नही हो पाता। हर एक मनुष्य ा मत्य मागी मन्य रोना । मनिए गर के अनुभवी पालोचना करने का उमं सोई अधिपार नहीं । परन् प्रधम हो जाता है । यो कहकर स्वभाव मे उत्तम मानर बुद्धि को नमना मिग्राने याने उग परमगुण को उम दिन किमने वन्दन किया रोगा ? एन मियो में जीवन के बाद भी मानव जानि के निग-हो, ममम्न मानर जानि के लिये यह उपदेश माम ग्रागा म तरह का पयान उम पुण्यपुम्प के मन में या नभी पाया होगा? मैं मानता है कि स्याद्वाद ने मानव-शुद्धि की मागिता को पहनान फर शास्त्रशुद्ध ढंग मे उमे मानव-त्रुटि के मामने रख दिया है। ग्राम दृष्टि में देखने पर कोई चीज एक तरह की मालूम होती है। दूसरी दृष्टि में देग्रने पर वह दूमरी तरह को मालूम होती है। जैसे जन्मान्ध हाथी को गांचते है, चमी दम दुनिया में हमारी स्थिति है । क्या कोई कह माता है कि यह वर्णम यथार्थ नहीं है ' जिमे यह मालूम दृया कि हमारी यही स्थिति है, वही इम जगत मे यथार्थ ज्ञानी है। जो यह पहचानता है कि मनुष्य का ज्ञान एप-पक्षी Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का जीवन सदेश है, वही मनुष्यो मे सर्वज्ञ है। वाकयी सम्पूर्ण सत्य को जो कोई जानता होगा उस परमात्मा को हम अव तक पहचान नही सके है। ज्ञान की इस मर्यादा मे ही अहिसा का उद्भव है। जब तक मैं सर्वज्ञ न बनू , दूसरे पर अधिकार जमाने का मुझे क्या हक है ? मेरा सत्य मेरे लिए है । उसका अमल मुझे अपने जीवन मे अवश्य करना चाहिये । दूसरे को उसका साक्षात्कार न हो तव तक मुझे धीरज से पेश आना है। इस तरह की वृत्ति को ही अहिंसावृत्ति कहते है। स्वाभाविक रूप से ही मनुष्य के जीवन मे सर्वत्र दुख फैला हुआ है। जन्म-जरा-व्याधि से मनुष्य हैरान हो जाता है । इष्ट का वियोग और अनिष्ट का सयोग भी जीवन मे है ही। किन्तु स्वय मनुष्य ने क्या कम दु ख खडे किये है ? मनुष्य यदि सतोप और नम्रता धारण करे तो मनुष्य जाति का नब्बे फी-सदी दुख कम हो जायगा। आज जो अलग-अलग देशो के वीच और अलग-अलग कौमो के बीच कलह चल रहे है और मृत्यु के पहले ही इम सृष्टि पर जो नर्क हम खडा करते है उसे तो हम सिर्फ अहिंसावृत्ति से ही रोक सकते है। हिन्दुस्तान के इतिहास का यदि कोई विशेष सार-बोध हो तो वह यही है कि हमने निम्न सार्वत्रिक प्रार्थना ढूंढ निकाली और चलायी सर्वेऽत्र सुखिन सन्तु, सर्वे सन्तु निरामया । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुखभाग भवेत् ॥ इस वृत्ति मे पूरा जीवन साफल्य है। हिन्दुस्तान मे जो भी आये, सब यही रह गये। कोई वापस नही गये। जो आश्रित होकर आये वे भी रह गये और जो विजेता के उन्माद के साथ आये वे भी रह गये । सभी भाई-भाई वनकर रह गये और पायदा भी रहेगे। विशाल हिन्दू धर्म कीजनक के हिन्दू धर्म की, व्यास वाल्मीकि के हिन्दू धर्म की, गौतम बुद्ध के हिन्दू धर्म की, महावीर के हिन्दू धर्म की इस पूण्य भूमि मे सवके लिए स्थान है । क्योकि इसी भूमि मे अहिंसा का उदय हुप्रा है । सारी दुनिया शान्ति की खोज कर रही है। त्रस्त दुनिया त्राहि-त्राहिं पुकार रही है। फिर भी उसे शान्ति का रास्ता मिल नहीं रहा है । जो लोग दुनिया को लूट रहे है, महायुद्ध छेड रहे है वे भी आखिर मे शान्ति ही चाहते है। किन्तु शान्ति कैसे प्राप्त हो? Page #23 --------------------------------------------------------------------------  Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा की पुण्यभूमि राजगीर से हम पावापुरी के लिए रवाना हुये । राजगृह के आसपास जो पांच पहाड एकत्र है, उनमे से लम्बे विपुलगिरि को दाहिनी तरफ करके हम चले। रास्ते में काम आयेगा, इस खयाल से मकदूम-कुण्ड का पानी भरकर साथ ले लिया। मकदूम-कुण्ड का स्थान स्वाभाविक रूप से ही रमणीय है । वहाँ नहाने की व्यवस्था करने मे इन्सानियत का खयाल रखा गया है, देखकर सन्तोष हुआ । परन्तु आसपास मछलियो की और मुरगी की हत्या होती हुई देख चित्त मे ग्लानि पैदा हुई । जिस इस्लाम ने पहले से यह निश्चय कर लिया था कि काबा के मन्दिर मे मनुष्य या पशु की हिंसा नही होनी चाहिए वह इस्लाम क्या ऐसा नियम भी नहीं बना सकता कि जहाँ-जहाँ तीर्थ स्थान या इबादत की जगह है वहाँ-वहाँ अमुक एक निर्दिष्ट मर्यादा तक प्राणी की हत्या नही होनी चाहिये। इस्लाम का यह दावा है कि आखिरी और सहल धर्म है । ऐसे धर्म में भी इतनी वात तो जोडी जा सकती है कि जो अभय-दान कावा के मन्दिर मे है, वही अभय-दान हर एक पवित्र स्थान के लिए भी होना चाहिये। मेरे विचार तेजी के साथ अहिंसा की खोज में भविष्य काल की तरफ दौड रहे थे और उतने ही वेग से हमारी मोटर अहिंमा की पुण्य भूमि की तरफ हमे ले जा रही थी। विपुल गिरि के साथ हम सात मील तक पूरब की तरफ चले और वहां सूर्य के अस्त की तैयारी के साथ-साथ हमारे भाग्य का उदय हुआ, क्योकि यहाँ हमने जो प्राकृतिक दृश्य देखा, वह सहज नही भुलाया जा सकता । जहाँ विपुलगिरि का उत्तुग शिखर समाप्त होता है, वही सुभग-सलिला पचान या पचानवेद नदी के रास्ते मे आडे आती है। यह स्पष्ट दिखाई देता था कि वह हमसे कहना चाहती थी, 'यहाँ एक रात ठहरकर न जायो " पर, हमारी मोटर की तरफ ध्यान जाते ही उसने सोचा-'ये लोग जीवन-प्रवाही नहीं हैं, तैल-प्रवाही हैं।' (या पेट्रोल-प्रवाही कहे १) ये ठहरेंगे नही । सचमुच यह स्थान इतना सुन्दर था कि अगर मीता माता यहाँ पाई होती, तो कम-से-कम तीन रात ठहरे विना आगे न जानी । भव्य पहाड की Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा की पुण्यभूमि छाया, पूजा के अक्षत-जैसी धवल रेत और 'हम कोई सामान्य पादप नही है, कुदरत के दरवार के दरवारी है, ऐसे गर्व से झूमने वाले ताड के वृक्ष और बीच-बीच मे घास और हरियाली का गलीचा सभी कुछ चित्त को तर करने वाला था। 'मैं आई, मै आई' कहती हुई सध्या ने सोने के छोटे छिडकना शुरु कर दिया था और पिता के समान पहाड उसे रोक रहा था। रेत मे मोटर चलाना कोई सहज काम नही था । परन्तु गाँव के लोगो ने ताड के विशाल हाथ रेत मे समानान्तर पसार दिये ये । इमलिये, हम आसानी से उस पार जा सके और वहाँ से पीछे की तरफ मुंह फेरकर अतृप्त आँखा से उस सारे दृश्य का फिर से पान कर सके । हम जहाँ खडे थे, वहाँ हमारे पीछे छोटा-सा गिरियक गॉव व्याल की तैयारी कर रहा था। गिरियक पार करते ही हम वज्रलेप रास्ते पर आये और वाई ओर हमने पाँच मील की दौड लगाई । यह सारा रास्ता तय करते वक्त हमारी ऑखें पश्चिम दिशा की तरफ लगी हुई थी । पहाड लॉघते ही सूर्यनारायण के फिर दर्शन हुए, जिसका प्लैटिनम अव सोने का रूप ग्रहण कर रहा था। ताड के पेड खिलाडी वालको की तरह दौड-दौड कर दर्शन मे अन्तराय करते और दर्शन का आनन्द दस गुना बढाते थे। अस्तायमान सूर्य अपनी शोभा से यह सिद्ध कर रहा था कि आर्यजन प्रत्येक स्थिति में प्रार्य ही रहते है और आदर के अधिकारी होते है । क्या यहाँ की खेती, क्या ताड के और दूसरे पेड, क्या रास्ता सभी कलामय नजर आते थे । आधे बुने हुए खेत अपनी सीधी लकीरो से सारे चित्र को रेखाकित कर रहे थे और मूरज हलके-हलके अपना ऊँचा स्थान छोडकर पृथ्वी को पुचकारने और महलाने के लिए नीचे उतर रहा था । आँखो को चौधियाने वाला अपना तेज अब उसने उतार रखा था। सूर्यास्त को आखिर तक देखते रहे या नहीं, इसका निर्णय कर सकने के पहले ही हमारी दाहिनी तरफ रास्ते पर के खम्भा ने 'पावापुरी रोड' की गर्जना की और हमने तुरन्त ही दाक्षिण्य का सेवन किया। हरे-हरे खेतो के विस्तार मे पावापुरी के शुभ्र मन्दिर कमे शोभा देते है ? इस जगह एक आर्य-हृदय के जीवन-काल का अन्त हुआ था। इस जगह 'वायु अनिल, अमृत अथेद भस्मान्त शरीर' की वेदवाणी कृतार्थ हुई थी और यहीं मे भगवान् महावीर के गणधर अहिंमा का सन्देश लेकर दस दिशाओ मे फैल गये थे । जिसने उस स्थान को 'अपापापुरी' का नाम दिया, उसे अतिशयोक्ति करने की आदत थी, ऐमा कोई नहीं कह सकता । अहिमा, अपरिग्रह Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का जीवन सदेश और तपस्या अगर पाप को हटाने में समर्थ न हो, तो मनुष्य को कभी पुण्य के मार्ग का सेवन करना ही नही चाहिए । 10 कहते है कि गोरखपुर जिले मे काशिया के पास पुप्पोर नाम का जो गाँव है, वही महावीर का वास्तविक निर्वाण धाम है । वेशक पावापुरी की अपेक्षा पुप्पोर नाम ही पापपुर से अधिक मिलना-जुलता है। कैर्निघम प्रोर राहुल साकृत्यायन भले ही सिद्ध करते रहे कि पुप्पोर ही असली स्थान है । लेकिन अगर जैनो की श्रद्धा उसे वहाँ से घमीटकर पावापुरी मे लाई हो, तो वैमा करने का उसे अधिकार है । हम तो इतिहास को खोद खोदकर देखने वाली दृष्टि की अपेक्षा भक्तो की श्रद्धा का ही अधिक ग्रादर करेगे । और हमने लगभग बीस वर्ष पहले यह स्थान देखा था । इसलिए, अव तो मन-ही-मन हमारा यह निश्चय बंध चुका है कि अपापपुर दूसरा हो नही सकता । । रास्ते की एक वडी सर्पाकृति मोड पार करके हम जल-मन्दिर के महाद्वार के पास जा पहुँचे । दूमरे तीर्थ स्थानो मे जैसी एक तरह की धवराहट होती है, वैसी यहाँ नही हुई यहाँ सब कुछ शान्त और प्रसन्न था । नया महाद्वार और उस पर बना हुआ नक्कारखाना, जो श्रव तक पूरा नही हुया है, जल-मन्दिर तक बना हुआा चौडा पुल सव कुछ एक खास किस्म के लाल पत्थर से पटा हुआ है। पुल के दोनो तरफ वगीचे है और तालाव के अन्दर कमल के पत्तं, सारे तालाव को ढक देना उचित होगा या नही, इसके निश्चय में सहज भाव से डोल रहे है । नीचे घाट के सामने वाला मन्दिर 1 पुल से ठीक समकोण मे नही है, यह विशेषता तुरन्त ध्यान खीचती है । इसलिए कुछ अटपटा-सा लगता है । 'परन्तु, अन्त मे मन मे यही निर्णय होता है कि इसमें भी एक प्रकार की विशेष सुन्दरता है । पानी की तरह पैसा खर्च करके स्थापत्य कला की मिट्टी पलीद करने का आरोप मैने ग्राजकल के जैनो पर किया है । परन्तु पावापुरी का जलमन्दिर एक प्रह्लाददायक अपवाद है । यहाँ आने के बाद भला अमृतसर का स्वर्ण मन्दिर याद प्राये बिना कुछ छोटा है, दूसरे वह है कैसे रह मकता ? पर ग्रमृतसर का तालाव एक तो मनुष्य की वस्ती के बीच श्रौर तीसरे उसमे कमल स्वर्ण - मन्दिर मे कबूतरो का उपद्रव आध्यात्मिक शान्ति का नाश करता है । नही है । इसके अतिरिक्त Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा की पुण्यभूमि यहाँ पावापुरी मे धान के खेतो के बीच शोभा देने वाला यह कमल-कासार अपनी स्वाभाविकता से राज करता है और उसमे वना हुया जल-मन्दिर किसी लोभी मनुष्य की तरह सारे द्वीप को व्याप नही लेता। उसने अपने चारो तरफ घूमने-फिरने के लिए काफी खुली जगह रख छोडी है और अपरिगह का वातावरण बनाया है। मदुरा के विशाल मन्दिरो मे अगर भव्यता है, तो पावापुरी के इस छोटे-से मन्दिर मे लघिमा और लावण्य की सिद्धि है। यहाँ की तरह अगर जैन लोग अपने मन्दिरो मे सगेमरमर का उपयोग करे, तो उनकी कोई निन्दा नहीं करेगा। हाँ, उन्हे एक बात छोड देनी चाहिए । मालूम होता है कि जैनो मे भगवान् की भक्ति की अपेक्षा अपने नाम की अभिलाषा कुछ अधिक होती है। जहाँ पर नजर डालिए, दरवाजो या महाद्वारो पर बडी-बडी तख्तियाँ दिखाई देगी और उन पर नाम लिखे हुये पाये जायेगे। कई एक तो उन्होने कितने पैसे दिये है, इसका व्यापारी झिाव भी खुदवाते है। यह सब जाहिर ही करना हो, तो दरवाजो के माथे की अपेक्षा यदि दरवाजे के दोनों तरफ की दीवार पर जमीन से दो-तीन फुट की ऊँचाई पर ही किया जाय, तो ख्याति भी मिलेगी और नम्रता की भी क्षति नहीं होगी। कुछ वैष्णव भक्त दूसरे छोर को जाकर मन्दिर के महाद्वार के सामने के फर्श पर अपने नाम और प्राकृतियाँ खुदवाते है। मशा यह होती है कि दर्शन के लिए आये हुए असख्य भक्तो की चरणरज हमारे नाम पर पडेगी, तो उससे हम पावन ह गे। इसमे नम्रता को पराकाष्ठा का परिचय मिलता है, लेकिन मुझ-जैसे दर्शनार्थिय को जो परेशानी होती है, उसका तो कोई खयाल ही नही किया जाता। उस भाई को नम्रता ने घेरा, इसलिए क्या मै उसके उद्धार के लिए लापरवाही अख्तियार करू और धूल से मलिन पैर उसके नाम पर रखू ? वैष्णव भक्तो को जरा तो दया-धर्म निवाहना चाहिए। इस बार पावापुरी के सरोवर मे सॉप न देख सकने मे कुछ निराशा हुई । साँप जव पानी मे नाचता है, तब वह दृश्य मछलिये के विहार से कही अधिक वालात्मक होता हे और पावापुरी को छोड दूसरे किस स्थान में ऐसा Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 महावीर का जीवन सदेश दृश्य देखने को मिलने वाला था । मद्रास की 'जलचरी' (एक्वेरियम) है सही, किन्तु वह है छोटी। और, काच-कुण्ड के कगार से विजली के प्रकाश मे देखाने की सुविधा होते हुए भी उमे कृत्रिम ही कहना चाहिए। सध्या की शान्ति का समय था। हम सीधे मन्दिर के भीतर पहुँचे । वहाँ एक भाई और एक वहन वीचोवीच वैठकर कुछ पाठ कर रहे थे । भाई को पढने मे कही कठिनाई हुई, तो वहन तुरन्त उसकी सहायता के लिए दौडकर उसकी कठिनाई दूर कर देती थी। हमारे देश मे ऐसा दृश्य स्वागत के योग्य है। अहिंसा का साक्षात्कार करने वाले तपस्वी महावीर का कुछ क्षण के लिए ध्यान करके मैं बाहर निकला और गुधा हुआ आटा लेकर मनोविनोद के लिए मछलिय को चुगाने के हेतु द्वीप की सीढियों के पास गया । हिन्दूमात्र को यह कार्य पुण्यप्रद मालूम होता है । मैंने इसमे पुण्य तो कही नही पाया, परन्तु विनोद खूब पाया। मछलियो का आकार कलापूर्ण ही है । खासकर जब वे झुड मे इकट्ठी होनी है और क्रीडा करती है अथवा खाने के लिए छीना-झपटी करती है तव । मोडो, ऐंठनो का नृत्य एक जीवित काव्य वन जाता है । मैने आँखे फाडकर सांपा को खोजा और निराश होकर इस मत्स्य-नृत्य से ही सतोष माना । यह जल-मन्दिर महावीर का निर्वाण-स्थान नही है, वह तो गाँवमन्दिर के नाम से पहचाने जाने वाले स्थल-मन्दिर मे है। जल-मन्दिर के स्थान पर महावीर की देह का अग्नि-सस्कार किया गया था। जैनो को बडी भारी सस्या और अतिशयोक्ति के बिना कभी सनोप नही होता । उन्होने एक कहानी गढ डाली है। अग्नि सस्कार के वक्त यहाँ तालाव नही था। परन्तु उस समय जो अरबो स्त्री-पुरुष आखिरी दर्शन के लिए यहाँ एकत्र हुए थे, उन्ह ने अपने माथे मे लगाने के लिए एक-एक चुटकी मिट्टी ली । इमसे अग्नि-सस्कार के स्थान के चारं ओर गहरा गड्ढा हो गया और उसमे पानी भर जाने से इस तालाब का निर्माण हुआ । कलकत्ता के कला-रसिक श्री वहादुरसिह मिंधी की धर्मशाला मे थोडा-सा आराम किया। प्रकाश और अन्धकार के बीच होने वाले गजग्राह के समय उस तरफ मे हमने जल-मन्दिर का अन्तिम दर्शन किया। मै उसके Page #29 --------------------------------------------------------------------------  Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 महावीर का जीवन मदेश मन्दिगे में भी अन्यागतो की सम्मतिय की पुस्तक रखी जाती है। 'देखा हमारा मन्दिर लिग दीजिए आपके दिल पर जो छाप पडी हो और आपको जो पानन्द हुमा हो उमे, "या कहकर जब किनाव आगे रखी जाती है, तव में अममजम में पड़ जाता हूँ। प्रानन्द व्यक्त करने में मुझे मकोच नहीं होता। अगर वैमा होता. तो मैं यह यात्रा सम्मरण नहीं लिखता । परन्तु, पानन्द को भी जमने और पकने में समय लग जाता है। अगर पुजारी वनिता की तरह उतावली करेंगे, तो उसमे मे विकलाग अरुण का ही जन्म होगा। बरे प्रेम में मबगे विदा लेकर हम तेल-वाहन में मवार हुए और ममय पर पटना पहचने के लिए मुख्य रास्ते पर आ पहुँचे। आकाश के मिनाग ने हमे गमलाया कि अब हम पश्चिम को जा रहे है, दोनो तरफ के पुगण-पुरप जैी वृक्ष यात्रा को सफलता का आशीर्वाद दे रहे थे । अव तो गन्त के दोनो तरफ मोटर के प्रकाश में चार-छह क्षणो के लिए प्रकट होने वाले और फिर तिरोहित होने वाले वृक्षा के मिवा देखने की कोई चीज नही थी। एकाध गुग्गोश या लोमती मोटर के प्रकाश से मडककर भागने लगती थी, तो अलमत्ता ध्यान खीचनी थी। परन्तु पावापुरी की अहिंसा-भूमि के जी-गर के दशन करने के बाद और कुछ देखने की इच्छा ही नहीं हो रही थी। पाकाग के नित्य-नूतन तारे भी बडे प्रेम मे कहने लगे, "हम तो हमेशा के लिए है ही। अाज हमारे साथ बाते न करो, तो हर्ज नही है। हम चिरसाक्षी है। यहां हमने अनेक अवतारो को देखा है । कई घटनाएँ हमने अपनी प्राखा के निमेष और उन्मेपो मे नोध कर रखी है। आज हम तुम्हारे ध्यान मै अन्तराय नहीं करेंगे। तुम ध्यान करते जाओ और हम अपने आध्यात्मिक ताल मे तुम्हारा साथ करेंगे।" उपासना के योग्य अगर कोई मार्वभौम देवता है, तो वह जीवन हे । परन्तु जीवन-देवता की उपासना विकट होती है । मनुष्य के लिए अगर कुछ हिततम हैं, तो जीवन को पहचानना ही है। जीवन-देवता बहुरूपिया है । वह देता है और लेता भी है। जन्म और मृत्यु उसकी दो विभूतियाँ है। दोनो को उसके कृपा-प्रमाद के तौर पर स्वीकार करना चाहिए । इस प्रसाद का हमारी ओर से दान करने से काम नहीं चलेगा। चाहे हम किसी को जन्म दें या मरण, जीवन-देवता तो असन्तुष्ट ही होता है। जीवन-रहस्य परखने की साधना के लिए मनुष्य जन्म ग्रहण करता है, इसी साधना के लिये जान-बूझकर मृत्यु को न्योता देने मे प्राध्यात्मिक प्रगति नही है । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 हिसा की पुण्यभूमि जन्म और मृत्यु जीवन के दो पहलू है । इन दोनो के प्रति जिसे मोह हो, वह जीवन-निष्ठ नही हो सकता । भव तृष्णा और विभव तृष्णा दोनो जीवन-द्रोही है । इमलिए, जो कोई जीवन - देवता की उपासना करना चाहे, उसे अहिंसा के द्वारा मृत्यु पर विजय प्राप्त करनी चाहिए और तपस्या के द्वारा जीवन का साक्षात्कार करना चाहिए । मृत्यु को जीतने के अनेक प्रयत्नों का उल्लेख हर एक धर्म के ग्रन्थो मे पाया जाता है। हजारो वर्षो तक शरीर को बनाये रखना, वार्धक्य टालना, रसायन खा कर वज्रकाय होना श्रादि श्रमर होने के सच्चे उपाय नही हैं । अमर होना हो, तो मृत्यु को परास्त करना चाहिए। जिसका मृत्यु मे विश्वास है, वही दूसरे को मारने का और अपने लिए मृत्यु टालने का प्रयत्न करेगा | जिसने यह जान लिया कि मृत्यु निर्वीर्य है, वह किसी को उसकी इच्छा के विरुद्ध मारेगा नही और जहाँ मर जाना श्रावश्यक हो, चहाँ मृत्यु का स्वागत करने मे हिचकेगा नही, उसी को हम मृत्युंजय कह सकते है । ऐसे जो इने-गिने मृत्युंजय महापुरुष संसार मे हो गये है, उनमे महावीर का स्थान अनोखा है क्योकि उन्होने मनुष्य जाति मे विश्वास करके अहिंसा के अन्तिम स्वरूप का उपदेश किया । प्राज हम कहते है, "मनुष्यमनुष्य का वैर शान्त नही हुआ है, भाई की हत्या से भाई नही हिचकता । जिसका वह दूध पीता है, गाय आदि पणु को मारकर खाने मे भी मनुष्य ने कोई कोर-कसर नही की। जिन जानवरो को पालकर अपने परिवार मे दाखिल किया, जिनकी मेहनत से अपना आहार जुटाया, उसको कत्ल करने मे भी जिसका दिल नही पिघलता, उस मनुष्य प्राणी से यह कहना कि 'तू हिंस्र पशु की भी हत्या न कर, कृमि - कीटको को भी यथाशक्ति बचाने की कोशीश कर और वनस्पति आहार मे भी जहाँ तक हो सके, जीव रक्षा का ध्यान रख,' शुद्ध मूर्खता है ।" परन्तु, किसी ने यह नही कहा है कि जीव मात्र के लिए आदर भाव रखना हमारा धर्म नही है । और, अगर, हिंसा के आत्यन्तिक त्याग में ही जीवन की सफलता हो, तो जिमे उसका साक्षात्कार हुआ हो, उसे उस सिद्धान्त को जनता के सामने रखना तो अवश्य चाहिए। उस वस्तु को स्वीकार करने की पात्रता श्राज मनुष्य जाति मे मले ही न हो, उसमे से कही-कही केवल हास्यास्पद दम्भ भले ही पैदा होता हो, तो भी सत्य वस्तु Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 महावीर का जीवन सदेश मनुष्य-जाति के सामने रखनी तो जरूर चाहिए। जो अहिंसा-सिद्धि के क्रम को नही पहचानेंगे, उनका जीवन विफल होगा। वे आगे बढ़ने के बदले पिछड जायेंगे। परन्तु, ज्ञान के अभाव से या साधना की त्रुटि के कारण साध्य को छिपाकर नहीं रख सकते। जिसे अहिंसा का अधिक से अधिक साक्षात्कार हुआ था और जिसने अहिंसा की साधना सिद्ध करने के लिये अपनी और अपने साथियो की जिन्दगी श्रद्धापूर्वक न्योछावर करदी, उस महावीर की वाणी जहाँ सुनाई दी, उस स्थान के दर्शन होते ही यह स्वाभाविक है कि मन अहिंसामय हो जाय और अहिंमा के बिना मनुष्यता किस तरह निस्तेज हो रही है, इसकी तरफ ध्यान जाय। जो जीवन-देवता का स्वरूप और उसका हृदय जानकर उसकी अखण्ड उपासना तथा अनन्य भक्ति करना चाहता है, उसके लिए महावीर का जीवन और उनकी वाणी हमेशा आकर्पक रहेगी। हॉ, परन्तु इतनी सावधानी रखनी होगी कि कही यह सव यान्त्रिक और कृत्रिम न बन जाय, उपासना केवल धूप-दीप वाली पूजा न बन जाय और भक्ति केवल नामधारी अभियान मे ही परिणत न हो। ज्ञान और तपस्या मे ही जग लग जाय तो किसकी शरण ले? Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितवीर्य बाहुबलि १. ज्येष्ठ या श्रेष्ठ बाहुबलि अथवा गोमटेश्वर का जीवन चरित्र किसी भी महाकाव्य का विषय हो सकता है । वाल्मीकि का रावण, व्यास का दुर्योधन और मिल्टन का शैतान - तीनो ही सुन्दर विभूतियाँ है और अपनी दुष्टता मे भी उदारता का प्रदर्शन करती हैं, परन्तु अन्त तक अपने रजोगुण को नही छोडती । बाहुबलि इनमे बिल्कुल भिन्न प्रकार के वीर पुरुष है । वे अपनी सामाजिक और मानसिक शक्तियो का रजोगुणी उत्कर्ष दिखलाते हैं और फिर इससे कही अधिक ऊचे उठ कर सतोगुण मे प्रवेश करते हैं । इस प्रकार वे आत्म कल्याण के साथ-साथ मानव समाज मे प्रतिष्ठा प्राप्त करते है । महाराज ऋषभदेव के सौ पुत्र थे । भाइयो मे आपस मे झगडा न हो और प्रजा का शोषण भी न हो इन बातो से बचने के लिए यह निश्चय किया गया कि ज्येष्ठ पुत्र को राजगद्दी दे दी जाय और शेष सब भाई गृहस्थ-धर्म को छोड़कर स्वर्ग प्राप्ति के लिए साधना करे । इस निश्चय के अनुसार 98 पुत्रो ने दीक्षा ले । ज्येष्ठ पुत्र भरत को इस व्यवस्था का ली और सासारिक राजगद्दी मिल गई विरोधी था । उसने महत्त्वाकांक्षा को छोड दिया लेकिन उसका सौतेला भाई बाहुबलि यह आपत्ति उठाई और कहा— जो ज्येष्ठ होने के साथ-साथ श्रेष्ठ भी हो उसे राजगद्दी मिलनी चाहिये - यह बात बिलकुल ठीक है, लेकिन यदि ज्येष्ठ श्रेष्ठ न हो तो आयु की अपेक्षा, योग्यता की ओर ही ध्यान देना चाहिये । क्योकि राज्य प्रजा के हित के लिये होता है, राजा के श्रामोद-प्रमोद के लिये नही । भरत भले ही ज्येष्ठ हो, लेकिन मै उनकी अपेक्षा सव प्रकार से श्रेष्ठ हूँ और राजगद्दी मुझे ही मिलनी चाहिए । जब यह विवाद खडा हुआ तो प्रत्येक को अपनी-अपनी योग्यता सिद्ध करने के लिए कहा गया । राजा मे दृढता का होना परमावश्यक है । इसके लिए दोनो की परीक्षा की गई । इस परीक्षा मे बाहुबलि श्रेष्ठ प्रतीत हुये । राजा मे अपने वाक्चातुर्य से जनता को मुग्ध करने की शक्ति होनी चाहिये Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 महावीर का जीवन सदेश इम परीक्षा में भी बाहुबलि श्रेष्ठ निकले । राजा मे बुद्धिमत्ता और प्रत्युत्पन्न मतित्व होना चाहिये-इस प्रतियोगिता में भी वाहुबलि विजयी हुए । सामन्तो को अपने अधीन करके साम्नाज्य स्थापित करना चक्रवर्ती राजा का प्रधान गुण है इस कसौटी पर भी बाहुवलि भरत की अपेक्षा खरे निकले । राजा मे दूरदर्शिता तो होनी चाहिये--इस गुण मे भी बाहुबलि ने भरत की अपेक्षा अपनी ही योग्यता सिद्ध की। अव रहा युद्ध । राजापो के पारस्परिक द्वेष के कारण प्रजा की भी हानि हो यह न्याय सम्मत नहीं है। यह सोचकर सभी दरवारियो ने सैन्य युद्ध के लिए मना किया। उस समय के लोग इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि जब दो भाईयों के पक्ष को लेकर प्रजा मे दो दल हो जाते है तो समस्त जाति का नाश हो जाता है । इसलिए द्वन्द्व युद्ध का निश्चय किया गया। फिर क्या था ? वाहु-युद्ध, दण्ड (गदा) युद्ध, मल्ल युद्व आदि अनेक प्रकार के युद्ध हुए । इसमे तो बाहुवलि आसानी से विजयी होने वाले थे ही। अब सव प्रकार से बाहुबलि की श्रेष्ठता सिद्ध हो गई। लोग उनकी जय बोलने लगे। यह देख कर भरत खीझ गये । उन्होने आपा (अपनापन) भूल कर भाई को मार डालने का इरादा किया और वाहुबलि पर प्रहार कर दिया । भरत की राज्य लिप्सा यहाँ तक बढ जायगी इसका किसी को खयाल तक न था। तेजस्वी वावलि इस कठिन प्रहार का बदला लिए विना कैसे रह सकते थे ? उन्हें ने पूरे जोर से मुट्ठी बाँधी और भरत पर प्रहार करने के लिए हाथ उठाया । लेगो के हृदयो मे हाहाकार मच गया और सबको ऐसा लगा कि भरत अब बच नही सकते । वाहुबलि को अपनी विजय पर विश्वास तो था पर प्रहार करते समय विजय की लालसा मे वे विवेक को न भूले । यदि वे दुर्बल होने तो क्रोध से अन्धे हो जाते। लेकिन उन्हे अपनी शक्ति का पूर्ण ज्ञान था । इसलिये उन्ह ने शीघ्र ही विजय प्राप्त करली। उन्होने क्रोध पर ही विजय प्राप्त करली । उन्होने सोचा-मेरी योग्यता और श्रेष्ठता तो सिद्ध हो ही चुकी है । अव भाई यदि राज्य-लिप्सा के कारण क्षुद्र बन गया है तो मै उसके साथ नीच क्या बनूं ? भाई को मार कर राज्य-सचालन करते हुए मैं प्रजा के सामने क्या आदर्श रखूगा ? जाने-दो ऐसे राज्य को और छोडो इस बन्धु-हत्या को। जिम जोर से उन्होंने मुट्ठी बांधी थी उसी जोर से उसे खोलते हुए उन्होने केशलोच (अपने हाथ से सिर और शरीर के बाल उखाडना) किया और त्याग की दीक्षा ली। भरत निर्भय हो कर राज्य करने लगे और बाहुबलि ने Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितवीर्य वाहूवलि वैराग्य-मार्ग ग्रहण कर लिया। रजोगुण से सतोगुण प्रकट हो गया । महत्वाकाक्षा की अपेक्षा भ्रातृ प्रेम, स्वजन - वात्सल्य और विरक्ति की श्रेष्ठता सिद्ध हो गई । 19 गुरु की शरण में जाने से ग्राध्यात्मिक मार्ग मे सरलता हो जाती है । बाहुबलि के लिए भी प्रठ्यानवे भाग्यो द्वारा ग्रहण किये मार्ग पर जाना श्रीर भगवान् ऋषभदेव को शरण लेना, स्वाभाविक मार्ग था, परन्तु नाभिमानी बाहुबलि को यह असगत जान पडा । छोटे भाइयो ने पहले दीक्षा ले ली थी, इनलिए वे वन्दनीय हो गये थे । बाहुबलि को दीक्षा लेकर उनकी वन्दना करना अनिवार्य था, यह उनमे कैसे हो सकता था ? श्रेष्ठत्व तो नला हो गया, अव रहा ज्येष्ठत्व भी खो दिया जाय, यह नही हो सकता । उमगे तो अपनी तपस्या के बल पर केवल ज्ञान प्राप्त करना कही अधिक अच्छा है । बाहुबलि ने यह निश्चय कर लिया। इस प्रकार माघना के प्रारम्भ मे हो दर्प और ग्रहकार ने अपना अधिकार जमा लिया । बाहुबलि ने इस निश्चय पर कठिन तपस्या मारम्भ कर दी। वे जहां डे थे, वहां दीमक मिट्टी के ढेर लग गये । उसमे बडे-बडे काले नपं श्राश्राकार रहने लगे । माधवी लता ने दीमक-मिट्टी के उमर को घेर लिया और बाहुबलि के पंगे तथा हाथो मे लिपट गई। नमार इम पूवं तपस्या को देख कर दंग रह गया पर बाहुबलि को केवल ज्ञान की प्राप्ति न हुई । वे श्राकुल हो कर अपनी तपस्या को और भी उग्र करने लगे । श्रन्त मे उन मी भाइयो को दो प्यारी बहिनें - ब्राह्मी और मुन्दरी जो स्वय त्याग की दीक्षा ले चुकी थीवहाँ आ पहुँची । स्त्री हृदय परिस्थिति की गहराई को झट पहचान लेता है सो उन वहिन ने भाई से प्रेम के साथ कहा - "वीरा गज मे नीचे उतरो" अर्थात्हे प्यारे भाई, हाथी से नीचे उतरो । बाहुबलि को यह सुन कर श्राश्चर्य हुआ । उन्होने सोचा - " मैं तो इतने दिनो से कठिन तपस्या कर रहा हूँ श्रोर हिने कह रही हैं कि मैं हाथी से नीचे उतम ।" क्षण भर बाद ही उन्हे पता चला कि वे अभिमान श्रीर ग्रहकार के हाथी पर चढे हुए थे, जहाँ सभी प्रकार के मम्कारो से मुक्त होने का निश्चय किया गया है, वहाँ श्रेष्ठ प्रथवा ज्येष्ठ होने का अभिमान रह नही सकता । जहाँ सम्पूर्ण विश्व के साथ तादात्म्य स्थापित करना है, वहाँ ठयानवें भाइयों से ईर्ष्या कैसी ? ताहुवलि की बहिने ही उसकी गुरु वनी । उन्होने ग्रहकार को छोड़ कर सभी त्यागी भाइयो के चरण छुए और जिस स्थान पर वे खड़े-खडे तपस्या कर रहे थे, वहाँ से पैर उठाने से पहले ही उन्हें केवल ज्ञान (सर्वज्ञता ) हो गया । इस प्रकार वह वीर पुरुष अपनी तपस्या मे सफल हो गया । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 महावीर का जीवन सदेश बाहुवलि ने भावोचित रजोगुण का पूर्ण उत्कर्ष दिखा कर अपने तेज को प्रकट कर दिया और उसमे अन्तहित प्रकाश को पहचान कर वे स्वय सात्विकता के शिखर पर चढ गए । सवसे नीचे की सीढी से ऊपर चढने मे कोई बुराई नहीं है। बुराई तो शिखर की ओर जाते हुए बीच मे रुक जाने मे है । निस्सन्देह प्रत्येक प्रतापी पुरुष वाहुबलि के जीवन की ओर अवश्य आकर्षित होगा, क्योकि करनी करके नर से नारायण हो जाने वाला यह उदाहरण प्रत्येक मनुष्य को ऊचा उठाने वाला है। बडे-बडे शिल्पकारो ने वाहुवलि की विशाल मूर्तियां बनाई है। इन मूर्तियो मे बाहुबलि के जीवन के एक-एक प्रसग को चित्रित खोद कर अकिंत करने में कारीगरो ने अपनी सारी शक्ति लगाई है। इस प्रकार की दो सुन्दर मूर्तियां दक्षिण भारत मे अव भी मौजूद है। इन्ही मूर्तियो के सौन्दर्य के कारण ही इनका नाम 'गोमटेश्वर' पड़ा है। मैं सन् 1925 मे कारकल गया था। वहां की पहाडी पर बाहुबलि की 47 फीट ऊ ची एक मूर्ति देखी थी। इस वर्ष जुलाई के महीने मे श्रवणवेलगोल की 57 फीट ऊची मूर्ति भी देख पाया हूँ। कारकल पश्चिमी घाट पर मगलूर और उडपी-मालपे के कोने मे है, जव कि श्रवणबेलगोल मैसूर राज्य के हासन जिले मे चन्द्रगिरि और विध्यागिरि के बीच वसा हुआ है। श्रवणवेलगोल की मूर्ति विध्यागिरि की चोटी के पत्थर मे से ही काट कर बनाई गई है। जव कि कारकल की मूर्ति पहाडी से भिन्न प्रकार के पत्थरो मे से बना कर, पहाडी के ऊपर दूर से लाकर खडी की गई है। यह सव किस प्रकार किया गया होगा, इसका अन्दाज लगाना भी आज मुश्किल है । श्रवणवेलगोल के दर्शनो की याद अब भी ताजी है। २. श्रवण-बेलगोल हिन्दुस्तान में मैसूर राज्य को विशेष अर्थो मे स्वर्ण-भूमि कहा जा सकता है । उरगाव कोलार की सोने की खानो मे प्रति वर्ष करोडो रुपये का सोना निकलता है, इस वजह से मैसूर राज्य को स्वर्ण-भूमि कहा ही जा सकता है। लेकिन वहां की सरस तथा उपजाऊ भूमि, स्थान-स्थान पर चमकते हुए तालाव, बीच-बीच मे मस्तक ऊचा कर वर्षा को पकड ले पाने वाले छोटे-बडे पहाड और उनमे वे अमृत-जल पाने वाली नदियां, प्रात और सध्या के रग-विरगे वादल और वहां के हृष्ट-पुष्ट तथा आतिथ्य-सत्कार करने Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितवीर्य वाहुवलि 21 वाले किसान, इन सवको देख कर भी मैसूर को स्वर्ण-भूमि ही कहना पडेगा। मैसूर राज्य के दो बडे-बडे भाग है। पश्चिमी भाग को पालनाड अर्थात् पहाडी प्रदेश कहते है और पूर्वी भाग को मैदानी । दोनो भागो मे छोटे-बडे सुन्दर मन्दिर और तीर्थ-स्थान फैले हुए है। प्राचीन समृद्धि, सुव्यवस्था, सात्विक पुरुषो के भक्ति और जनता के धार्मिक उत्सव आदि के साक्षी रूप ये स्थान मैसूर राज्य की ऐतिहासिक सम्पत्ति है। लेकिन इनमे भी हासन जिले में स्थित तीन स्थान मैसूर को भारत-विख्यात ही नहीं, विश्व-विख्यात भी बना देते हैं । उत्कल प्रान्त मे पुरी, भुवनेश्वर, कोनार्क आदि स्थान, आबू के पहाड मे देलवाडा के मन्दिरो, नर्मदा के किनारे के असख्य देवालय तथा तामिलनाड मे आज भी खडे भव्य मन्दिरो की स्थापत्य-समृद्धि के कारण समस्त विश्व का ध्यान हमारे देश की ओर अधिकाधिक खिचता चला पा रहा है। उनमे भी कलारसिको के कथनानुसार, अजता की चित्रकला और बेलूर हलेवीड का मूर्ति-विधान सारे समार मे अद्वितीय है। वेलूर और हलेबीड हासन जिले मे एक दूसरे से दस-बारह मील के फासले पर है। क्सिी समय ये दोनो स्थान राजधानी के रूप में प्रसिद्ध थे, आज भारत की क्लाधानी के रूप मे उत्तरोत्तर प्रसिद्धि पा रहे है । दोनो स्थानो के पास-पास जैन मन्दिर हैं, जिन्हें 'वस्ती' कहते है। सभी वस्तियां दिगम्बर (एक भेद) सम्प्रदाय की हैं और उच्च कोटि की कारीगरी व्यक्त करती है । इस प्रदेश के गांव-गांव मे विखरी मूर्तियाँ और कारीगरी से खण्डित पत्यरो को इकट्ठा करके किसी भी राष्ट्र के गर्व करने योग्य अद्भुत-संग्रहालय (Musium) तैयार हो सकता है। लेकिन यह काम इतना कठिन और व्यय-साध्य है कि उसके लिए छोटे और साधारण स्थिति के राजानो की तो हिम्मत ही नही हो सकती । वेलूर के मन्दिर मे मैमूर राज्य की ओर से विशेष विजली का प्रवन्ध किया गया है, जिसके कारण उसकी कला को भली प्रकार देखने की सुविधा हो गई है। परन्तु इन मन्दिरो का सक्षेप मे वर्णन नही किया जा सकता। आज तो मुझे हासन से पश्चिम मे, मोटर से चार घण्टे का रास्ता पार कर आने वाले श्रवणवेलगोल नामक स्थान की ही चर्चा करनी है और उसमे भी विध्यागिरि पर स्थित श्री गोमटेश्वर की विशाल मूर्ति की। महिपमण्डल अथवा मैमूर का उल्लेख अशोक के शिलालेखो मे मिलता है । ऐसा कहा जाता है कि अशोक के दादा चन्द्रगुप्त अपने गुरु भद्रबाहु को लेकर जीवन के अन्तिम दिन बिताने के लिए यहां आये थे। अपने राज्य मे वारह वर्ष का अकाल देख कर और स्वय को प्रजा के बचाने में असमर्थ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का जीवन सदेश पाकर, उन्होने राज-पाट छोड दिया और पुत्रो को राज्य-भार सौप कर, गुरु के साथ, जैनियो की इस तपोभूमि मे रहना पसद किया। गुरु ने जब देखा कि वृद्धावस्था पा रही है तो सलेखना (समाधि-मरण-मरण समय सव कुछ त्याग देना) द्वारा शरीर को छोड दिया । चन्द्रगुप्त ने बारह वर्ष तक गुरु पादुकाओ की पूजा की और अन्न मे स्वय ने भी सलेखना कर अपनी जीवनलीना समाप्त कर दी। कुछ लोगो का कहना है कि यहाँ आने वाले चन्द्रगुप्त अशोक के दादा मौर्यवशी नही, प्रत्युत समुद्रगुप्त के द्वितीय पुत्र चन्द्रगुप्त थे। इस मान्यता के पीछे जवर्दस्त ऐतिहासिक प्रमाण हो सकते है । इतने पर भी यदि यह मान लिया जाय कि ये मौर्य ही थे तो अशोक के शिलालेखो मे उसके दादा का उल्लेख क्यो नही मिलता ? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है । चन्द्रगुप्त ने जैनधर्म की दीक्षा ली, इससे अशोक ने उसकी उपेक्षा की अथवा वह यहाँ आया ही नहीं, यह कौन कह सकता है ? चन्द्रगिरि और विध्यागिरि दोनो पहाडियां इतनी पास-पास हैं और इनके आस-पास का प्रदेश इतना सुहावना है कि कवि-हुदय यहाँ आकर निवास किये बिना नहीं रह सकता। लेकिन यह आश्चर्य की बात है कि ससार से पीडित और जीवन से उदासीन साधुओ ने सनेखना के लिए ऐसा सुन्दर-स्थान चुना। जिस प्रकार भैरवघाटी आत्म-हत्या के लिए पसद की जाती है, उसी प्रकार असख्य जैनियो ने चन्द्रगिरि को सलेखना के लिए पसद किया था। आज भी कितने ही जैन दिगम्बर साधु इस पर्वत पर आकर अपने अन्तिम दिन पूरे करते है। ___ इन दोनो पहाडियो के बीच मे एक सुन्दर, स्वच्छ और चौरस तालाब है । इसी का नाम बेलगोल अथवा सफेद तालाब (धवल सरोवर) है । श्रमणो (साधुओ) के यहाँ रहने के कारण ही इसका नाम श्रवणबेलगोल पडा होगा और आगे चलकर लोग। ने इसी को श्रवणवेलगोल कहना पसद क्यिा होगा। बेलगोल का अर्थ सफेद बैंगन भी होता है और गोमटेश्वर के अभिषेक के साथ सम्बन्ध रखने वाली एक भक्त बुढिया के साथ बैगन का सम्बन्ध है। जो हो, श्रवणवेलगोल जैनियो का एक बडा तीर्थ-स्थान है । हासन से हम दोपहर को रवाना हुए। पांच-छ आदमियो का सग था। रवाना होने में काफी वक्त लग गया। तेईस मील की दौड पूरी कर हमारी बस (मोटर-लारी) चन्नरायपट्टण आ पहुँची। वहाँ से आठ मील Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 प्रतिवीर्य बाहुबलि आगे चल कर हम विध्यागिरि की तलहटी मे आ गए। गोमटेश्वर की विशाल मूर्ति के सम्बन्ध मे पहले से ही सुनने के कारण मै तो हासन से ही उसकी तलाश मे था । कोई चौदह मील की यात्रा शेप थी कि चन्द्रगिरि और विध्यागिरि दिखाई देने लगे । साथ ही शिखर (चोटी) पर एक अस्पष्ट विन्दु अथवा झण्डेर के सत स्तभ की चोटी जैसा भी एक पत्थर दिखाई देने लगा । मुझे विश्वास हो गया कि यही बाहुबलि हे और मैने शीघ्र दोनो हाथ जोडकर प्रणाम किया । कारकल मे भी बाहुबलि की मूर्ति है वह भी 47 फीट से कम ऊची नही है । उनके श्रास-पास बाँध - काम न होने से वह बहुत दूर-दूर से दिखाई देती है | श्रवणबेलगोल के आस-पास बहुत दर्शनीय स्थान है । यदि हमारे पास समय होता तो हम सबको देखे बिना न रहते, लेकिन सूरज ढल रहा था । फिर यह सोचकर कि यदि सब देखने का लोभ रहेगा तो कुछ ध्यान से नही देख पायेगे । हमने निश्चय किया कि केवल गोमटेश्वर देखकर ही लौट आयेगे । हम छोटी-छोटी छ सौ सीढियाँ चढ कर चार सौ सत्तर फीट ऊ ची पहाडी पर पहुँचे । जीने के द्वार पर ही एक सुन्दर दरवाजा है। इसका नाम गुल्लकायजी बागलु है । कन्नड भाषा मे गुल्लकायजी का अर्थ है - वैगन, बहन अथवा माता और बागलु का अर्थ है - दरवाजा । लिए इतना - सा I अब इस गरीब वैगन- मैया का भी थोडा वत्तान्त सुन लीजिए । जिस समय चामुण्डराय ने गोमटेश्वर की इस मूर्ति का निर्माण कराया और सन् 1208 मे तीसरी मार्च को रविवार के दिन इस मूर्ति की प्रतिष्ठा कराने का निश्चय किया, उस समय गुल्लकायजी नाम की एक बुढिया भी मूर्ति के अभिषेक के लिए एक फल के छिलके मे थोडा सा गाय का दूध ले आई और लोगो से अनुनय-विनय के साथ कहने लगी कि मुझे भी अभिषेक के दूध ले जाने दो। बेचारी बुढिया की ओर कौन ध्यान देता ? वह रोज सवेरे गाय का ताजा दूध लाती और शाम को गोधूलि समयं निराश होकर लोट जाती । महीने पर महीने इसी प्रकार बीत गये और अभिषेक का दिन आ गया । अभिषेक के लिए बास और लकडी का ऊँचा मचान बनाया गया । चामुण्डराय राजा का प्रधान सेनापति लोग। की श्रद्धा का पात्र और स्वय भक्ति की मूर्ति, उसके होते हुए दूध की कमी कैसे रह सकती थी । लेकिन दूध के घडे पर घडे उँडेले जाने पर भी दूध और पचामृत मूर्ति की कमर तक न पहुँच सका । लोग घबराए । कुछ न कुछ भूल अवश्य हुई है । दैव का प्रकोप है । अन्त मे बुद्धिमान लोगो को भूल मालूम हो गई । बैगन मैया को दूध लेकर आने की प्रज्ञा दी गई और उसके पास के फल के छिलके का दूध बाहुबलि के मस्तक Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 महावीर का जीवन सदेश पर चढाया गया। कितने आश्चर्य की बात थी कि वह दस तोले से भी कम दूध वढ कर वाहुबलि के मस्तक से पैर तक ही नहीं पहुंचा वरन् और भी आगे तक बहने लगा। लोगो ने अनुभव किया की गुल्लकायजी का हृदय निस्सदेह सच्चा भक्त-हृदय है । आदर और प्रतिष्ठा की भावना उनके हृदय मे है ही नही। चामुण्डराय ने देखा कि इतना श्रम, इतना व्यय और इतना वैभव एक छिलके पर दूध की भक्ति के आगे तुच्छ है। चामुण्डराय ने गुल्लकायजी की भी एक मूर्ति इस पहाडी पर स्थापित कराई और इस प्रकार अपनी विनम्रता प्रदर्शित की। हम प्राधी दूर गये थे कि वहाँ 'अखण्ड बागलु' नामक दरवाजा पाया। यह दरवाजा एक ही पत्थर से खोद कर यहाँ खडा किया गया है। यह भी हो सकता है कि कोई मोटा पत्थर इस जीने के बीच में बाधा डालता हो और लोगो ने उसे हटाने या तोडने की अपेक्षा उसे ही खोद कर दरवाजा बना दिया हो । उस दरवाजे पर गजलक्ष्मी की प्रतिमा खोदी गई है । लक्ष्मीजी पद्मासन पर बैठी हुई है और दोनो ओर के हाथी घडो से उन पर अभिषेक कर रहे है। दूसरे स्थान पर लक्ष्मा जी के एक ओर हाथी और दूसरी ओर गाय अथवा सवत्स-गाय खोदी गई है । इसके पौराणिक रहस्य को भी समझ लेना चाहिए। हम सीढियां पूरी करके दीवाल के नीचे आ पहुंचे। यहां हम भीतर जाकर बाहुबलि की दिगम्बर मूर्ति के दर्शन करने के लिए अधीर हो रहे थे, फिर भी हम ऊपर से पीछे का तालाब और सामने के चन्द्रगिरि को देखने का लोभ सवरण न कर सके। हवा सनसना रही थी। यदि उसे हम लोगा को उडा देने का अवसर मिलता तो वह कभी न चूकती। सूरज देख रहा था कि वादलो के आंचल से हाथ फैला कर वह हमे सहला सकता है या नही ? और वर्षा स्वय आकर हमे आश्वासन दे रही थी कि तुम घबरानो नही । तुम लोग जब तक दर्शन करके मोटर तक नहीं पहुंचते नव तक मै वरसने की नहीं। हमने फिर चढना प्रारम्भ किया तो गुल्लकायजी वागले ने कहाकेवल दर्शक बनकर टूरिस्ट (यात्री) वन कर आगे मत जाना । हिन्दू हो, आत्मार्थी हो, श्रद्धालु हो, भक्त हो, तीर्थ यात्री बन कर जाना । मूर्ति में व्यक्त होने वाले चैतन्य के दर्शन करके जाना। प्राधे रास्ते पर थे कि प्रखण्ड वागलु (दरवाजा) कहने लगा-'जव और वैष्णव, शाक्त और जैन सव भेद नाम मात्र के हैं- व्यर्थ है। भारत की साम्फतिक लक्ष्मी एक है, अखण्ड है, शक्तिशाली है । जिस दिन इस एकता का साक्षात्कार Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 अजितवी बाहुबल होगा, उस दिन भरत पुत्र बाहुबलि ( जिसकी भुजाम्रो मे बल हो ) जन्म लेगा और आत्म विजय द्वारा विश्व विजय करके विश्व कल्याण की स्थापना करेगा ।" इस सदेश द्वारा प्रेरणा के पख लगा कर हम ऊपर चढने लगे और इसी कारण वे कठिन सीढियाँ भी हमे सरल हो गई । ३. चामु डराय को खोज किसी राजपुरुष की माता धर्मनिष्ठ थी । रजोगुण मे से सतोगुण का उदय कैसे हुआ ? अभिमान के पत्थर मे से आत्मज्ञान की अभिव्यक्ति किस प्रकार हुई ? ऐसी इस कथा को सुन कर उसके हृदय मे श्रद्धा का स्रोत उमड पडा । उसे लगा कि यदि बाहुबलि के दर्शन न हो तो यह जीवन व्यर्थ है । किसी से उसने यह भी सुना कि कही बाहुबलि की एक हजार हाथ ऊँची स्वर्ण मूर्ति है | उसने उस मूर्ति के दर्शन करने का सकल्प किया । पुत्र ने देखा कि यदि माता को जीवित रखना हे तो बाहुवलि की खोज किये बिना छुटकारा नही । राजपुरुष क्षत्रिय था । भारी सेना लेकर चल पडा । पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण चारो दिशाए खोज डालने का उसने निश्चय किया । लाखो मेरे सैनिक है, चारा दिशाओ मे फैला दूँगा । एक हजार हाथ की मूर्ति कहाँ तक छिपी रहेगी । कभी न कभी तो मिलेगी ही । मेरी माता की आँखे कृतार्थ होगी और मैं सुपुत्र कहलाऊ गा । सेना के साथ घूमता हुआ राजपुरुष दक्षिण में आया । वहाँ उससे एक जैन मुनि ने पूछा - " हे शूरवीर इतनी बडी सेना लेकर क्यो निकले हो ? किस प्रजा का सहार करना है ? कितने घरो मे हाहाकार मचाना है ? कितने हृदयो के शाप के भागी बनना है ?” राजपुरुष ने कहा - " इनमे से मुझे कुछ भी नही करना । 'तो मात्र गोमटेश्वर के दर्शन कराने श्राया हूँ | मेरी माता उनके दर्शनो के लिए विकल है ।" साधु ने कहा - " वह मूर्ति है अवश्य, पर इस लोक मे नही । लाख-लाख यक्ष उसकी रक्षा करते है, चर्म-चक्षु से कोई उसके दर्शन नही कर सकता । लेकिन तुझे, बाहुबलि - गोमटेश्वर के दर्शन अवश्य कराऊगा । देखो, इस चन्द्रगिरि पर कितने ही जैन साधु तप करते है । इसके सामने वह विध्यागिरि दिखाई देता है । उसी के शिखर पर बाहुबलि खडे खडे तप कर रहे है । दुनिया के दुखो से दुखी हो कर, करुणामयी आँखो से वे कह रहे है - "कामये दुखतप्ताना, प्राणिना प्रतिनाशनम् ।" यदि इस चन्द्रगिरि के शिखर से तू एक सोने का बाण फेकेगा तो बाहुबलि की Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 महावीर का जीवन संदेश मूर्ति वहाँ प्रकट हो जायेगी । राजपुरुष ने अपना रत्न जडित धनुप हाथ में लिया और उस पर तीन हाथ लम्बा सोने का बाण चढाया । वाण सनसनाता हुआ हवा मे चला । विंध्यागिरि का शिखर आया, पत्थरो की पपडियाँ खिरी (गिरी) और मंत्री, करुणा, प्रसन्नता तथा विरक्ति का प्रकाश प्रकाशित करता हुआ गोमटेश्वर का मस्तक प्रकट हुआ । राजपुरुष यह देख कर आनन्दातिरेक से विह्वल हो गया । उसकी माता की ओर से अविरल अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी । तत्काल अनेक मूर्तिकार वहाँ आ पहुँचे । प्रत्येक मूर्तिकार के हाथ मे हीरे की एक-एक छेनी थी । वे बाहुबलि के दर्शन करते और आसपास के पत्थरो का हटाते जाते । कन्धे प्रकट हुए, छाती निकली । भुजा और भुजा के ऊपर लिपटी माधवी लता स्पष्ट दिखाई देने लगी। वे पैरो तक आए । नीचे पुरानी दीमक मिट्टी का ढेर था । इसमे से विकराल सर्प बाहर निकलते थे, लेकिन ये सब अहिसक । मूर्तिकार ठीक पैरो पर आए, पैरो के नाखून चमकने लगे । पैरो के नीचे एक खिला हुआ कमल दिखाई दिया । उसे देख कर सेना सहिन सब के मुख कमल खिल गये । भक्त माता का हृदय कमल भी खिल गया । अब उसे अधिक जीने की लालसा न रही। उसने कृतार्थ होकर अपने जीवन रूपी कमल को वही प्रभु के चरणो मे समर्पित कर दिया । 1 आकाश से पुष्प वर्षा होने लगी । सभी जय-जयकार करने लगे । वह मूर्ति कितनी सुन्दर थी ? दिगम्बर और पवित्र, मोहक और ज्वलन्त, तारक और उद्धारक । जितने आदमिया ने उस मूर्ति को देखा, मानो उन सभी का पुर्नजन्म हो गया । वे अव ससार को विचित्र दृष्टि से देखने लगे, जैसे उनके हृदय प्रदेश से राग-द्वेष लोप हो गया हो । उनके हृदय मे नवीन सात्विक आनन्द का अनुभव होने लगा और वे सभी 'जय गोमटेश्वर" "जयगोमटेश्वर " की ध्वनि करने लगे । ४. गोमटेश्वर के दर्शन जिस समय हम बाहुबलि के दर्शन करने गये, उस समय हमने शास्त्र की मर्यादा के अनुसार बार-बार आपाद - मस्तक दर्शन किये। उस मूर्ति के नीचे दोनो ओर दो शिलालेख है । एक ओर प्राचीन नागरी लिपि मे और दूसरी और प्राचीन कन्नड लिपि मे, लेकिन दोनो मे एक ही मराठी वाक्य लिखा है'चामुण्डराये कविले ' ' चामुण्डराय ने बनवाया । मराठी भाषा के इतिहास लेखक कहते है कि मराठी भाषा मे लिखी पुस्तको और शिलालेखो मे यह वाक्य Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजिनवीर्य बाहुबनि सवमे पुगना है। प्राज भी उपनब्ध गामग्री के अनुसार मराठी भाषा उद्घाटन इमी वाक्य के नाम हुमा । नामुण्डराय का पिता निमी देवी का भक्त होगा । इसीलिए उसने अपने पुत्र का नाम नागुण्डा माता के नाम पर चामुण्डराय रखा होगा। उम नमय के इतिहास में यह भी व्यक्त होना। कि किमी पाक गा पुन भी अस्मिात्मक मार्गी जैन-धर्म या उपासमा हया या। मराठी भाषा के प्रारम्भ में लिगने के लिए इन दोना लिपिया का समान प्रयोग होता होगा। और नव मगठी एव कारः दोनो भापार गगी बहनो की नरह नाय रहती होगी। मीनिग ता में गिनानेगग प्रसार गोटे गए है। चामुण्डगय राजपुग्प था। अपनी भाषा मगठी हाताभी वह प्रजा को दोनो लिपियों का प्रमार करना चाहता था । अपनी मधुर प्रोर भोजी मगठी भाषा का ऐमा द्वि-विध दर्शन कर मैं गद्गद् हो गया । मराठी भाषा का उद्गम यही है, यह गोचकर मराठी मापा पी इस गगोषी मे ग्नान पर मैं पविन हो गया। तदनन्तर मेरा ध्यान दीमक के घरोदो ने निगनने वाले सपों की पोर गया। यदि लोहे की तनवार में पारम मणि का म्पगं हो जाग तो इस गाने को हुई तलवार का प्राकार भले ही तलवार रहे पर उमन किमी की हत्या नहीं हो मकती। यदि उसमे किमी पर प्रहार भी किया जाये तो वह प्रहार करने की अपेक्षा स्वय ही नम जायगी पोरम प्रकार अपना 'मोनापन' प्रकट कर देगी। उमी प्रकार कारुण्य-मूर्ति, अहिंगाधर्मी बाहुवनि के चरणों में स्थान प्राप्त करने के कारण भयकर मर्प भी पूर्ण अहिंसक बन गये है और अपने फन फैना कर मानो दुनियां को अभय दान दे रहे हैं। दप्टि कुछ ऊपर बढी। वहां दोनो ओर दो माधवी-लताएँ वाहवनि के सहारे अपना विकास करती दीख पड़ीं। जैसे धीरोदात नायक में कोमलागी नायिका लिपट जाती है, उसी प्रकार इस वीर तपस्वी में माधवी लता लिपटी हुई है । उम लता ने कहा-"इस तपस्वी की मै क्या मेवा कर ? मेरा काम तो केवल इतना ही है कि इसकी कठोर तपस्या को छिपा कर, इसमें मे प्रकट होने वाली कोमलता और प्रसन्नता को दुनिया के लिए व्यक्त कर दूं। बाहुबलि मे मैं लिपट कर रह गई है- यह ठीक है, लेकिन मैं उसके लिए वन्धन-स्वरूप नही हूँ। इस बन्धन-मुक्त मुक्तात्मा का हृदय कितना कोमल है, यह निर्देश करने के लिए मैं इसके पैरो से हृदय तक चढ पाई हूँ।" Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 महावीर का जीवन सदेश सासारिक शिष्टाचार मे फसे हुए हम उस मूर्ति की श्रोर देखते ही सोचने लगते है कि यह मूर्ति नग्न है । हम अपने हृदय और समाज मे तरहतरह की गन्दी वस्तुओ का संग्रह करते रहते है, परन्तु उनके लिए न तो हमे घृणा होती है, न लज्जा । इसके विपरीत वाहर केवल नग्नता देख कर चौक उठते है और समझते है कि नग्नता मे अश्लीलता है। इसमे सदाचार के प्रति द्रोह है । यह सब लज्जास्पद है । यहाँ तक कि अपनी नग्नता से बचने के लिए लोगो ने आत्म-हत्या तक की है। लेकिन क्या नग्नता वास्तव में हेय है अत्यन्त अशोभन है ? यदि ऐसा होता तो प्रकृति को भी इसके लिए लज्जा आनी । फूल नगे रहते है, पशु-पक्षी भी नगे ही रहते है, प्रकृति के साथ जिनकी एकता वनी हुई है, वे शिशु भी नगे ही फिरते है । उनको अपनी नग्नता मै लज्जा नही लगती और उनकी ऐसी स्वभाविकता के कारण ही हमे भी उनमे लज्जा जैसी कोई चीज नही दिखाई देती । लज्जा की बात जाने दीजिए। इस मूर्ति मे कुछ भी प्रश्लील, वीभत्स, जुगुप्सित, प्रशोभन श्रीर अनुचित लगा है - ऐसा किसी भी मनुष्य का अनुभव नहीं । इसका कारण क्या है ? यही कि नग्नता एक प्राकृतिक स्थिति है । मनुष्या ने विकारो का ध्यान करते-करते अपने मन को इतना अधिक विकृत कर लिया है कि स्वभाव से ही सुन्दर नग्नता उससे सहन नही होती। दोप नग्नता का नही, अपने कृत्रिम जीवन का है। बीमार मनुष्य के आगे पके फल, पौष्टिक मेवे और सात्विक आहार भी स्वतंत्रतापूर्वक नही रखा जा सकता । यह दोष खाद्य पदार्थ का नही, बीमार की बीमारी का है । यदि हम नग्नता को छिपाते है तो नग्नता के दोप के कारण नही बल्कि मनुष्य के मानसिक रोग के कारण । नग्नता छिपाने मे नग्नता की लज्जा नही है, वरन् उसके मूल में विकारी मनुष्य के प्रति दयाभाव है, उसके प्रति सरक्षण वृत्ति है । ऐसा करने मे जहाँ ऐसी श्रेष्ठ (आर्य) भावना नही होती, वहाँ कोरा दम्भ है । परन्तु जैसे बालक के सामने नराधम भी शान्त और पवित्र हो जाना है— मे ही पुण्यात्मात्री तथा वीतरागो के भी सम्मुख मनुष्य, धान्न और गभीर हो जाता है । जहाँ भव्यता है, दिव्यता है, वहाँ भी मनुष्य दब कर शुद्ध हो जाता है । यदि मूर्तिकार चाहते तो माधवी लता की एक शाखा वी लिंग के ऊपर से कमर तक ले जाते और नग्नता का ढकना श्रमभव न होता लेकिन तव तो बाहुबलि ही स्वय अपने जीवन दर्शन के प्रति विद्रोह करते प्रतीत होते । जब बालक सामने ग्राकर नगे खडे हो जाते हैं, तब वे कात्यायनी Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिवीर्य बाहुवल व्रत करनी मूर्तियो की तरह अपनी नग्नता छिपाने का प्रयत्न नही करते । उनकी निर्लज्जता ही जब उन्हे पवित्र करती है, तब दूसरा आवरण उनके लिए किस काम का ? 29 जब मैं कारकल के पास गोमटेश्वर की मूर्ति देखने गया था, तब मेरे साथ स्त्री और पुरुष, बालक और वृद्ध सभी थे । हममे से किसी को मूर्ति के दर्शन करते समय अस्वस्थता का अनुभव नही हुआ । अचभा पैदा होने का प्रश्न ही नही था । मैंने अनेक नग्न मूर्तियाँ देखी है, परन्तु उनके दर्शन से मस्त मन विकारी होने की अपेक्षा निर्विकारी ही हुआ है । मैंने ऐसी भी प्रतिमाएँ तथा तस्वीरे देखी है जो वस्त्राभूपणालकृत होने पर भी केवल विकारोत्पादक तथा उत्तेजक जान पडी है । केवल एक मामूली-सी लगोटी लगाने वाला नागा साधु हमे वैराग्य का पूरा-पूरा अनुभव करा देता है, जब कि सिर मे पैर तक ढके हुए व्यक्ति की एक ही कटाक्ष और उसका तनिक-सा नखरा मनुष्य को अस्वस्थ बना कर पतित कर देता है । नग्नता के प्रति हमारी दृष्टि और विकारो के प्रति हमारा रुख दोन ही बदलने चाहिए । हम विकारो का भी पोषण करना चाहते है और विवेक की भी रक्षा करना चाहते है, यह कैसे हो सकता है ? यद्यपि बाहुबलि बलवान हैं, फिर भी उनका शरीर यहाँ पहलवान जैसा नही दिखाया गया है। ऐसा करने की प्रवृत्ति तो यवन मूर्तिकार मे थी । हमारे यहाँ के मूर्तिकार तो जड द्वारा चैतन्य की सृष्टि करना चाहते थे । वे मनुष्य की पाशविक शक्ति के व्यीक्तकरण की अपेक्षा पाशविक शक्ति पर विजय होने वाले वैराग्य और आत्म-सयम की प्रसन्नता का भाव प्रकट करने के लिये अधिक प्रयत्न करते थे । बाहुबलि की कमर मे दृढता है, उनकी छाती विशाल है, सारी दुनिया का भार उठाना उनके लिए मामूली बात है । यदि वे कम्बुग्रीव होते, गूढजानु होते तो सम्पूर्ण मूर्ति अधिक शोभायमान होती - यह ठीक है, परन्तु यह छोटा और मोटा गला अनायास ही 'कॉलर' की शोभा देता है, और अपने ऊपर शोभित मस्तक के कौमार्य को भली प्रकार व्यक्त करता है । सम्पूर्ण शरीर कटा हुआ, यौवनपूर्ण, कोमल और कातिमान है । ऐसी मूर्ति मे अगो के प्रमाण (Proportion) की रक्षा करना सयोग की ही बात है । एक ही पत्थर मे से खोदी हुई ऐसी सुन्दर मूर्ति ससार मे कोई दूसरी Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 महावीर का जीवन सदेश नही है । मिश्र देश मे वडी-वडी मूर्तियां है, लेकिन वे ऐसी अकड कर बैठी है कि राजत्व के सब लक्षणो और चिन्हों से युक्त होते हुए भी ऐसी मालम पडती है, मानो वलात् बैठने के लिए बाध्य की गई हो । यहाँ ऐसा नहीं है। इतनी बडी मूर्ति भी इतनी सलोनी और सुन्दर हे कि भक्ति के साथ-साथ प्रेम की भी अधिकारी हो गई है। वहुधा मूर्तिकार सम्पूर्ण मूर्ति को तो सुन्दर बना देते है, परन्तु जिसके द्वारा व्यक्तित्व का उभार दिखाया जाता है, उस चेहरे को नहीं बना पाते । इसलिए किसी मूर्ति को देखने समय में उसकी मुखामुद्रा की ओर निराशा की अपेक्षा लेकर ही डरते-डरते देखता हूँ | अच्छी से अच्छी मूर्तियो मे भी कुछ न कुछ त्रुटि रह जाती है । दूध-शक्कर मे नमक की ककडी मिल ही जाती है। इस मूर्ति का सहज आगे आया हुआ अधरोष्ठ देख कर मन मे शका हुई कि अव मेरा उत्साह नष्ट होने वाला है। इसलिए विशेष ध्यान पूर्वक देखने लगा। आगे से देखा, वगल से देखा, छिद्रान्वेषी की दृष्टि से देखा और भक्ति की दृष्टि से देखा। किसी न किसी निर्णय पर तो आखिर पहुंचना ही था । जब-तक मैं मूर्ति के सौन्दर्य को देखता रहा, तब-तक कुछ निश्चय न कर मका। चित्त मे अनिश्चितता की अस्वस्थता फैलने लगी। परन्तु शीघ्र ही मैं सचेत हो गया और मैने पागल मन से कहा-"सौन्दर्य का तो यहाँ ढेर है, लेकिन यह स्थान सौन्दर्य खोजने का नही है । यदि मुख-मण्डन पर रूप-लावण्य हो, पर भाव न हो तो वह मूर्ति पूजनीय नही हो सकती। वह कुछ प्रेरणा ही नहीं दे सकती। यह मूर्ति यहां दुनियादारी की दीक्षा देने नही खडी है । इस मूर्ति से पूछो, यह स्वय तुमसे सब कुछ कह देगी।" नज़र बदली और उस मूर्ति की भावभगिमा की ओर ध्यान गया। फिर तो कहना ही क्या था ? क्षण भर मे ही वैराग्य और कारुण्य का स्रोत बहने लगा। नही-नही, वैराग्य और कारुण्य का झरना झरने लगा और मन उसके प्रवाह मे नहा कर भव्यता के शिखर पर चढने लगा। एक आचार्य ने ऐसी ही किसी मूर्ति के दर्शन करते समय कहा है-यत्कारुण्यकटाक्षकान्तिलहरी प्रक्षालयत्याशयम्'-'जिसकी कारुण्यपूर्ण कृपादृष्टि के जल प्रवाह से हृदय के भाव धुल कर स्वच्छ हो जाते है।' इस वर्णन की यथार्थता का पूरापूरा अनुभव हमे यही हुआ। मूर्ति के मुख पर सहज विपाद है । दीर्धकाल तक मनुष्य की दुर्बलता, उसकी नीचता, निस्सार जीवन के प्रति उसका Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितवीर्य बाहुबलि 31 मोह आदि देख कर मानव-जाति के प्रति अपार दुख मूर्ति की आँखो और होठो मे समा गया है। इतना होने पर भी निराशा और खीझ का कही आभास तक नहीं मिलता। दुनिया तो ऐसी ही होती है, ऐसी ही है, इसीलिए तो उस के उद्धार का प्रश्न खडा होता है । मनुष्य की पापमय प्रवीणता अधिक बलिष्ठ है अथवा महापुरुपो, बोधिसत्वो, तीर्थकरो और अवतारो की क्षमा तथा करुणा वृत्ति ' इस प्रश्न का उत्तर मनुष्य को सदा एक ही तरीके से जो मिला है, वही उत्तर हमे इस मूर्ति की मुख मुद्रा से मिलता है। __ नीचे लटकते हुए कान, शरीर-रचना के अनुपात की रक्षा नहीं करते परन्तु मूर्ति की प्रतिष्ठा वढाते है । यही क्यो, वे हमे सौन्दर्य दर्शन की दृष्टि भी देते है। इस मूर्ति की आँखें, इसके होठ, इसकी ठोडी, इसकी प्रांखो के ऊपर की भौंह और इसके सम्पूर्ण चेहरे का कारुण्य, सभी कुछ असाधारण रूप से सुन्दर है। आकाश के नक्षत्र जैसे लाखो वर्षों तक चमकते हुए भी सदैव नवीन रहते हैं, उपा वैदिक काल से लेकर आज तक जमे अपने लावण्य और नवीनता की रक्षा करती आई है, उसी तरह एक हजार वर्ष से यहां खडी यह मूर्ति भी वैसी ही नवीन, वैसी ही सुन्दर और वैमी हो द्युतिमान है, धूप-हवा और पानी के कारण पीछे की ओर की पतली-पतली पपडी भले ही खिर गई हो, पर इससे मूर्ति का लावण्य नप्ट नही हो गया है। कहते है कि अमेरिका के किसी फण्ड के ट्रस्टी इस मूर्ति के पत्थर को जीर्ण होने से बचाने के लिए इसके ऊपर किसी प्रकार का मसाला लगाना चाहते थे, लेकिन जैनियो ने ऐसा नही करने दिया। उनका कहना है कि जव हजार वर्ष से यह मूर्ति ज्यो कि त्यो खडी है तो भगवान की कृपा होगी तो दूसरे हजार वर्ष तक भी यह ज्यो की त्यों खडी रहेगी और यदि न रहेगी तो जिस स्थिति मे होगी उसी मे हम इसकी पूजा करेंगे । दूसरी ओर- रक्षा करने वाले लोग कहते है कि इस मूर्ति पर अधिकार भले ही जैनियो का हो परन्तु इस मारे ससार की अपूर्व सम्पत्ति है, शिल्पकला का यह अद्वितीय रत्न है, अप मानव-जाति की अमूल्य विरासत है । हम वार्निश चढा कर इस मूर्ति को खराव नही करना चाहते । मूर्ति तो जैसी है, वैसी ही रहेगी, इसके प्रभाव मे तनिक भी कमी न आयेगी । इस मे जरा-सा भी और परिर्वतन न होगा। इसकी रक्षा करते हुए ही हम इसकी आयु बढाना चाहते है। वैज्ञानिक उपायो द्वारा, जहाँ तक हो सके वहाँ तक हमे इस मूर्ति की रक्षा करनी चाहिये । अन्यथा प्रभु के द्वारा प्रदत्त विज्ञान का हमारे लिए क्या उपयोग है ? एक बार तो विज्ञान का सदुपयोग होने दीजिये। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 महावीर का जीवन सदेश दोन मोर से कहने के लिए काफी है। दोनो ओर की दलीलो पर विचार करते-करते नजर फिर गोमटेश्वर की ओर गई। देखता हूँ तो मूर्ति, मूर्ति ही नही रह गई। स्वय गोमटेश्वर ही मूक वाणी मे कहने लगे- 'कितने नीच हो तुम ? मैने वैराग्य की साधना की है, और तुम इस मूर्ति को कृपा की दृष्टि से देखते हो । इसकी सुन्दरता पर मुग्ध होते हो ! मैने तो क्षण भर मे सारे ससार का चक्रवर्तित्व छोड दिया और तुम इस पत्थर की विरासत को भविष्य की पीढियो के लिए सुरक्षित रखना चाहते हो। तुम आधुनिक भौतिकवादी इस पत्थर के रूप-लावण्य की उपासना करते हो और वे सनातनी जैन मेरी जीवन-कथा पर मुग्ध है और मेरे नाम पर रचे गये शास्त्र-वचनो के शब्दार्थ मात्र से चिपके हुए है। मेरे जीवन का ज्ञान इनको वहुत ऊँचा लगता है, इमलिए पूजा का लालच देकर मुझे, अपने जितना नीचा लाने का प्रयत्न करते रहते है। तुम दोनो एक से हो। अपनी इस चर्चा को एक ओर रखो। वैराग्य का सदेश सुनाते, सयम की शिक्षा देते मैं नौ-सौ इक्कीस वर्ष से तपस्या कर रहा हूँ और तुम्हारे ऊपर कोई असर नही होता ? तुम दिनदिन अपने कल्याण मार्ग से दूर होते जा रहे हो । क्या तुम नही देखते कि इसी कारण मेरे मुख पर विपाद का भाव गहरा होता जा रहा है ? तुम सर्दीगर्मी, हवा और बरसात से मेरी रक्षा करना चाहते हो, लेकिन तुम्हारी वेहोशी और पागलपन की वढती मात्रा को देख कर मेरे मुह पर जो दुख, ग्लानि और विषाद अधिकाधिक वढता जा रहा है, इससे मेरी रक्षा करने के लिए तुम क्या करने के लिए तैयार हो ? उसकी चर्चा करो, इसकी चिंता करो, विचार करो। पत्थर तो किसी न किसी दिन चूर्ण होता ही है । जो मूर्ति है वह नो कभी न कभी नष्ट होगी ही, लेकिन जो अब तक अवसर मिला उसका तुमने क्या उपयोग किया ? इम पत्थर की मूर्ति की रक्षा करनी हो तो भले ही करो। इसके बनाने वाले कारीगरो के प्रति यह तुम्हारा कर्तव्य है । परन्तु तुम्हारा मुख्य धर्म तो, जो बोध मुझे हुआ है और जिससे मेरा जीवन सफल हुआ है, उसकी परम्परा को अखण्डित या अविचलित बनाए रखना है । यही नही, यदि तुम्हारे वाद भी हजारो लाखो वर्ष तक यह मानव जीवन की परम्परा चले तो उन सब मनुष्यो को--अशेष सत्वो को मोक्ष का ज्ञान-केवल ज्ञान और मोक्ष की साधना का धर्म भी सुलभ हो जाय, इसका विचार करना भी तुम्हारा कर्तव्य है। यदि ऐसा हुआ तो निश्चय ही प्रत्येक का जीवन-कला, लावण्य और आनन्द से पूर्ण हो जायगा।" Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाज से परिचय जैन समाज के साथ मेरा परिचय जैनेतर हिन्दू की दृष्टि से जैनधर्मं समस्त हिन्दू Page #50 --------------------------------------------------------------------------  Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाज के साथ मेरा परिचय जनो के सामने खड़े होकर जैन ममाज या जैन धर्म के साथ का अपना परिचय बताना कोई सरल काम नही है। मैं तो अग्रेज मनीपी एडमडवर्क के मत का हूँ कि किसी भी जाति, समाज अथवा राष्ट्र के बारे में सार्वत्रिक सिद्धान्त बनाये ही नही जा सकते। प्रत्येक सस्कृति की विशेपताएं हो सकती हैं, परन्तु समाज मे तो अनेक प्रकार के लोग होते है । अमुक जाति या वर्ग के नव लोग अच्छे और अमुक के बुरे जैमा भेद किया ही नहीं जा सकता। मनुष्य जाति सव जगह एकसी ही है। और, जैन ममाज के माथ मेरा परिचय भी कहां कितना व्यापक है ? मैं तो कुछ मिनो को ही पहचानता हूँ। मैंने पुमाफिरी पूरी की है। लेकिन वह तो नदियो और पर्वतो को, तीथों और मदिरो को, गांवो और उनकी परेशानियो को देखने के लिए की है । समाज की विविध प्रवृत्तियों के साथ मेरा परिचय सीमित ही है। परन्तु, मनुष्य का परिचय कम हो या अधिक, उमके साथ उसे अपना अभिप्राय तो वनाना ही पड़ता है, क्योकि अभिप्राय बनाये विना जीवन मे व्यवहार मम्भव ही नहीं होता। परन्तु ऐसा अभिप्राय शब्दो मे व्यक्त नही किया जा सकता । अपने मन में भी उसका विश्लेपण नही किया जा सकता। अभिप्राय निश्चित हो तो भी वह अव्यक्त ही रह सकता है। अपने अनुभव के आधार पर मैं इतना कह सकता हूँ कि कोई भी ममाज अपने लिए श्रेष्ठ होने का दावा नहीं कर सकता। मैं तो यहां तक कहूंगा कि अन्य जातियो से अधिक अस्मिक होने का दावा भी जैनो को नही करना चाहिए। तफसीलो मे या रीति-रिवाजो मे भले ही भेद हो, लेकिन गुजरात की सभी जातियां समान रूप से अहिंसक है। आप चाहे तो इतना दावा जरूर कर सकते हैं कि जैन धर्म के प्रचार के कारण और आपके सहवास के कारण लोगो मे इतनी अहिंसा पाई है । ऐसे दावे मे तथ्य जरूर है। *ता 27-8-29 को जैन युवक सघ, बम्बई मे दिया हुआ भाषण । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 महावीर का जीवन सदेश किसी भी व्यक्ति या समाज के वारे मे वोनते समय एक और असुविधा भी वाधक होती है । अगर गुण वताये जाय तो वह खुशामद अथवा ऊपरी शिष्टाचार माना जाता है, मानो मनुष्य दूसरो के दोप बताते समय ही मच बोलता हो। और, दोप बताते समय मनुष्य तटस्थ बुद्धि रखे तो भी कोई उस पर विश्वास नहीं करता। मेरे जितने भी जैन मित्र है उनकी उदारता और सहिष्णुता पर मैं मुग्ध हूँ। कट्टर जैन समाज में उनकी प्रतिष्ठा कितनी है, यह मैं नहीं जानता। किन्तु मेरी दृष्टि मे वे मित्र अहिंसा के सच्चे उपासक है । जैनो की मकुचितता के बारे मे मैंने बहुत कुछ सुना हे वे दान करेंगे तो वह उनकी अपनी जाति तक ही मर्यादित रहेगा, मदद करेंगे तो वह अपनी जानि के नौजवान। की शिक्षा के लिए ही होगी, फड एकत्र करेंगे या छात्रालय ख.लेगे तो भी वह अपनी जाति के प्रति रही भावना के कारण ही होगा। इस विषय मे में इतना ही कह सकता हूँ कि मेरा अनुभव इमसे भिन्न है। मैं जिस राष्ट्रीय विद्यापीठ मे काम करता हूँ, उसका विशाल भवन एक जैन सज्जन ने बनवाया है, ममस्त धर्मों के धर्मग्रन्थो से अहिंसा शास्त्र की शोध करने की मुन्दर मुविधा एक अन्य जैन सज्जन ने वहाँ कर दी है। देश की दुर्दशा की दवा के रूप में हमने अभी-अभी ग्राम-सेवा की जिस योजना पर अमल शुरु किया है, उमका आर्थिक बोझ भी एक उदार हृदय वाले जैन सज्जन ने ही उठा लिया है। ऐसे किनने उदाहरण मैं आपके सामने रख सकता हूँ। परन्तु आप कहेगे कि 'प्रत्येक जाति मे ऐसे उदार सज्जन हो सकते है, आप एक जाति के नाते हमारे कुछ दोप बताइये ।' मैं दोष बता सकू इतना निकट परिचय अभी जैन समाज के साथ मेरा नही है। किन्तु जो शकाये मेरे मन मे उठी है उन्हे ही यहाँ प्रश्न के रूप मे पूछ लूं। गुजरात के जैन अधिकतर गांवो मे रहते हैं या शहरो मे ? यदि वे शहरो मे ही रहते हो, तो आपको इस विषय मे गहरा विचार करना चाहिये । जैन लोग अधिकतर खेती करते ही नही । क्या यह बात सच है ? यदि सच हो तो मुझे कहना चाहिये कि यह स्थिति गभीर है । यदि ऐसा ही हो तो मैं कहूँगा कि आपको अपने अस्तित्व के बारे मे और अपनी प्रतिष्ठा के वारे मे जितनी सावधानी रखनी चाहिये उतनी आप नही रखते । इतना ही नही, मैं तो यह भी कहूँगा कि आप अहिंसा-धर्म के पालन की पूरी तैयारी नही करते । आहार पर जीने वाला मनुष्य खेती से विमुख रहे, यह कोई साधारण दोप है? Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाज के साथ मेरा परिचय समाजशास्त्र के आज तक के अपने अध्ययन के आधार पर मैने एक अचूक नियम ढूंढ निकाला है। जिस जाति ने जमीन के साथ अपना सीधा सम्बन्ध नही रखा है, उसने अपनी जडे कमजोर बना ली है । मै यह मानता हूँ कि जो अनाज हम खाते है वह कैसे और कहाँ उत्पन्न होता है, यह हमे अनुभव से जानना चाहिये । कही कही खेती मे होने वाली हिंसा के कारण खेती से दूर रहने की बात कही जाती है । लेकिन मेरा अनुमान है कि जैन लोग ऐसा तर्क नही कर सकते क्योकि जैनमत ने तो किये हुए, कराये हुए और अनुमोदित कार्य मे समान दोप बताया है । जो अनाज खाया जाता है उससे सम्बन्धित खेती का दोप खाने वालो को लगता ही है । इतने पर भी यदि आपका धर्म इससे भिन्न कुछ कहता हो, तो मैं लाचार हूँ । मुझे जो कुछ उचित लगता है उसे आपके सामने रखना मै अपना धर्म मानता हूँ । 37 धनी होने के दो ही मार्ग है (1) व्यापार उद्योग और (2) लूटपाट | व्यापारी व्यापार करते है और खूब धन इकट्ठा करते है । सरकार कानूनन् लूटपाट करती है और धन के भण्डार भरती है । सरकार से मेरा मतलब केवल अग्रेज सरकार से ही नहीं, आज की प्रत्येक सरकार यही काम करती है । वह व्यक्तियो को चूसती है और पशुवल से सर्वत्र राज्य चलाती है । व्यापार से समाज मे पैसा आता है, परन्तु जमीन के साथ सम्बन्ध रखे बिना समाज मे स्थिरता नही आती । पैसा शहर की चीज है । नही कि हमने शहर मे ही रहने के कारण अपने अनेक गुण खो के साथ सीधा सम्बन्ध तो गाँव मे रहने से ही स्थापित हो मनुष्य गाँव मे रहता है वह ऋतु के परिवर्तनो का, खुली हवा का, खूली धूप, ठण्ड - गरमी और बरसात का, भव्य आकाश तथा पक्षियो के मीठे कलरव का अनुभव कर सकता है । जिसे खेती करनी होती है वह आकाश की ओर टकटकी लगाकर बैठता है और रात के तारो तथा दिन के सूर्य प्रकाश के साथ एक रूप होकर जीवन बिताता है । आत्म-रक्षक वृत्ति का विकास करने के लिए भी खेती अत्यन्त आवश्यक है, क्योकि किसान को कुदरत के तथा पशु-पक्षियो के अनेक आक्रमणो के सामने निरन्तर जूझना पडता है । इसी दृष्टि से मै कहता हूँ कि क्षत्रिय और क्षेत्रीय (किसान) मे मै बहुत भेद नही करता। गाव के किसानो इसमे कोई शका दिये है । कुदरत सकता है । जो सदा ही आत्म-रक्षक वृत्ति दिखाई है। शिवाजी ने और वारडोली के किसानो ने यह बात सिद्ध कर दिखाई है । जब सत्ताधारी का प्रादेश निकलता है कि ‘you shall yield' (तुझे झुकना ही पडेगा ) तब किसान ही यह उत्तर दे Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 महावीर का जीवन सदेश सकता है कि 'I shall neither break nor bend' (मैं न तो टूटूगा और न झुकू गा)। इस विश्व मे अहिमा के समान दूसरा कोई धर्म नही है। इसे आप और मैं दोनो मानते है। फिर भी इस शरीर के साथ इस जीवन मे सपूर्णतया अहिंसा का आचरण करना किसी भी मनुष्य के लिए सभव नही हो सका। भविष्य में भी कभी यह सभव नही होगा। हमारे जीवन का उद्देश्य अपनी वर्तमान प्रवृत्तियो में हिंसा को यथामभव कम करना ही हो सकता है । इसका अर्थ यह हुआ कि जब तक हमारी सासारिक प्रवृत्तिया चलती रहे तब तक अहिमा-धर्मियो को अहिंसा के नये-नये प्रयोग चान रखने ही होगे, इसी प्रकार हमे यह भी देखना चाहिए कि खेती के काम मे अहिंसा की ओर बढने की कितनी मभावना है, क्योकि खेती को हम जितनी अहिंसक बना सकेंगे सम्पूर्ण जगत उतना ही अहिंसक बनेगा। वाहर के जीवन मे हम अहिंसा की चाहे जितनी बातें करें, परन्तु जिस अन्न के विना हमारा और जगत का जीवन एक दिन के लिए भी नही चलता, उमे उत्पन्न करने वाली खेती को जब तक हम विशुद्ध नही वनायेंगे तब तक अहिंसा-धर्म हमारे जीवन के मूल को स्पर्श नही कर सकता। सन्यासी समस्त प्रवृत्तियो से दूर रहकर स्वय वडा अहिंसक होने का दावा कर मकता है, परन्तु उसके दावे की बहुत कीमत नही है। अहिंसा-धर्म जीवित और जाग्रत विश्वधर्म है और उसकी पूर्णता हम जीवन में कभी सिद्ध कर ही नही सकते । इस अहिंसा-धर्म का आचरण हिंसक मानी जाने वाली प्रवृत्तियो से दूर रह कर तथा दूर रहते हुए भी उन प्रवृत्तियो के फलो का लाभ उठाकर हम कभी करा ही नही सकते । मैं इस बात की ओर जैन मित्रो का खास तौर पर ध्यान खीचना चाहता हूँ कि हमारा कर्तव्य ससार की स्थिति के लिए अनिवार्य प्रवृत्तियो से हिंसा के तत्त्व को यथासभव दूर करने में निहित है। इस तरह विचार करने पर मैं यह मानता हूँ कि जैन समाज को प्रार्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, बौद्धिक, स्वास्थ्य-विषयक दृष्टि अथवा अत मे मोक्ष की दृष्टि से भी जमीन के साथ अपना सम्बन्ध बढाना ही चाहिये । मैं यह कहने की इजाजत लेता हूँ कि जब तक जैन लोग ऐसा नही करेंगे तब तक उनकी प्रतिष्ठा स्थिर भूमि पर टिकी हुई नही मानी जा सकती। जैन समाज के साथ मेरा बहुत गहरा अथवा विस्तृत परिचय नही है । मेरा परिचय है पेड-पौधो और पशु-पक्षियो के साथ तथा जिन लोगो की सेवा Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाज के साथ मेरा परिचय रहता हूँ, उनमे से कुछ गरीब भाइयो के साथ । है का मै सदा लाभ उठाता मेरे जीवन का मुख्य कार्य शिक्षा | विद्यापीठ, मेरे साथी, मेरे विद्यार्थी और मै- यही मेरी दुनिया है । इन सबके होते हुए भी मुझे जो थोडे से जैन मित्र मिले है, वे बडे अच्छे - प्रेमल, उदार और पूरे सहिष्णु है और उनके कारण मेरा जैन समाज के विषय मे हमेशा बहुत ऊचा खयाल रहा है । मैने तो उन मित्रो मे ऊचा जैनत्व और अहिंसक वृत्ति देखी है । यहाँ अहिंसकता का अर्थ मैं उदार सहिष्णुता करता हूँ । मेरा विश्वास है कि यही एक ऐसी चीज है, जिसकी आज की दुनिया को बडी आवश्यकता है, और जैन लोग यदि चाहे तो दुनिया को यह चीज दे भी सकते है । आज आप दुनिया मे प्रचलित मासाहार को नही रोक सकते, क्योकि श्राज तो कुछ स्थानो मे इसके विपरीत बडी विचित्र हवा बह रही है। जैन शास्त्रो का सर्वत्र खूब अध्ययन हो, इसके लिए जैन मित्र बहुत आतुर रहते है । मुझे कोई भी जैन पुस्तक छपवानी हो तो उसके लिए पैसे प्राप्त करने मे मुझे बहुत कठिनाई नही हो सकती। लेकिन श्राज हमे यह काम नही करना है । श्राज तो हमे दुनिया की पीडा जाननी है और उसे दूर करने का उपाय सुझाना है । यह उपाय अहिंसा मे है, और यदि जैन धर्म का समुचित निरूपण किया जाय, तो दुनिया उससे बहुत स्वस्थता प्राप्त कर सकती है । 39 1 आज जब मै जैन शब्द का प्रयोग करता हूँ तब जैन नाम धारण करने वाले को जैन मानकर मै इस शब्द का प्रयोग नही करता, इस शब्द का प्रयोग मैं ऐसे लोगो के लिए करता हूँ, जिनमे जैन भावना ओतप्रोत हो गई है । ‘Hindu view of Life' के लेखक श्री राधाकृष्णन् के शब्दो मे मैं भी यह मानता हूँ कि धर्म परिवर्तन कराने का प्रयत्न जब तक रुकेगा नही तब तक जगत मे शान्ति नही होगी । प्रत्येक धर्म मे अपना विकास करने की पूरी गु जाइश और पूरी सामग्री होती ही है । प्रत्येक धर्म कम या अधिक मात्रा मे अहिंसा परायण है और उतने अश मे उसमे जैनत्व है । मुझे तो आपसे दो ही बातें कहनी है आप सहिष्णु बनिये, और जीवन की जरूरतो को यथासभव कम कीजिये । आप अपनी जरूरते कम नही करेंगे तब तक आप सच्चे अहिंसक बन ही नही सकते । हमारा साधारण जीवन तरह-तरह के द्रोहों से भरा है । धन-सम्पत्ति प्रद्रोह से मिल ही नही सकती । अपने मे से कुछ लोगो के लिए आप जप-तप करने की सुविधा जुटा दे और Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का जीवन मदेश वाकी के लोग जो कुछ करते हो वही किया करें, तो इससे समाज कभी प्रद्रोही अथवा अहिंसक वन ही नही सकता। हिन्दू धर्म ने एक ही बात कही है-और जैन धर्म उसमे आ जाता है, वह यह है कि कोई भी धर्म झूठा है ऐसा नहीं कहा जा सकता, प्रत्येक धर्म के सत्याश का प्राश्रय लेकर मनुष्य परम कोटि को प्राप्त कर सकता है और इसलिए धर्म-परिवर्तन करना व्यर्य है । इसी विचार मे स्याद्वाद के तत्त्व का सार प्रा जाता है । 'दूसरे लोग जो कुछ कहते हैं वह बिलकुल झूठ कहते है', ऐसा कहने वाले लोग पहले तो स्याद्वाद-मूलक जैन धर्म का ही द्रोह करते है। आप पैसा खर्च कर के जो पडित उत्पन्न करेगे उनसे आपका साहित्य तो खूब वढेगा, परन्तु धर्म का या जगत का उद्धार नहीं होगा । गाधीजी को कितने ही लोग उत्तम जैन-उत्तम हिन्दू-के रूप मे स्वीकार करते हैं । इसका कारण गाधीजी का पाडित्य नही है, परन्तु उनका चारित्र्य, उनका अनुभव और उनकी तपस्या है । वे ही गाधीजी कहते हैं कि इनमे से कुछ अच्छी-अच्छी बातें मुझे श्रीमद् राजचन्द्र से मिली है। और इन राजचन्द्र मे भी असाधारण पाडित्य नही या, उनमे था तपोमय जीवन और, विश्वव्यापी विशाल भावना । इन दोनो मद्गुणो को अपना कर आप जगत को जैन धर्म का सच्चा दर्शन करा सकते है। आज कुछ पाश्चात्य विचारक यह मानते है कि भारत ने अपना सदेश जगत को सुना दिया है और जगत ने उसे ग्रहण कर लिया है। अब भारत के पास जगत को देने के लिए कुछ रहा नही है, और इसलिए अब भारत को जीने का कोई अधिकार नही है। यदि अव हमे जगत को कुछ नही देना है और यदि हम मृतप्राय बन गये हैं, तो हमे ऊपर का अभिप्राय स्वीकार कर लेना चाहिये । यदि ऐसा न हो तो हमे अपने मे प्रेरणा, उत्साह, ओजस्विता और नव-निर्माण की शक्ति दिखानी होगी, अपनी विरासत को उत्तरोत्तर बढाना होगा और अपने अस्तित्व से जगत को समृद्ध तथा गौरवान्वित करना होगा। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेनेतर एक बार एक पुस्तक मेरे हाथ मे आई। उसका नाम था 'जैनेतर दृष्टि से जैन ।' उसमे मेरे भी दो लेख थे । अनेक बडे-बडे लोगो की पक्ति मे अपना नाम देखकर मुझे अच्छा तो लगा, लेकिन विशेष शोध तो उस दिन मैने यह की कि हम जैनेतर है। उसके पहले मै ऐमा कुछ जानता नही था । 'इतर' शब्द बड़े मजे का है । यह शब्द मैने पहले-पहल सुना था कॉलेज मे पढाये जाने वाले, तर्कशास्त्र मे। 'मनुष्येतर भिन्न मनुष्य '-ऐसी शास्त्रशुद्ध, तर्कशुद्ध परन्तु ज्ञान मे शून्य की वृद्धि करने वाली व्याख्याये तर्कशास्त्र मे आती थी। 'जो मनुष्य नही है उससे जो भिन्न है वह मनुष्य है।' इसलिए घानी के वैल की तरह घूम-फिर कर जहाँ से चलते वही फिर आना होता था। तर्कशास्त्र की भी कैसी बलिहारी है कि इस प्रकार की व्याख्याये देकर वह ज्ञान मे वृद्धि करना चाहता है ? इसके बाद 'इतर' शब्द सुनने में आया मद्रास की ओर के 'ब्राह्मणेतर' पक्ष के नाम मे। मैं यह मानता था कि ब्राह्मणेतर लोग हिन्दू तो होगे ही। एक बार मै मदुरा के एक ईसाई मित्र के घर ठहरा था। मैं उनका मेहमान था, इसलिए घरके सव लोगो को शाकाहार करना पड़ता था। मैने उनसे मजाक मे कहा 'शाकाहारी बनकर आप कुछ समय के लिए तो हिन्दू हो ही गये ।' लेकिन बाद में पता चला कि वे वास्तव मे 'ब्राह्मणेतर' पक्ष के माने जाते हैं। मैंने यह भी देखा कि वहाँ के ब्राह्मणेतर पक्ष का नेता भी दूसरा एक ईसाई ही है । जो मनुष्य ब्राह्मण नही है वह ईसाई हो या पारसी, ब्राह्मणेतर क्यो नही माना जा सकता' तर्क की दृष्टि का उपयोग करके मैने पूछा 'यह टेवल ब्राह्मणेतर मानी जायगी या नहीं ? यह लालटेन भी ब्राह्मणेतर है न ?' जो लोग हम से भिन्न है उनके बारे मे कुछ न जानना और उन सबको एक हो नाम के नीचे लाना, यह मनुष्य-समाज का पुराना रिवाज है । वेदो मे भी यह दिखाई देता है कि जो प्रार्य नही हे वह दास या अनार्य है । इस प्रकार * पर्युषण-पर्व के उपलक्ष मे अहमदाबाद मे आयोजित व्याय्यान-माला मे ता. 12-9-31 को दिया गया भाषण । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का जीवन संदेश श्रार्येतरो मे आर्यों से भिन्न सपूर्ण सृष्टि आ सकती है । जो मनुष्य इस्लाम को स्वीकार नही करता, वह मुसलमानो की दृष्टि मे काफिर है । जो मनुष्य यहूदी नही है उसे यहूदी लोग 'जेन्टाइल' मानते है । 'जेन्टाइल' सब अपवित्र और प्रशुचि माने जाते है । ईसाइयो की दृष्टि मे जो ईसा मसीह की शरण मे नही गया है वह 'हीन' है, उसका जीवन ही पापमय है । दक्षिण भारत मे लिंगायत लोग होते है । वे मन्दिर नही बनाते, लेकिन शिवलिंग को गले मे बाधकर घूमते है जो लोग उनकी जाति के नही होते उन्हें वे 'भवी' कहते है । 'भवी' मोक्ष के अधिकारी नही होते । वे सव भव-सागर के प्रवाह मे बह जाने वाले है । ग्रीक लोगो मे भी यही वृत्ति पाई जाती है। जो लोग ग्रीक नही है वे सब असस्कारी 'बार्बेरियन' है । 1 42 इस सारी मनो- रचना के पीछे एक प्रकार का समूह धर्म है । आप समूह के धर्म को माने, तो आपका उद्धार होगा। समूह से बाहर के सब लोग जगली, गदे, मैले अथवा विचित्र है । ऐसा समूह-धर्म यदि 'जन्म से जाति' के सूत्र को मानने वाले हमारे सनातनियो मे हो, तो उसे समझा जा सकता है । यहूदियो मे भी उसे समझा जा सकता है । लेकिन जैन धर्म मे वह क्यों होना चाहिये ? फिर भी जैन को भी इस समूह धर्म की छूत लगी है। महाराष्ट्र के जैन शुरू-शुरू मेनो सनातनियो की तरह ही रहते थे । वे गणपति की पूजा करते थे और छुप्राछूत भी पालते थे । शास्त्र के जानकार किसी मुल्ला के मिलने पर जिस प्रकार मुसलमानो मे धर्म का जोश पैदा हो जाता है, उसी प्रकार किसी जैन पति के मिलने और कहने से हमारे यहाँ के जैनो ने गणपति का उत्सव मनाना छोड दिया । तभी हमे पता चला कि जैन नाम का कोई स्वतंत्र पथ है । उस समय तक हम इतना ही जानते थे कि जो लोग रात मे भोजन नही करते और अपने मन्दिर मे दूसरो को जाने नही देते वे जैन है । यह जैन और जैनेतर का भेद 'जैनेतर दृष्टि से जैन' नामक पुस्तक मेरे हाथ मे आई उस समय फिर से ताजा हो गया । सामान्यत धर्म दो प्रकार के होते है सामाजिक धर्म और मोक्ष धर्मं । सामाजिक धर्म मे इहलोक और परलोक का विचार तो होता है, किन्तु मोक्ष का इतना आग्रह नही होता - उतावली तो होती ही नही । सनातनिय मे केवल सन्यास - धर्म मे ही मोक्ष की उत्कठा दिखाई देती है। बाकी सब को भुक्ति (भोग) भी चाहिये और यथासमय मुक्ति (मोक्ष) भी चाहिये । सनातनी लोग दूसर को अपने धर्म मे निमंत्रित नही करते, पारमी भी नही करते और यहूदी भी नही Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैननर करते । लेकिन जिन लोगों को मोक्ष का, निर्वाण का अथवा कैवल्य का मार्ग मिल गया है, उन्हे तो सभी को निमंत्रित करना चाहिये । उनके यहाँ सबका स्वागत होना ही चाहिये । किसी धर्म की दीक्षा मिलने पर ही वास्तव मे मनुष्य उस धर्म का अनुयायी माना जा सकता है । जिस धर्म मे सबका स्वागत होता है, उसमे अस्पृश्यता के लिए कोई स्थान नही हो सकता । इस्लाम मे अस्पृश्यता नही है । ईसाईयो मे नही है, बौद्धों मे भी नही है । जैन मे भी नही हो सकती । लेकिन निरीक्षण करने से पता चलता है कि सनातन धर्म का असर जैनो पर भी हो गया है । मुसलमानो और ईसाईयों को भी इस बुराई की छूत लग गई है । सिन्ध मे एक मुसलमान से मेरी बात हो रही थी। अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए हिन्दुनो के अनेक दोप दिखाकर अत मे उसने मुझसे कहा "मै तो हिन्दुओ के हाथ का पानी भी नही पीता” उसकी बात चुपचाप सुन लेने के बाद मैने कहा “तव तो हिन्दू धर्म की विजय ही हुई न ? सनातनियो मे यह रिवाज है कि वे अपने से नीची कक्षा के लोगो के हाथ का पानी नही पीने। इस बात को श्राप जिस हद तक स्वीकारे उस हद तक आप हिन्दू हो गये । मुझे प्राप नीची कक्षा का आदमी भने कहें, लेकिन यह ऊंच-नीच का भेद तो हिन्दू कसौटी से ही मापा जायगा न ? और एक बार आपने हिन्दू कसौटी स्वीकार की फिर तो ऊंचा कौन और नीचा कौन, यह अपने आप सिद्ध हो जायगा ।" 43 मजाक की वात को छोडकर मैं कहूँगा कि जैनो को इम ऊँच-नीच भेद तथा इस अस्पृश्यता को अपने समाज मे नही घुसने देना चाहिए था । मेरी दृष्टि तो जो अस्पृश्यता मे विश्वास रखता है वह जाति से भले ही जैन हो, लेकिन वास्तव मे जैनेतर ही है ? मोक्ष धर्म मे अस्पृश्यता कैसे हो सकती है ? जो मनुष्य उत्साह पूर्वक आत्मा का विकास करना चाहे, केवल आत्मा के कल्याण की दृष्टि से ही जीये, वह जैन है । दूसरो के प्रति जनूनी होने के बजाय स्वय अपने प्रति जनूनी होना और तपोमय जीवन व्यतीत करना कितना उत्तम हे ? सनातनियों ने एक आसान रास्ता खोज निकाला है । जो लोग मोक्ष के लिये आतुर है, उन्ही के लिये उसने मोक्ष धर्म रख छोडा है । सन्यास धर्म की दीक्षा लेकर यदि कोई उस के पालन मे शिथिलता दिखाये, तो सब कोई उसे धिक्कारते है । मोक्ष की लगन न हो तो कोई सन्यासी बनेगा ही क्यो ? मे तो मानता हूँ कि जिसे मोक्ष की, कैवल्य पद की लगन लगी है वही जैन है । वाकी के सब लोग जैनेतर है । उन्हे सनातनी भले ही कह लीजिये । सनातनियो मे सब के लिए स्थान है । समूह धर्म की कमीटी को सामने रखकर यदि जैन और जैनेतर का भेद हम करें तब तो जैन धर्म टिक ही नही सकता । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 महावीर का जीवन सदेश 1. एक वार मै नागपुर की ओर रामटेक की पहाडी देखने गया था। उसकी तलहटी मे एक जैन मन्दिर है । उस मन्दिर के पास धन-दौलत होगी, अत उसकी रक्षा के लिए सिपाही, बन्दूक, तलवार सब कुछ रखा गया था। मै तो वह सब देखकर दग रह गया। मैने पूछा "क्या यह शाक्त मदिर है ? यहाँ मैं दुर्गापाठ करू ?" मन्दिर के पुजारियो ने मुझ से कहा “नही, नही, यह तो जैन मन्दिर है।" मेरी बात वे लोग समझे नही, और उनकी बात मैं नही समझा मैं वहाँ से लौट प्राया। मन मे विचार उठा जहाँ धन का सग्रह हे और उसकी रक्षा के लिये जहाँ राज्यसत्ता की सहायता ली जाती है, जहां हिंसा के हथियार खुले तौर पर रखे जाते है, वहाँ जैन धर्म कैसे हो सकता है ? आखिर समूह धर्म ने जैन धर्म पर विजय प्राप्त कर ली है। आत्मा को भूल जाने के बाद और अनात्मा को ऊंचा मानने के वाद छोटे-छोटे प्राचारो का पालन किया तो भी क्या और न किया तो भी क्या ? आज के दिन का उपयोग हृदय शुद्धि के लिए किया जाना चाहिये । हृदय शुद्धि तो होगी तब होगी, लेकिन हम विचार शुद्धि तो कर ले । जो मनुष्य प्रात्मा और अनात्मा का विवेक नही करता, जो मनुष्य केवल आत्मा को ही पहचानने और उसकी रक्षा करने का प्रयत्न नहीं करता, वह धार्मिक नही है, जैन तो वह किसी भी हालत मे नही है। इस्लाम मे एक सिद्धान्त का बडे जोरो से उपदेश किया गया है। ईश्वर एक है, अद्वितीय है, उसके साथ किसी दूसरे मनुष्य को या पदार्थ को मिलाया नही जा सकता, शरीक नही-किया जा सकता, यह इस्लाम का एक महान् सिद्वान्त है। ईश्वर के साथ दूसरे किसी को मिलाने के गुनाह को 'शिर्क' कहा जाता है । जो मनुष्य शिर्क का गुनाह करता है वह मुशरिक है- काफिर है। इम्लाम का यह सिद्वान्त मुझे अच्छा लगता है। हम अपनी परिभापा मे इस सिद्धान्त का विचार करें। अतर्यामी परमात्मा ही हमारी शुद्ध आत्मा है । उसके साथ हम अनात्मा को मिला दे, तो यह 'शिक' का गुनाह होगा। जो मनुष्य केवल आत्मा के प्रति ही सच्चा है, आत्मा की उन्नति के लिए ही जीता है, अनात्मा के मोहजाल मे नही फसा, वही जैन है। बाकी के सब लोग जैनेतर है । इस शुद्ध विचार की दृष्टि से क्या हम सभी जनेतर नहीं है ? कौन आत्मा परायण है और कौन नही है, यह तो मनुष्य का अपना अन्तर ही उससे कह सकता है। बाहरी जीवन से तो लगता है कि मै भी जैनेतर हूँ और पाप लोग भी जैनेतर हैं। फिर भी यदि इस समाज में कोई जैन हो तो उसे मेरे हजार-हजार प्रणाम । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दू की हष्टि से जैन धर्म जैनियो के साथ मेरा ऋणानुवन्ध कुछ अजीव-सा है। मेरे वचपन मे एक दिगम्बर जैन-परिवार हमारे पडोस में रहता था। मैं उनके घर मे खेलने जाता । लेकिन देखा कि इर्द-गिर्द के लोग उनसे सम्बन्ध नही रखते । कहते कि "ये बोपारी लोग अच्छे नही।" मेरे साथ तो उनका सलूक अच्छा था, इसलिए मैंने अपने लोगो से पूछा कि "इनमे क्या बुराई है " कहा गया कि "इनके मन्दिर मे नग्न मूर्ति की उपासना होती है ।" दूसरा कारण यह बताया कि " ये लोग अहिंसा को मानते तो है, लेकिन चलने-फिरने में जो अपरिहार्य हिंसा होती है उसका पाप वडी खूबी से दूसरे किसी के सिर पर डाल देते है।" इस जवाव से मुझे सन्तोप नही हुआ, लेकिन जैनो के बारे में जानकारी हासिल करने का कुतूहल जागा। मैं देखता हूँ कि अपने देश मे हम हजारो वर्षों से ऐसा कूप-मडूक का जीवन व्यतीत करते है कि पडोसियो के बारे में भी घोर अज्ञान रहता है । लोग अपने सम्प्रदाय के बाहर का कुछ जानते ही नहीं । जो जानते है वह विकृत स्प मे और मशोधन तो कभी करते ही नहीं । नग्न मूर्ति की पूजा का नाम सुनते ही गावत-सम्प्रदाय की कल्पना मन मे खडी हो जाती है और स्वाभाविक रूप से मन मे जुगुप्सा पैदा होती है । किन्तु वीतराग मुनियो की नग्नता कुछ और चीज है । आज मैं कला और नीति दोनो दृष्टियो से इस नग्नता का समर्थक हूँ और अहिंसा के बारे मे तो कह सकता हूँ कि अपना पाप दूसरे के मत्थे मढ देने की बात जैन धर्म मे नही है । कायिक, वाचिक और मानसिक हिसा का स्वरूप पहचानते-पहचानते जैन-मुनि बहुत गहराई तक पहुंचे है। हिसा करना, करवाना या उसका अनुमोदन करना-तीनो को वे एक-सा पाप समझते है । धर्मों की स्थापना भले ही शुद्ध, सात्विक लोगो ने की हो, किन्तु उनके सम्प्रदायो का विस्तार और प्रचार करने वालो मे रजोगुण की कमोबेश मात्रा होने के कारण सब धर्म-परम्परागो मे कुछ न कुछ दोप आ ही जाते है । * 28 फरवरी 1959-फिरोजाबाद मे श्री वर्णी अभिनन्दन सभा मे दिया गया भापण। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 महावीर का जीवन सदेश अतिशयोक्ति, अहकार, अभिमान, परनिन्दा, असहिष्णुता आदि दोप सब धर्म के लोगो में पाये जाते हैं। जहाँ आग्रह आया, वहाँ एकागिता आ ही जाती है। यह सब जानते हुए भी जिम तरह मैं अपने धर्म के प्रति श्रद्धा-भक्ति रखता हूँ, वैसे ही और धर्मों के प्रति भी रखता हूँ। अपने दोपो के प्रति जैसा सौम्यभाव रहता है वैसा ही सबके दोपो के प्रति भी आवश्यक समझ गया हैं। अगर भेद-भाव रखना ही है तो हम अपने दोपो के प्रति कठोर बन सकते है । स्यावाद ने मुझे सिखाया है कि औरो की स्थिति को हम वरावर समझ नहीं सकते, इस कारण भी औरो के दोपो के प्रति क्षमाभाव और सौम्यता धारण करनी चाहिये । 'हिन्दू' शब्द हमारे धर्मशास्त्र मे कही नही पाता। औरो ने हमारे देश, हमारी संस्कृति और हमारे समाज के लिए 'हिन्दू' शब्द लगाया है । सिन्धु नदी के किनारे जो सस्कृति संगठित हुई और सारे देश में फैली, वह सस्कृति हिन्दू-सस्कृति है। सस्कृति के मानी है, जीवन-दृष्टि और जीवनव्यवस्था । इस हिन्दू-सस्कृति के अन्तर्गत अनेक धर्म, अनेक सम्प्रदाय, अनेक साधनाएँ, पथ और फिर्के पाये जाते है, उनके अन्दर सूक्ष्म और मौलिक भेद जरूर है, लेकिन जिस तरह एक ही परिवार के लोगो की शक्लो मे पारिवारिक साम्य दीख पडता है, वैसे ही हिन्दू-सस्कृति के सब सम्प्रदायो मे एक-जातीयता पायी जाती है। इन सब का स्वभाव एक-सा है, इनकी समाजव्यवस्था करीब-करीव एक-सी है । गुण-दोष भी एक-से पाये जाते है। यह सब देखकर 'हिन्दू' शब्द की व्याख्या करनी चाहिये, निरुक्ति के सहारे हम कह सकते है कि 'हिंसया दूयते चित्त यस्या सौ हिन्दुरीरित'-'हिसा की कल्पना मात्र से ही जिसका चित्त दुखी होता है, उद्विग्न होता है, वह है 'हिन्दू' । हिन्दू का स्वभाव ही है कि वह 'भूतानुकूल्य भजने' सब प्राणी स्वभाव से ही प्रोगे का द्रोह करके जीते है । धर्म कहता है कि द्रोह बुरी चीज है । 'अद्रोहेणैव भूताना अल्पद्रोहेण वा पुन' अपनी-अपनी आजीविका प्राप्त करनी चाहिये । मनुष्य से लेकर सूक्ष्म जीवो तक सब के प्रति प्रतिकूल भाव छोड देना और सब के प्रति अनुकूल बनना-यही है हिन्दू-वृत्ति, हिन्दू-स्वभाव । इस स्वभाव का विकास सब मे एक-सा नही हुआ है। कोई बहुत आगे बढे है, कोई कम, लेकिन सब का प्रस्थान उस एक ही दिशा मे है । इसीलिये ये सव हिन्दू हैं। इन हिन्दुओं की धार्मिक जीवन-धारा प्राचीन काल से श्रमण और ब्राह्मण इन दो Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47 हिन्दू की दृष्टि मे जैन धर्म प्रवाहो में वहनी प्रायो है। इन दोनों के बीच गुणो और दोपो का आदानप्रदान हमेशा चलता आया है । ग्राह्मण यानि वैदिक धारा मे जो हिंसा मूला यज-मम्या चल रही थी वह श्रमण मम्कृति के पोर सन्तो के प्रभाव से नाम प हो गयी। यज-मस्था का प्रारम्भ गायद हिंसा मे नही हुया होगा. लेकिन उमया विस्तार पगु हिमा के म्प में ही हो गया। जात-पान भेद शायद गुरु में वैदिक मम्मृति में नहीं थे। ग्राज के स्प मे तो वे नही ही थे । लेकिन वण-व्यवन्या और जाति-व्यवस्था ही वैदिक मस्कृति का प्रधान रूप बन गया। यह वर्ण और जाति-व्यवस्था श्रमण मम्कृनि के अनुकूल नहीं थी, तो भी उमका प्रारमण श्रमण-सस्कृति पर काफी मात्रा मे हुया है । जब वैदिक-परम्पग के हम लोग उम जाति-व्यवस्था को धर्मविगेधी मम्झकर तोडने को तैयार हुये है, तव श्रमण-मम्मृति के लोग उसे अपने समाज का प्राण ममतकर कभी-कभी मजबूत करने की कोशिश करते है। जाति-भेद तो सकुचितता और ऊँच-नीच भाव पर ही प्राधारित है। वर्ण व्यवम्या मे न्यक्ति का जीवन-विकाम एकागी ढग मे होता है । ब्राह्मण, क्षनिय, वैश्य, शूद्र चार वण मानो किमी एक यन्त्र के पुर्जे है । यन्त्र में मम्पूर्णता मले हो, पुर्जी का जीवन एकागी ही होता है । अथवा यो कह कि जीवन उनका स्वतन्त्र है ही नहीं। आज की मानवता का तकाजा है कि व्यक्ति के जीवन में एकागिता का प्रवेश समाज के लिये पतरनाक है। श्रमण-मस्कृति ने वर्ण-व्यवस्था को न स्वीकार किया और न उसका विगेध ही । उमकी उपेक्षा ही की । वैदिक-परम्परा के विकाम में जब प्रियाकाण्ट चेतनहीन हो गया, तब मन्तो का प्रादुर्भाव हुआ । मन्तं ने भी वर्ण और जाति को अप्रतिष्ठिन किया, और इतना तो म्पप्ट कहा कि मानवी विकास के लिये वर्ण और जाति पोपक नही, वाधक है । श्रमण-सस्कृति का ही यह फल था। इस प्रकार यह साफ है कि श्रमण-सम्कृति और ब्राह्मणमस्कृति दोनो धाराए समानान्तर वहती पायी है । द नो के बीच प्रादान-प्रदान चलता रहा है अच्छाइयो का भी और दुराइयो का भी। अब हम इन दोनों के बीच समान भाव से बढी और एक सस्था का विचार करें। वह है मन्दिरो की सस्था । मूल वैदिक-सस्कृति मे शायद Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का जीवन सदश मूर्तिपूजा नही थी । मन्दिर तो थे ही नही । यज्ञ-सस्था ही उस सस्कृति का बाह्य स्वरूप था । सम्भव है, मूर्तिपूजा और मन्दिर की सस्था इस देश मे बाहर से ही आयी हो । वौद्ध विद्वान् धर्मानन्द कोसबी का कहना था कि 'हमारे यहाँ मूर्तिपूजा शायद अरबस्तान से आयी है।' मेरा खयाल है कि यूनानी और रोमन लोगो का अनुकरण करके हमने अपने यहां मूर्तिपूजा और मन्दिरो का विस्तार किया होगा । मूर्ति और मन्दिर की स्वीकृति शायद श्रमणसस्कृति मे पहले हुयी, बाद मे वैदिक लोगो ने उसे अपना ली होगी । इस वारे मे निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। आगे चलकर जब श्रमण और ब्राह्मण दोनो धाराप्रो मे शाक्त पद्धति का प्रचार हुना, तब मूर्तिपूजा मे अनेक दोष भी आ गये और मन्दिरो द्वारा अनेक बुराइयो का समर्थन होने लगा। सनातनी मन्दिरो मे खान-पान, भोग-नैवेद्य का झझट बहुत है। मन्दिरो मे किसी बड़े राजा के सुखोपभोग और विलास का अनुकरण ही होता है । जैन मन्दिरो मे यह झझट नही है। भोग-नैवेद्य के रूप मे जहाँ खान-पान का व्यवहार आया वहाँ स्पर्शास्पर्श का पाखण्ड आ ही जाता है । जैन मन्दिरो मे नैवेद्य का विधान न होने से दर्शन की इजाजत हर किसी को आसानी से दी जा सकती है। जैन-धर्म विश्व-धर्म है । वह सब को अहिंसा, तप और आत्मोन्नति की ओर बुलाता है। ऐसे मन्दिर मे किसी को भी दर्शन की रुकावट नही होनी चाहिये । हिन्दू धर्म की श्रमण धारा मे उच्च-नीच भाव का और स्पृश्यास्पृश्य का विधान हो नहीं सकता । मन्दिर मे जाकर दर्शन और पूजा करने से अगर कोई धार्मिक या आध्यात्मिक लाभ होता हो, तो हरिजनो को उससे वचित नहीं रखना चाहिये। ___ यहाँ मै जरा अपनी भूमिका भी स्पष्ट कर दूं। जो लोग आजकल मन्दिर मे जाते है, उनकी आध्यात्मिक उन्नति कहाँ तक होती है, इसका हिसाव किसी ने नही लगाया,। ऐसी हालत में हमारी मन्शा यह नहीं कि हरिजन मन्दिर जाने के आदी बने । हम इतना ही चाहते है कि मन्दिर चलाने वाले लोगो की सकुचितता और बहिष्कार-वृत्ति दूर हो । मन्दिर निर्माता, व्यवस्थापक और मन्दिर मे जाने वाले सब को मैं मन्दिर-सस्था के आधार स्तम्भ समझता हूँ। इनके मन मे जो रूढिवादी सनातनी-वृत्ति घर कर गयी है, वह समाज-स्वास्थ्य के लिये खतरनाक है । उसे दूर करना ही मन्दिर-प्रवेश आन्दोलन का प्रधान उद्देश्य है। मन्दिर-सस्था के प्रति हमे Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दू की दृष्टि से जैन धर्म श्रादर है | उस मस्था मे फिर से चैतन्य लाया जा सकता है. इस विश्वास से ही हम मन्दिर प्रवेश की ताईद करते हैं । 49 पारसी लोगो का जरथुन्त धर्म, मुसलमानो का इस्लाम, ईसाइयों का विश्वासी धर्म तीनो परदेश मे प्राये धर्म है । यहूदी धर्म भी वैसा ही है । इनको छोड़ बाकी के धर्म इमी भूमि मे निकले हैं । यहाँ की ममाज-व्यवस्था भी उन्हें मान्य है | ये नव हिन्दू धर्म की शाखाएं हैं। ऊपर बताये परदेशी धर्म भी प्रदान-प्रदान द्वारा ग्राहिना-ग्राहिस्ता स्वदेशी वन रहे है । उनके अमर के कारण पूरे हिन्दू धर्म मे भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन होते रहे हैं । हिन्दू धर्म की यही खूनी है कि उसने कभी भी प्रादान-प्रदान मे इनवार नही किया है । मूर्तिपूजा का प्रश्न ग्रव बिल्कुल गोण हो गया है । एक ही मन्दिर मे दिगम्बर और श्वेताम्बर मान्यता की मूर्तियां रखकर भेदभाव क्यो न मिटा दिया जाय ? आहार के बारे में भी नये ढंग से मोचना चाहिये । जो लोग मासाहार नहीं करते, उनको अपने शुभ सिद्धान्तो मे दृढ रहने के लिये क्या मामाहारी लोगो के बहिष्कार की श्रावश्यकता है ? अप्रगतिशील रूटिवादी ही वहिष्कार श्रीर पार्थक्य का सहारा लेते हैं । जैन लोगों ने हिन्दू धर्म मे रह कर श्रहिंसा का जितना प्रचार किया है, उतना प्रचार वे हिन्दू-ममाज में अलग रह कर नही कर सकेंगे । किन्तु ग्राज-कल कई जैनियो मे धार्मिक व्यक्तिवाद घुम गया है और दो-एक कानूनो से बचने के लिये वे कहने लगे हैं कि हम 'हिन्दू' नही हैं। में उनका प्रतिवाद नही करूंगा | जो बाहर जाना चाहता है उसके लिये दरवाजे खुले रखना हिन्दू समाज का स्वभाव ही है। पहरा रखा जाता है अन्दर आने वालो के लिये । मेरा दिल इतना ही कहता है कि हिन्दू-समाज के सब से बडे पाप अस्पृश्यता को जिन्होने अपनाया है, कम से कम वे तो पूरे-पूरे हिन्दू ही हैं । श्रहिंसा के कई क्षेत्र हैं । श्राहार के बारे मे सब लोग जानते ही हैं । किमी का भी द्रोह किये बिना, किसी की मेहनत से नाजायज फायदा उठाये विना आजीविका प्राप्त करना, यह है अहिंसा का सब से वडा क्षेत्र । बिना अपराध किसी को हीन या नीच समझना सामाजिक हिंसा है। अफ्रिकन या चीनी या यूरोपियन किसी भी वश के लोगो को अपने से हीन समझना, उनका Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर सपोरन कान बहिष्कार करना भी हिंसा है। मानवता का और विश्व-वन्धुत्व का द्रोह है। गांधीजी के बाद यानी सत्याग्रह का शुद्ध सात्त्विक शाम्य पान र बार भी शस्त्र-युद्ध भी अनावश्यक, परिहार्य हिंसा है। यह बात दुनिया के राहाको किसी न किमी दिन मान्य होने वाली है । जैन धर्म को एक बात सुमं मानो नगी है । प्रचार धर्म होते हुये भी उसने और किसी धर्म की तरह बरस अनुयायियों की संख्या बढाने को कोशिश नहीं की है । जो भी पान गर राजी हुगा कि तुरन्त उसको अपना लेवल लगा कर सख्या वृद्धि का मधानिक मवार और लाभ पाने का प्रयत्न जैन धर्म ने नहीं किया है । सन्या वरि नही, किन्तु चारित्र्य वृद्धि ही सच्चे प्रचार का फल है। मेरे मित्र श्री धर्मानन्द कोसबी जन्मना ब्राह्मण थे। बाद में एल बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। बौद्ध धर्म सीखने के लिये नेपाल, तिबन, मिनाल, बप्रदेश, सियाम प्रादि देशो मे वे घूमे। बाद मे सेवा के हेतु कई गार प्रमेय और रूम गये। मेरे आग्रह से जब वे गुजरात विद्यापीठ में पारर रहने सम, तब उन्होंने जैन धर्म का अध्ययन किया, भगवान् पार्श्वनाथ का चातुर्मास धर्म उनको भाया । पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म नामक उन्ह ने एक गिर भी लिखी है। उसमे उन्होंने लिखा है कि पार्श्वनाथ के चातुपोम धर्म में हो भगवान् बुद्ध और भगवान् महावीर की दो परम्पराएं प्रवृत्त हो । पागंताप के उपदेश का कोसवीजी पर इतना गहरा अमर हुआ था कि मरमाला सलेबना भी उन्होंने ली थी। मैं मानता है कि जैन धर्म अगर रूढिवाद के बन्धन के मन मा वह अवश्यमेव सर्व-समन्वयकारी विश्व धर्म बनेगा । स्यावाद की परिगी सर्व-समन्वय में ही होनी चाहिये। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्त हिन्दू एक समय था जब हमारे देश मे बहुत चर्चा चली कि 'हिन्दू' कौन ? इसी चर्चा के सिलसिले मे हिन्दू शब्द की अनेक व्याख्याये हुयी और लक्षण बांधे गये । 'जो अपने को हिन्दू समझता है वही हिन्दू है' ऐसी एक व्याख्या उन दिनो की गयी थी । लोकमान्य तिलक की बनायी हुई व्याख्या मे प्रामाण्यवुद्धिवेदेषु' यही मुख्य लक्षण था । 'साधनाना अनेकता और 'उपास्याना अनियम,' यह था हिन्दू समाज की विविधता, उदारता और सर्व सग्राहकता का लक्षण । इसी परम्परा को आगे चला कर विनोवाजी ने हिन्दू की व्याख्या की है । मुझ जैसे बहुत से लोग उनके लक्षण को मजूर करेंगे। उनका विवरण खूवीदार और रोचक है । श्रव इसी मवाल को हम एक दूसरे पहलू से देखे । आज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र यादि चार वर्णो मे बँटे हुये और अनेक जातियो मे विभक्त सव सनातनी लोग, निगायत, वैष्णव, भागवत आदि अनेक पथो के लोग, श्रार्य समाजी, ब्राह्मो (प्रार्थना समाजी), जैन, बौद्ध, सिक्ख श्रादि सम्प्रदाय के लोग ये सब के सब हिन्दू माने जाते हैं । हिन्दुस्तान की आदिम जातियाँ भी हिन्दू समाज के अन्तर्गत ही है । हम यो भी कह मकते है कि जो लोग पारमी, मुसलमान, ईसाई आदि विदेश मे प्राये हुये धर्मों के अनुयायी है, वे सब हिन्दू ही है । अगर किसी आदमी का ईश्वर पर विश्वास नही है, तो उससे उसका हिन्दुत्व मिट नही जाता । जो व्यक्ति जान पात, वर्ण और आश्रम को नही मानता वह भी हिन्दू रह सकता है । दार्शनिक खयाल मे कहा जाता है कि ईश्वर को मानने, न मानने पर मनुष्य की नास्तिकता निर्भर नही । जो वेद को नही मानता वही नास्तिक है । 'नास्तिको वेदनिन्दक ' । किन्तु स्वामी विवेकानन्द ने वेद का अर्थ किया हे 'ज्ञान' । वेद को मानना, वेद के प्रति आदर रखना एक चीज है और वेद-वचन को प्रमाण समझना दूसरी बात । आर्य समाजी लोग प्रॉटेस्टट ईसाई लोगो की वृत्ति के हैं । प्रॉटेस्टट ईसाई वायविल को प्रमाण मानते हैं, लेकिन वायविल का अर्थ करने मे अपने को Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 महावीराज है। वेद को प्रमाण दो मानते है, कर्य करने में हैं। वन के ही नहीं यसरी के किये वेद के अर्थ से भी वे तत्त्वत बँधे नहीं है कान छेद के प्रति आदर अवश्य रखते हैं लेकिन हर एक बचत का प्रामाम्य स्वीकार नहीं करते। आज कल के बहुत से मनान देव के प्रति सर्वसामान रखते हैं। वे लोग न वेद पढ़ने हैन उनके वचन ने अपने को देना है। हिन्दु संस्कृति की गगोत्री है, इसलिये उस प्रेमन्ति वे अवश्य रखते हैं। गांधीजी की यही भूमिका है। कोक्तियुत धर्मानुकूल न होता हो, वहाँ हम बह कमरे में नहीं आता या अर्थ करने में कुछ भूल हुयी है या हैं नहीं है, 'जिन सदर्भ को हम नही जानत ऐम. कु सदर्भ के अनुसार ही वह वचन योग्य होता हावा हम लोग वेद-वचनों ने से उन्ही को स्वीकार करते हैं, गे बुद्धिशास और धर्मानुकूल हो । बाकी वचनो के प्रति हम मानान रही या सहानुभूतिपूर्वक उनका व्यापक अर्थ करेंगे या यादर के साथ उमे रख देने । निर्दोष ही शाह्य हो सकता है। यह सारा भाववि ने 'विगतृ" मे भर दिया है । स्वामी दयानन्द सरस्वती न ग्रन्य ग्रन् पावलम्बियों की अपने 'सत्यार्थ प्रवाश' म वडी ही कही की है। किन्तु ब्रह्म समाजिया से अपील करते समय अनुनय को वृति है, यह बात महत्त्व की है। ब्रह्म समाजियो के सिद्धाना करने पर वे तुले नहीं दीख पडते । किन्तु उनके साथ राष्ट्रीय, सास्कृतिक के भाव में वे अनुनय करते दीख पडते हैं। Fearer या sare सम्प्रदायी लोग वेद के प्रामान्य के frage उदामीन है। कुछ वैष्णव कहते हैं कि हम हिन्दू हैं या नहीं, यह नही जानते। उनका भाव यह है कि धर्म है । मुसलमान ईसाई, पारसी, यहूदी आदि सब लोग कर सकते हैं । बौद्ध और जैन तो वेदप्रामाण्य से says trait at मा का भी मान्य नहीं । व कोई सम्बन्ध नही । क्खि लोग ईश्वर भक्त हैं, जाfi के प्रति कम से कम उदासीन तो है ही । अवतारवाद के बी Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 53 समस्त हिन्दू की दृष्टि अलग-अलग है । श्रार्यसमाजी लोग मूर्ति पूजा का विरोध करते है । पुनर्जन्म के बारे मे हर एक की दृष्टि अलग-अलग है । पुनर्जन्म और सापराय (मरणोत्तर जीवन) एक वस्तु नही हे । दयानन्द सरस्वती और पूर्वमीमांसावादी श्रात्यतिक मोक्ष को स्वीकार नही करते । पूर्वमीमामी लोग सन्याम श्राश्रम को भी नही मानते । ऐसी हालत मे सनातनी, श्रार्य समाजी, ब्राह्मो, जैन, बौद्ध, लिंगायत, सिक्ख श्रादि सब विभाग का प्रतर्भाव हो सके ऐसा लक्षण हमे चाहिये । 'सर्व धर्म समादर, भूतानुकूत्य भजते', और 'हिंसया दूयते चित्तम्' यह सच्चे प्रोर अच्छे हिन्दुओ का लक्षण जरूर कहा जा सकता है । सर्व धर्म समादर वृत्ति प्राचीन रोमन लोगो मे भी थी। चीनी लोगो मे भी यह पायी जाती है । भूतानुकूल्य धर्मं - मात्र का लक्षण होना चाहिये । हिन्दू वृत्ति में वह विशेष रूप से प्रकट हुआ है । हिन्दू ने आज तक कई वार हिंसा की है । बाहार के लिये भी, श्रात्मरक्षा के लिये भी और अन्याय के प्रतिकार के लिये भी । लेकिन वह हिंसा का पुरस्कार नही करता । 'हिंसया दूयते चित्त यस्यासौ हिन्दुरीरित यह लक्षण हिन्दू स्वभाव के लिये और हिन्दू संस्कृति के लिये यथार्थ दीख पडता है । एक परदेशी ईसाई मिशनरी ने राधाकृष्णन का Hindu View of Life पढा । उससे प्रभावित होकर उनसे कहा If this is Hinduism I am a Hindu - 'यदि वह हिन्दूधर्म है तो मैं हिन्दू हूँ ।' आज तक हम कहते आये है कि दुनिया के तीन धर्म ऐसे हैं, जो अपने लोगो का अपना धर्म छोड कर दूसरे धर्म मे जाना वरदाश्त कर सकते है । लेकिन औरो को किसी भी शर्त पर अपने धर्म मे लेने को तैयार नही है । ये तीन धर्म है सनातनी हिन्दू, यहुदी और जरथुस्त्री पारसी । हिन्दू समाज के बारे मे यह बात बहुत कुछ सही हे । लेकिन आर्य समाजी और वौद्ध औरो को अपने फिरके मे ले सकते है और लेते भी है । स्वामी विवेकानन्द ने सिस्टर निवेदिता आदि शिष्यों को हिन्दू धर्म मे ले लिया । एक यूरोपियन ईसाई महिला ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया था । उसे काशी विश्वनाथ के मन्दिर मे प्रवेश मिलना ही चाहिये - ऐसा श्राग्रह गाँधीजी का था । हम तो मानते है कि मूर्तिपूजा के जो घोर विरोधक नही है, ऐसे सब लोगो को हमारे मन्दिरो मे प्राने देना चाहिये । चमडे की जूतियाँ मन्दिर मे न लाने की मर्यादा का और शिष्टाचार का वे पालन करें, इतने से हमे मन्तोष रखना चाहिये । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 महवीर का जीवन सदेश __ श्री विनोवा की दी हुयी व्याख्या सनातनी हिन्दू के लिये ठीक है। आज के व्यापक और सग्राहक समस्त हिन्दू समाज का उममे अतर्भाव नही होता। मैं तो ईसाई धर्म को भी हिन्दू धर्म के ही एक पथ की दृष्टि से देखता हूँ। णिव, विष्णु, गणपति, देवी और सूर्य इन पांच देवताओं के या उन्ही के अवतार-स्वरूप अन्य देवताओ की उपासना का समन्वय करके श्री शकराचार्य ने पचायतन पूजा चलायी। उमके वाद मिक्ख आदि अनेक सम्प्रदायो ने गुरुपूजा को छठा आयतन बनाया । उसके जैसे गुरु-पूजा को प्रधानता देने वाला पथ विश्वामी था ईसाई कहलाता है । हिन्दू धर्म के अन्दर उसे स्थान देने मे कोई एतराज नही होना चाहिये । __अभी-अभी मर्दुम-शुमारी (जन-गणना) के एक अधिकारी हमारे पास आये थे। नाम, उम्र, भापा आदि जानकारी पूछने के वाद उन्होने कहा"आप हिन्दूधर्मी ही हैं। उनके इस कथन का मुझे प्रतिवाद नही करना था। मै हिन्दू हूँ ही। लेकिन और धर्म ग्रथ पढने से और उन धर्मों के सत्पुरुषो के साथ जो कुछ सत्सग मिला, उससे मेरा सर्वधर्म समभाव वढ गया और मेरा अपना अपनी ही दृष्टि का सर्वधर्म सम-भाव विकसित हुआ । इसलिये मैंने उन महाशय से कहा “हाँ मैं हिन्दू तो हूँ, लेकिन सर्वधर्मी हूँ"। ' सर्व धर्मों के प्रति तटस्थ और निष्पक्षपात सहानुभूति और आदर रखने वाली हमारी सरकार को चाहिये कि वह मर्दुमशुमारी के द्वारा इस वात की भी जाँच और गणना करे कि मेरे जैसे सर्वधर्म सम-भाव वाले सर्वधर्मी कितने है। फरवरी, १९५७ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का जीवन सन्देश महावीर का विश्वधर्म महावीर का जीवन सन्देश Page #72 --------------------------------------------------------------------------  Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का विश्वधर्म [8] 'महावीर' नाम श्री विष्णु को दिया गया है । उनके वाहन गरुड को भी महावीर कहते है । श्री रामचन्द्र जी को भी महावीर कहते है और उनके एकनिष्ठ सेवक हनुमान भी महावीर ही है । आज हम श्री पार्श्वनाथ के अनुगामी श्री वर्धमान को महावीर के नाम से पहचानते है । 'महावीर' शब्द से कौनसा प्रर्थबोध होता हे ? सर्वत्र फैलकर, आसुरी शक्ति को हराकर विश्व का पालन करने वाले विष्णु महावीर हैं । अमृत प्राप्त करने की शक्ति रखने वाला मातृ भक्त गरुड महावीर है। पिता के वचन का पालन करने के लिए, प्रजा का कल्याण करने के लिए और धर्मनिष्ठा का आदर्श प्रस्थापित करने के लिए राज्य, सुख और पत्नी का त्याग करने वाले श्री रामचन्द्र जी महावीर हैं। किसी प्रकार के प्रतिफल की इच्छा रखे विना सेवा करने वाले और शक्ति का उपयोग शिव ही की सेवा मे करने वाले ब्रह्मचारी सेवानन्द हनुमान भी महावीर है । मातृभक्ति, सुख-त्याग, भूतमात्र के प्रति अपार दया और इन्द्रियजय का उत्कर्प दिखाने वाले ज्ञातृपुत्र वर्धमान भी महावीर है । आर्य जाति ने सर्वोच्च मद्गुणो की जिस मनोमय मूर्ति की कल्पना की है, जिस आदर्श को निश्चित किया है उस तक पहुँचने वाले व्यक्ति महावीर है । विजय प्राप्त करने वाला वीर है । जो अन्तर्बाह्य दुनिया पर विजय पाता है, वह है महावीर । वीर यानि श्रार्य और महावीर यानि अर्हत् । हिन्दू धर्म राष्ट्रीय धर्म है । एक महान् राष्ट्र का धर्म होने से उमे महाराष्ट्रीय धर्म भी कह सकते हैं। लेकिन हिन्दू धर्म के तत्त्व सार्वभौम है विश्व-धर्म के है । उनका प्रचार सर्वत्र होने लायक है । हिन्दू धर्म ने मनुष्य जाति का जीवन-धर्म खोज निकाला है । हिन्दू धर्म ने बहुत पहले से निश्चित कर रखा है कि क्या करने से मनुष्य जाति शान्ति से रह सकेगी, उसका उत्कर्ष होगा, तथा वह परम तत्त्व को पहचान कर उसे प्राप्त कर सकेगी । 'स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्' (इम धर्म का अल्प- सल्प ( पालन ) भी बडे-बडे भयो से रक्षा करता है) । 'न हि कल्याणकृत् कश्चित् दुर्गति तात गच्छति' (हे तात, शुभ कर्म करने वाले किसी की दुर्गति नही होती) । 'धर्मो रक्षति रक्षित' (जो धर्म का रक्षण करता है, उसकी रक्षा धर्म करता है) । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 महावीर का जीवन सदेश इम तरह की श्रद्वा या अनुभव को इस धर्म ने अकित कर रखा है। फिर भी हिन्दू धर्म प्रचार-परायण (मिशनरी) धर्म नही है । सारी दुनिया में अपना प्रचार करने का हिन्दू धर्म का आग्रह नहीं है । हिन्दू अपने धर्म को अपने आचरण मे लाने का प्रयत्न करता रहता है। उसमे अगर उसे सफलता मिल गयी तो उसकी छाप पडौसियो पर पडेगी ही। यह समझ कर कि प्रभाव डालने के लिए जानबूझ कर कोशिश करने मे उतावली और अधीरता है, यानि जीवन का कच्चापन है, हिन्दू व्यक्ति अधिक प्रयत्न पूर्वक प्रात्मशुद्वि ही करता रहेगा। सामाजिक हिन्दू धर्म के मानी है इन सनातन तत्त्वो को अपने विशिष्ट समाज के अनुकूल बनाने का प्रयत्न करना । दूसरा समाज इन्ही तत्त्वो को अलग तरीके से अपने जीवन मे ला सकता है। हिन्दू धर्म के इन सनातन तत्त्वो को समाज में दाखिल करने के अनेक प्रयत्न इस देश मे हये है। रुढ सनातन धर्म इस देश के बाहर बिल्कुल नहीं फैला है । उसे फैलाने के प्रयत्न किसी समय हुये है या नहीं, इसका हमे पता नहीं है। इस देश मे ही उसे नष्ट करने के प्रयत्न हुये है और वे प्रयत्न निष्फल हुये है इतना हम जानते है । लेकिन रूढ सनातन पद्धति को छोड दूसरे ढग पर किये गये प्रयोग दुनिया मे अच्छी तरह फैल गये है। बौद्ध धर्म इस बात का सबूत है । यही सबसे पहला मिशनरी धर्म दिखाई देता है । इससे पहले अगर मिशनरी कार्य हुना हो तो उसका हमे ठीक-ठीक पता नही है । ऐसा भी लगता है कि वर्णव्यवस्था युक्त जीवन-धर्म प्रचार का धर्म हो ही नहीं सकता। (जीवन-धर्म यानि केवल मानने के लिए रचा हुआ धर्म नही, बल्कि जीने के लिए विकसा हुआ धर्म)। __ बौद्ध और जैन धर्म मे काफी भेद है, फिर भी दोनो मे साम्य भी कुछ कम नही है। दोनो मिशनरी धर्म होने लायक है दोनो विश्व-धर्म है । स्याद्वाद रूपी बौद्धिक अहिसा, जीवनदया रूपी नैतिक अहिंसा और तपस्यारूपी पात्मिक अहिंसा (भोग यानि आत्महत्या-प्रात्मा की हिंसा । तप यानि आत्मा की रक्षा-प्रात्मा की अहिंसा)। ऐसी विविध अहिंसा को जो धारण कर सकता है, वही विश्वधर्म हो सकता है। वही अकुतोभय विचर सकता है । 'यस्मान्नोद्विजते लोको लोकानोद्विजते च य' (जो लोगो से नही ऊवता, जिससे लोग नहीं कवते) यह वर्णन भी उसी पर चरितार्थ हो सकता है। ऊपर बताई हुई प्रस्थानत्रयी के साथ ही व्यक्तिगत एव सामाजिक जीवनयात्रा हो सकती है। प्रात्मा की खोज मे यही पाथेय काम पाने योग्य है । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का विश्वधर्म मिशनरी धर्म अपने तत्त्वो के प्रति अवश्य वफादार रहे, लेकिन अपने स्वरूप के सम्बन्ध मे प्राग्रह न रखे । 'जैसा देश, वैसा वेश' का नियम धर्म पर भी - खासकर विश्वधर्म पर घट सकता है । विश्वधर्मं यदि सच्चा विश्वधर्म है तो वह अपने नाम का भी आग्रह नही रखेगा । 59 ऐसा समझने के लिए कोई कारण नही कि किमी समय दुनिया मे विश्वधर्म तो एक ही हो सकता है । जिस तरह किमी कमरे मे रखे हुये चारपाँच दीपक अपना-अपना प्रकाश मारे कमरे मे सर्वन फैलाते हैं, सारे कमरे के राज्य का उपभोग करते है और फिर भी अपने-अपने व्यक्तित्व की रक्षा करते हैं, उसी तरह अनेक विश्वधर्म एक साथ सारे जग के राज्य का उपभोग कर सकते हैं । धर्म मे द्वेष या मत्मर कहाँ से श्रायेगा ? एक म्यान मे दो तलवारे नही रहेगी, एक दरवार मे दो मुत्सद्दी (राज नेता ) कार्य नही करेंगे, लेकिन दुनिया में एक साथ चाहे जितने धर्मं माम्राज्य का उपभोग कर सकते है, क्योंकि धर्म तो स्वभाव से ही ग्रहिमक होता है। धर्म के मानी ही हैं श्रद्रोह । जहाँ धर्म-धर्म के बीच झगडे चलते हैं और मख्याबल की ग्राकाक्षा दिखाई देती है, वहाँ यह मान ही लेना चाहिए कि उन लोगो के धर्म मे धार्मिकता नही रही है, धर्म के नाम से अधर्म की हुकूमत चल रही है। उनके हृदय में धर्म का वीर्य क्षीण हो गया है। ऐसी हालत मे वही दुनिया को वार सकेगा जो धर्मवीर होगा। महावीर होगा । अहिंसा के सम्पूर्ण स्वरूप को हमे ममझ लेना चाहिये । ग्रहिसा महावीर का धर्म है । सारी दुनिया को जीतने की प्राकाक्षा रखने वाले जिनेश्वर का धर्म है | जब तक दुनिया के एक कोने मे भी हिंसा होनी रहेगी, तव तक यह अहिंसा धर्म पराजित ही है । सिर्फ सूक्ष्म जन्तुम्रो को कृत्रिम तरीको से भरण-पोषण देकर जिलाने से ही अहिंसा धर्म को सन्तोप नही होना चाहिए । जो महावीर है उसको चाहिए कि वह महावीर की तरह तमाम दुनिया का दर्द - पाँचो खण्डो का दर्द - खोजकर देख ले, और अपने पास की सनातन दवा वहाँ पहुँचा दे । महावीर के अनुयायियो को हृदय की विशालता और उत्माह की शूरता प्राप्त करके सभी जगह मचार करना चाहिए । सगाम का वीर शस्त्रास्त्र लेकर दौडगा । ग्रहिंसा का वीर ग्रात्म शुद्धि और करुगा से सुमज्जित होकर दौडेगा। सारी दुनिया को एक 'उपासरे' (जैन साधु का मठ) मे वदल देना चाहिए। छोटे मे उपासरे मे कितनो को आश्रय मिल सकेगा ? २७-७-२४ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 महावीर का जीवन संदेश [२] रहकर मैने गांधीजी की महात्मा गाँधीजी के साबरमती आश्रम में हसा समझने की पूरी कोशिश और साधना की और हिंसात्मक क्रान्ति का मार्ग छोडकर श्रहिमात्मक सत्याग्रह की चोर भुडा । मेरा श्रहिंसा का अध्ययन' केवल दार्शनिक नही था। मैं अपना जीवन ग्रहिसमय करने की कोशिश arat था | स्वाभाविक था कि गुजरात के अनेक जैनियो से मेरा परिचय वढा । उन्हें ने मुझे अपनी विरादरी मे ले लिया । यहाँ तक कि पर्युपण-पर्व मे व्याख्यान देने के लिए मेरे बम्बई के मित्र मुझे वर्षों से बुलाते आये है । क्षुल्लक गणेशप्रसाद जी जैसे जैन धर्म प्रचारक को अभिनन्दन ग्रथ अर्पण करने के लिए मुझे बुलाया गया था। इस तरह से जैन स्नेही मुझे अपनाते गये और धीरे-धीरे मै भी मानने लगा कि मैं जैन हूँ । एक जैन कन्या ने मेरी पुत्रवधु बनकर उस भावना को मजबूत किया। मै अनेक जैन मन्दिरों के श्रद्धा-भक्ति से गया हूँ और वहाँ प्रेम और प्रादर से मेरा स्वागत भी हुआ। हैं । पालीताणा के पास शत्रुंजय के पहाड़ पर भी जैन मन्दिरों की यात्रा मैंने की है। आबू के जैन मन्दिरो की शिल्पकला का प्रास्वाद मैंने लिया है । लेकिन हरिजन और देवद्रव्य का परिवर्तन हो रहा है । कुछ दिन हुए मैं सवाल लेकर जैनियो मे शायद कुछ अजमेर मे, जैनियो के सुवर्ण मन्दिर गया था । इसके पहले भी एक बार गया था। अब की बार देखा तो जैनेतरो को अन्दर प्रवेश नही है । वैसे नोटिस लगी थी। मैने कहा कि नोटिस के अनुसार शायद मैं अन्दर है । मुझे नही जाने दिया । लेकिन वे अन्दर नही गये जैनेतर हूँ । नही जा सकता हूँ, मेरे साथ पदमचन्द्र । अजमेर मे मुझे लेकिन दर्शन की अभिलाषा सिंघी थे । वे जा सकते थे, अनुभव कराया गया कि मैं प्राजकल चन्द जैन कहने लगे है कि वे हिन्दू नही है । मरजी उनकी । मै तो हिन्दू उसे कहता हूँ, जिसका चित्त हिंसा से दुखी होता है । हिसा मनुष्य जाति के मन में धीरे-धीरे प्रकट होती है, पहले स्थूल रूप मे । बाद मे वह सूक्ष्म होती है। हर एक युग में अहिंसा कुछ आगे वढती है । भगवान् महावीर ही एक ऐसे थे जिन्होने अपने जमाने से बहुत आगे जाकर सूक्ष्मातिसूक्ष्म अहिसा का उपदेश दिया । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का विश्वधर्म 61 जिस जमाने में कही-कही मनुष्य का मांस खाने वाले भी लोग थे मनुष्य को गुलाम बनाकर वेचा जाता था, सैन्यो के बीच युद्ध होते थे और पशु मांस का आहार तो करीव सार्वत्रिक था । ऐसे जमाने में पानी मे और हवा मे जो सूक्ष्म जन्तु होते है उनके प्रति भी आत्मीयता बतलाना और सारे विश्व मे अहिंसा की स्थापना करने का अभिप्राय रखना और यह विश्वास रखना कि इतनी व्यापक अहिसा भी मनुष्य हृदय कबूल करेगा और किसी दिन उसे सिद्ध भी करेगा, यह उच्च कोटि की आस्तिकता है। ईश्वर पर या शास्त्र पर विश्वास रखना गौण वस्तु है । मनुष्य-हृदय पर विश्वास रखना कि वह विश्वात्मैक्य की अोर अवश्यमेव वढेगा, यह सबसे बडी आस्तिकता है । इसलिए मैंने भगवान् महावीर स्वामी को आस्तिक शिरोमणी कहा है। उनका जमाना किसी-न-किसी दिन पायेगा ही। आप हिन्दू का सकुचित अर्थ क्यो करते हे ? मनातनी, वैदिकधर्मी, सढिवादी तक हिन्दू धर्म मीमित नही है । श्रमण और ब्राह्मण, बोद्ध और जैन, लिंगायत, सिक्ख, आर्यसमाजी, ब्रह्मसमाजी आदि सब मिलकर हिन्दू समाज बनता है। इस विशाल हिन्दू परम्परा मे जीवन को अखण्ड और अनुस्यूत माना है। जीवन की यह अखण्ड धारा पवित्र है। सव के प्रति आत्मीयता रखनी है। सम पश्यन् हि सर्वथ समवस्थितमीश्वरम् । न हिनस्ति पात्मनात्मान ततो याति परा गतिम् ॥ यह गीता का श्लोक भी किसी भावना का एक उद्गार है। ऐमी व्यापक आत्मीयता मे ऊँच-नीच भाव और अस्पृश्यता को स्थान हो नहीं सकता। सनातनियो मे जो मलिनता आ गई थी, उसे दूर करने के लिए गौतम बुद्ध और महावीर जैसे धर्म-सुधारको ने वडा पुरुपार्थ किया। उन्ही के अनुयायी अगर संकुचित बन जाये तो कैमे चलेगा। रामटेक के जैन मन्दिर के द्वार पर अहिंसा के परम प्रचारक महावीर स्वामी के मन्दिर की रक्षा के लिए हिमा के शस्त्र और प्रतिनिधि क्यों या गये । इसलिये आये कि मन्दिर में महावीर के माथ उनके गहने भी है। यानि वहाँ कुवेर की उपामना हो रही है। सम्पत्ति को मैं लक्ष्मी नही कहूँगा। लक्ष्मी तो कुदरत की ममृद्वि है, पवित्रता की शोभा है । लक्ष्मी तो Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 महावीर का जीवन मदेश परम मगर गोमाग की प्रगमना। ग्वय गृभ सौर पावन है। उधर धनचौगत नौ बडे पेट में ममाया मा नामाजिर द्रोह। उमरा प्रतीक तो पररीतीगा ।' जम गुबेर की उपासना गारी दुनिया में गलती है । गीनिये ण्टम बॉम्ब और योगन बॉम्ब ना पानी तैयारी करनी पड़नी है। हम हरिजन तो . दुनिया गिी भी देश है और जाति के, पथ गे या वश . मनुष्य गा गार नीना है। योर, जैन मन्द्रिग में गोग गौर प्रमाद, कनी ग्मोर, परकी रमाई नी नोट नहीं।। गोजन जैन-मन्दिर में गया तो उसे अहिमा की दीला मिलन गी गम्भावना अधिप। मन्दिर या मन्दिर की मूर्ति भ्रष्ट मेरी गानी" जसमाग भारत, हमारे पूज्य राष्ट्रपति और प्रधानमनी विश्व में परम भ्रमं हिमा पा प्रनार पर रहे है, ऐसे ममय में जैनियों का कर्मव्य गमा" जैन शास्त्रो का गम्मादन परना, उन पर व्याच्या और टीगा टिणणी जिग्रना, प्रानीन जैन प्रयोगा गणोधन और अध्ययन करना, यह गव अन्न। लेकिन उनने में मतोप नहीं मानना चाहिए । ममन्न दुनिया में नामने जो महान् प्राषिक, राजनैतिक, मामाजिक और वाशिक मवाल परे हुए है. उनका हन अहिमा के द्वारा, प्रेम-धर्म के द्वारा कैने हो माता है, इसके लिए गौनमी तपश्नर्या आवश्यक है, इसका चिंतन होना जम्री है । हम प्रार्थना करें कि विश्वमेवा की हमारी इम माधना में भगवान् महावीर का प्रमाद और आशीर्वाद हम सबको प्राप्त हो और हमारी अहिंसा वृत्ति मवको अपनाये। * महावीर जयन्ती के निमित्त ता ७-४-५५ को नयी दिल्ली मे दिया गया भापण । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का जीवन संदेश आज सार की स्थिति विचित्र है । हिंसा से यदि कोई अधिक से अधिक डरते है, तो वे आज के यूरोपियन है । २५ वर्ष पहले प्रथम विश्वयुद्ध मे हुए सहार और नाश को वे आज भी भूले नही है । उन्हे भय है कि यदि फिर से युद्ध की ज्वाला भडक उठी तो हमे अपने सारे वैभव, सारे मौज-शौक, भोग-विलास और ऐश्वर्य से हाथ धोने पडेगे । यूरोप का मनुष्य यह सोचकर काँप उठता है कि आज संस्कृति के नाम पर जिस वैभव-विलास का आनन्द हम भोगते है, वह युद्ध होने पर नष्ट-भ्रष्ट हो जायगा । युद्ध को टालने के लिए वह सब कुछ करने को तैयार है । इसके लिए वह दिये हुए वचनो को भग करेगा, किये हुए कौल - करारो को भुला देगा, अपमानो का कडवा घूट पी जायगा, अपने साथियो को धोखा देगा और कैसे भी अप्रिय लोगो के साथ मित्रता वाँधेगा। युद्ध को टालने के लिए वह अपने जीवन-सिद्धान्तो को भूमी की तरह हवा में उडा देगा। लेकिन इतना सब करने के बाद भी वह युद्ध को टाल नही सकेगा । इद्रिय-परायण जीवन, भोग-विलास, वारानाये, लोभ, भय, महत्त्वाकाक्षा और परस्पर अविश्वास उसे शाति से बैठने नही देगे । हिंसा से भयभीत वना हुग्रा यूरोप का मनुष्य सारी दुनिया को हिसा की दीक्षा दे रहा है और मारने की कला का विकास करने के लिए जीवन की कई अच्छी शक्तियों को नष्ट कर रहा है। आज वह जिस युद्ध को टालना चाहता है उसी युद्ध को जोरो से खीच कर अपने निकट ला रहा है । ऐसी विचित्र परिस्थिति में आज हम एक बार फिर भगवान् महावीर के सन्देश को उज्ज्वल बनाना चाहते हैं । इस धार्मिक सन्देश को ग्रहण करने के लिए आज की दुनिया तैयार नही है । यह शान्ति का मार्ग तो है, किन्तु इस मार्ग पर चलने में मनुष्य को अभी आनन्द नही आता । पहले वह दूसरे सारे मार्ग आजमायेगा और सव तरह से हारने के बाद ही लाचारी से इस सच्चे मार्ग पर आयेगा । मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह ऐसे उपायो पर विश्वास रख कर उन्हे पहले आजमाता है, जिनमे कोई सार नही होता । श्राज यूरोप मे जो अनेक मार्ग सुझाये जाते है, उनसे हमे आश्चर्य होता है । हमारे यहाँ के पुराने Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 महावीर का जीवन मदेश लोग जब तक श्रीर न्याय, दर्शन और मीमासा की बात को ले बैठने है और घटत्व तथा पटन का श्रीर श्रवच्छेदकावच्छ का पिष्ट-पेपण करते है, तब हम उन पर हँसते है और कहते है कि जिनका जीवन के साथ कोई सम्बन्ध नही, तत्त्व में जो सर्वथा दूर है. ऐगी निरर्थक बाता की चर्चा में ये लोग क्यो पते होग ? हम कहते है कि उनकी उन बातों में जीवन को स्पर्श करने वाला थोडा भी अश नही होना । यूरोप मे भी जब लोग व्यक्तिवाद और ममप्टिवाद, समाजवाद र साम्यवाद की चर्चा करने है तब मन में विचार श्राता है कि इन अनेक 'वादो' से क्या लाभ होने वाला है? मनुष्य जब तक अपने स्वभाव श्रीर जीवन में परिवर्तन न करे तब तक हम कोई भी 'वाद' (Isni) क्यो न चला, अत मे हम वही या पहुँचेंगे जहां पहले थे । स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि जगत का दुरा मधिवात (गठिया रोग) जैमा है । ऊपर के लेप से वह मिटने वाला नहीं है। सिर से उसे निकालो तो वह पैर मे बैठ जाता है । पैर से उसे निकालो तो वह कधे मे धम जाता है। वह अपना स्थान ती बदलता रहेगा, लेकिन शरीर को नहीं छोडेगा । श्राप यदि व्यक्तिवाद को चलायेंगे तो दुनिया को एक प्रकार का दुख भोगना पडेगा । व्यक्तिवाद के स्थान पर यदि श्राप ममष्टवाद को स्वीकार करेंगे, तो पुराने दु ख मिटकर . उनके स्थान पर नये दुरा पैदा हो जायेंगे । जकात को टालने के लिए रात भर जगल में भटकने के बाद सवेरे गाडी जब रास्ते पर आई तो ठीक जकात नाके के सामने हो जकात के पैसे तो चुकाने ही पडे, ऊपर से रात भर जगल मे व्यर्थ भटके सो अलग। यही दशा ग्राज की दुनिया को है । आचार्य एल.पी जैक्म ने ठीक ही कहा है कि श्राज को दुनिया सम्पत्ति को सामाजिक बनाना चाहती है, राज्यसत्ता को सामाजिक वनाना चाहती है, किन्तु मनुष्य को और उसके स्वभाव को सामाजिक बनाने की बात उसे नही सूझती। जब तक यह नही होता तव तक किसी भी 'वाद' की सच्ची स्थापना नही होगी, और यदि मनुष्य का चरित्र सुधर गया तब तो किसी भी 'वाद' से हमारा काम चल जायेगा । इसका एक सुन्दर उदाहरण मैं आपके सामने रखता हूँ । । शराव की बुराई से सारी दुनिया त्रस्त है । अमेरिका ने कानून वनाकर इस बुराई को दूर करने का प्रयत्न किया । जिन लोगो ने कानून बनाने की सम्मति दी, उन्हे स्वय शराववदी की कोई परवाह नही थी । समाज मे प्रतिष्ठा भोगने वाले वडे-बडे स्त्री-पुरुष भी खुले श्रम कानून का भग करने Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का जीवन सदेश 65 मे वहादुरी मानने लगे और एक-दूसरे के सामने इस बात की डीग हाँकने लगे कि उन्होने शराववदी का कानून कैसे तोडा है। इसी शराववदी का हमारा इतिहास अमेरिका से भिन्न है। हमारे देश में बसने वाली सारी ही जातियो के दिल मे शराब के लिए नफरत है । नियमित रूप मे और खुले आम शराब पीने वाले लोग भी यह स्वीकार करते है कि शराव बुरी चीज है । उससे छूटने की शक्ति भले ही उनके भीतर न हो, लेकिन इसमे कोई उनकी मदद करे तो वे निश्चित रूप से शराब की लत से मुक्त होना चाहते है । सम्पूर्ण राष्ट्र का चरित्र शराववन्दी के पक्ष में होने के कारण हमारे देश मे शराववन्दी का कानून बनाना आसान सावित हुआ । कुछ अाधुनिक वृत्ति वाले विकृत लोग शराब के पक्ष मे दलील करते है सही। लेकिन ऐसे लोग तो इने-गिने ही हैं, और उनमे से कुछ तो यह कहते भी है कि हमारी पार्टी की नीति के नाते ही हम ऐसी दलील करते है। ऐसे लोगो की बात हम छोड दे । मुझे कहना तो यह है कि यदि हम गष्ट्र के चरित्र का विकास कर सके, तो किसी भी 'वाद' की समाज रचना मे हम मनुष्य-जाति को सुखी बना सकेगे। महावीर जैसे सत पुरुपो ने ससार को यह मार्ग दिखाया है। चरित्रवल वढायो, सयम सिद्ध करो, वासनायो को जीतो, असामाजिक वृत्तियो का नाश करो और राग-द्वप मे निहित हीनता को पहचान कर दोनो को हृदय से निकाल फेंको, तो हिंसा का मार्ग अपने आप क्षीण हो जायगा । यदि हिंसा को टालना है और अहिंसा की स्थापना करनी है, तो केवल राजतत्र को बदलने से यह ध्येय सिद्ध नही होगा, राष्ट्रसघ रचने से यह समस्या हल नही होगी। इसके लिए तो मनुष्य के स्वभाव मे सुधार करना होगा, सयम-रूपी तप करना होगा। यही सच्ची साधना है। कोई पामर मनुष्य यह कार्य नहीं कर सकता। बाहरी शत्रु से लडना आसान है, किन्तु भीतर के विकारो का नाश करना कठिन है। इसके लिए वीरत्व की आवश्यकता होती है। महावीर ने अपने भीतर इस शक्ति का विकास किया और दुनिया को उसे दिखा दिया। महावीर स्वभाव से ही प्रयोग-वीर थे। उन्होने जो अनेक प्रयोग किये ये उन्हे हम तप कहते है। उस तप का मार्ग सब के लिए एक-सा नही Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 महावीर का जीवने संदेश हो सकता। प्रत्येक मनुष्य को अपना प्रयोग करना चाहिये और अपना मार्ग खोज लेना चाहिये। जो मनुष्य प्रयोग-वीर नही है वह यदि विना सोचेविचारे महावीर के वचनो के अनुसार केवल वाह्य जीवन ही जीने का प्रयत्न करेगा, तो उसे महावीर की सिद्धि नही मिलेगी। इसके विपरीत, जो मनुष्य महावीर से प्रेरणा लेकर और उनके प्रयोगो के रहस्य को समझ कर, उनके मुख्य जीवन-सिद्धान्तो के अनुसार अपना जीवन बनाने के लिए निजी ढग का स्वतन्त्र प्रयत्न करेगा, वही महावीर की परम्परा का माना जायगा और भगवान् महावीर उसी को अपना आत्मीय जन समझेगे। आज जब ससार अनेक दृष्टियो से व्याकुल हो उठी है तब इस व्यापक जीवन की मुख्य उलझन का हल ढूढना जरूरी हो गया है । इसके लिए महावीरो की आवश्यकता है, प्रयोग-वीरो को आवश्यकता है । ऐसे लोग अपनी श्रद्धा को दृढ बनाने के लिए महावीर के जीवन को समझेगे और स्वय ही ऊँचे उठने का प्रयत्न करेगे। महावीर के स्मरण और चिंतन से हम ऐसी प्रेरणा प्राप्त करे और अपने व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन का उद्धार करे। * १४-९-३९ को बम्बई मे दिये गये भाषण से। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म संस्करण की आवश्यकता धर्म सस्कररण " सुधारक धर्म मे सुधार Page #84 --------------------------------------------------------------------------  Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म-संस्करण १ : कुछ लोग कहते हैं कि हमारा धर्म प्राचीन ने प्राचीन है, इसलिये वह प्रच्छा है । कुछ लोग कहते है कि हमारा धर्म अन्तिम मे अन्तिम है, इसलिये वह ताजा है । कुछ चोर लोग कहते हैं कि अमुक पुस्तक ग्राद्य धर्मग्रन्थ है, इसलिये उनमें सब कुछ गा जाता है। दूसरे लोग कहते है कि प्रमुक ग्रन्थ ईश्वर के द्वारा जगत को दिया हुआ अन्तिम से अन्तिम धमग्रन्थ है, इसलिये उसे स्वीकार करना चाहिये । सनातन धर्मी इस बारे में दूसरी ही दृष्टि मे विचार करते है । श्राज की सृष्टि का आदि और ग्रन्त हो मकता है । धर्मप्रन्या का भी ग्रादि श्रोर अन्त हो मक्ता है । परन्तु धम अनादि प्रोर अनन्त है, उसीनिये वह सनातन कहलाता है । सनातन का प्रयं क्या है ? जो उस सृष्टि प्रारम्भ से पहले भी था श्री एम नृष्टि के प्रन्त के बाद भी रहेगा वह सनातन है। इस श्रयं मे केवन ग्रात्मा और परमात्मा हो मनानन माने जायेंगे । लेकिन मनातन का एक दूसरा प्रयं है । जो स्वभाव से ही नित्यनूनन है, वह मनातन होना है। जो जीणं होता है वह मर जाता है, जो चदलता नही वह मड जाता है, जिसकी प्रगति नहीं होती उसकी अधोगति होती है । कधी हुई हवा बदबू करती है। न बहने वाला पानी स्वच्छ नही रहता । पहाड़ के पत्थर बदलते नही, इमीलिये धीरे-धीरे उनका चूरा हो जाता है । घाम बार-बार उगती है, इसलिये वह ताजी रहती है । जगन की वनस्पति हर साल सूख जानी है और हर माल फिर मे उगती है । बादल खाली होते है और फिर पानी से भर जाते हैं । प्रकृति को नित्य नूतन वनने की कला प्राप्त हो गई है, इसीलिये प्रकृति सदा नवयोवना दिखाई देती है । इस सिद्धान्त को जानने के कारण ही मनातन धर्म के व्यवस्थापका ने युगधर्म के अनुसार भिन्न-भिन्न धर्मों की व्यवस्था की है । काल की महिमा जानने के कारण ही वे काल को जीत सके है । धर्म के प्राध्यात्मिक सिद्धान्त चल और अटल है | परन्तु उनके व्यवहार को देश-काल के अनुसार बदलना पडता है । इसका ज्ञान होने के कारण धर्मकारा ने हिन्दू धर्म की बुनियादी Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का जीवन संदेश रचना मे ही परिवर्तन का तत्त्व रख दिया है । इसीलिये वह धर्म सनातन पद प्राप्त कर सका है । अनेक वार क्षीणप्राण होने पर भी वह निष्प्राण नही हुआ है। मनुष्य की जडता के कारण अनेक वार इस धर्म मे सडाध पैठी है, फिर भी किसी प्रकार के विप्लव के बिना उसका पुनरुद्धार हुआ है । 70 सामाजिक व्यवस्था मे अथवा धार्मिक विधियो के रिवाज मे समय के अनुकूल परिवर्तन होना चाहिये, परन्तु जव से हिन्दू समाज मे श्रबुद्धि ने जड जमायी है तब से ऐसे परिवर्तनो की ओर हिन्दू लोग शका की दृष्टि से देखने लगे है । पूर्वजो की अपेक्षा हमारा सवानापन वढ ही नही सकता, पूर्वज तो त्रिकाल का विचार करने वाले थे, उनकी रची हुई व्यवस्था मे यदि हस्तक्षेप करेगे तो पता नही कौनसे सकट मे हम पड जायेगे - ऐसा कायर भय अथवा नास्तिकता हमारे भीतर घुस गई है। सच पूछा जाय तो परिवर्तन का भय सनातन धर्म के स्वभाव के विरुद्ध है। चचलता के कारण किये जाने वाले परिवर्तन की कोई हिमायत नही करेगा, परन्तु अज्ञानता के कारण प्रगति से डरकर निष्प्राण स्थिरता खोजने मे पुरुषार्थ नही बल्कि मृत्यु ही है । गहरे विचार के विना अपने धर्म को त्याग कर दूसरो का धर्म ग्रहण करना एक बात है, और अपने तथा दूसरो के धर्म की जाँच करके अपने धर्म मे श्रावश्यक परिवर्तन और सुधार करना दूसरी बात है । ईश्वर प्रत्येक युग मे हमारे सामने नई-नई परिस्थितियाँ खडी करके हमारी बुद्धिशक्ति को सक्रिय बनाये रखता है और इस प्रकार धर्म के मूल सिद्धान्तो के हमारे परिचय को जाग्रत रखता परिवर्तन न हो, तो उसके भीतरी तत्त्व का हमारे जमाने मे यदि पूर्वजो की ही नकल करना, जानना अथवा खोजना वाकी हमारी शताब्दी निरर्थक और वध्या है । यदि धर्म के बाह्य ग्राकार मे शुद्ध प्राकलन हो ही नही सकता। करने का काम रह जाय, नया कुछ भी न रह जाय, तब तो कहा जायगा कि ही सिद्ध हुई है । हमारे देश में प्राचीन कॉल से हर तरह एक-दूसरे से अलग पडने वाले धर्म और वश साथ-साथ रहते आये है । ऐसे सहवास के कारण हमे हर समय धर्म-प्रवचन अलग-अलग ढंग से करना पडा है । जिस प्रकार की शका दूर करनी हो, जिस प्रकार के दोष मिटाने हो, उसी के अनुसार हमे एक ही धर्म - सिद्धात को नई-नई भाषा मे और नये-नये रिवाजो के रूप मे प्रस्तुत Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म संस्करण १ 71 करना पड़ता है। इसीलिये हमारा धर्म अनेक पहलुप्रो वाले तेजस्वी रत्न के समान दिव्य से दिव्यतर बनता रहा है। जब हम विदेशी सत्ता के अधीन रहते है तव धर्म को अत्यन्त कृत्रिम और हीन वातावरण सहन करना पड़ता है । जब किसी देश पर विदेशी लोगो को आक्रमण हो रहा हो उस समय धर्म-संरकरण में स्वाभाविक विकास नही रहता । हम कोई परिवर्तन करने जाय और हमारे विरोधी हमारी कमजोरी देखकर मर्मस्थान पर प्राघात करें तो यह भय हमेशा बना रहता है । विदेशी सत्ता स्वभावत समभाव से शून्य होती है। वह रूढियो को तो टिके रहने देती है, लेकिन हमारी शक्ति को वरदाश्त नही कर सकती । इमीलिये विदेशी सत्ता के कानून कहते है 'तुम्हारे जो रीति-रिवाज परम्परा से चले पाये है उन्ही को सरक्षण मिलेगा । तुम नये रिवाज चाल नही कर सकते । तुम जहाँ हो वहां से हट नही सकते । पुराने कलेवर को हमारा अभय-दान है। लेकिन यदि हम तुम्हारे प्राण को, तुम्हारी शक्ति को राज्य की मान्यता दे, तब तो हमारा प्रभुत्व तुम्हारे देश में टिक ही नहीं सकता।' ऐसी समभावशून्य तटस्थता मे सडी-भुमी रूढियाँ भी कानून की कृत्रिम सहायता से टिक सकती है। ब्रिटिश राज्य के कारण हमारे यहाँ 'हिन्दू ला' के अमल मे यह स्थिति कदम-कदम पर वाधक सिद्ध हुई है । न्य यमूर्ति तेनग अकसर इस स्थिति के विरुद्ध अपनी नाराजगी और खीज प्रकट किया करते थे। प्रत्येक धर्म और प्रत्येक समाज को अपनी व्यवस्था में चाहे जैमा परिवर्तन करने का अधिकार होना ही चाहिये । परन्तु ऐसा करने के लिए जो स्वतत्रता, एकता और योजना-शक्ति आवश्यक है, वह उस उस समाज में होनी चाहिए । वडी से बडी कीमत चुका कर भी हमे इन गुणो का विकास करना चाहिये । हिन्दू धर्म को यदि टिकाये रखना हो और जगत में इसका स्वाभाविक स्थान फिर से दिलाना हो, हिन्दू धर्म को यदि समाज के लिए कल्याणकारी वनाना हो, तो हमे साहस के साथ उसका मैल धो डालना चाहिए। ऐसे कितने ही रिवाज और और अन्ध-विश्वास हमारे समाज मे घुम गये है, जो धर्म के सनातन सिद्धान्तो के विरोधी है और जिनकी वजह से समाज की सारी प्रगति रुक जाती है । इन सव को तुरन्त जलाकर भस्म कर देना चाहिये। ___ अस्पृश्यता एक ऐसी ही दुराई है। जाति के विपय में उत्पन्न होने घाला अहकार और प्रेम की सकुचितता, व्यापक प्रात्मीयता का अभाव-यह Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 महावीर का जीवन सदेश दूसरी बुराई है। जहाँ रुढि के नाम पर दयाधर्म का खून होता है, जहाँ आत्मा अपमानित होती है, जहाँ धर्म-प्रीति के स्थान पर लालच और भय को स्थान दिया जाता है वहाँ धर्म को इन सब के खिलाफ अपनी अधिकार पूर्ण बुलद आवाज उठानी चाहिये। हर जगह सरकारी अधिकारी और कर्मचारियो को रिश्वत देकर अपना मतलब निकालना सीखे हुये लोग एक ईश्वर को छोडकर उसके स्थान पर अनेक भयानक शक्तियो को प्रलोभन देने मे अपना धर्म समझने लगे। निरकुश, क्रोधी, तरगी और खुशामद-पसद अधिकारियो के जुल्म मे रहकर नामर्द और कायर बने हुए लोगो ने देवी-देवतानो के बारे मे भी वैसी ही निरकुशता, क्रोध आदि की कल्पना करके उनके प्रति भी अपने भीतर डरपोक की वृत्ति बढा ली। इस प्रकार हमने धर्म मे ही अधर्म का साम्राज्य स्थापित कर दिया । सत्यनारायण से लेकर शीतला माता तक के सब देवी-देवताओं को हमने डराने वाले गुण्ड. (bullies) का रूप दे दिया। आकाश के तारे और ग्रह, जगल के पेड-पौधे और वनस्पतिया, हमारे भाईवद जैसे पशु और पक्षी, ऊपा और सध्या, ऋतु और सवत्सर-सव मे हमारे पूर्वज ऋपि-मुनि परम मागल्य की प्रेममय विभूतियो के दर्शन करते थे और उनके साथ आत्मीयता तथा एकता का अनुभव करते थे, लेकिन हमे आज इन सब मे शाप का और कोप का भय ही भय दिखाई देता है। धर्म के शुद्ध और उदात्त स्वरूप को जानने वाले लोग हमारी धार्मिक विधियो मे निहित काव्य को समझ सकते है, परन्तु अज्ञानी जन-समुदाय उस काव्य को सनातन सिद्धान्त अथवा वास्तविक स्थिति मानकर विचित्र अनुमान लगा लेता है और धर्म के कार्य को विफल बना देता है। आज हिन्दू धर्म का उत्कर्ष चाहने वाले प्रत्येक मनुष्य का पहला कर्तव्य यह है कि वह अपने समाज मे धर्म का शुद्ध स्वरूप प्रकट होने की आतुरता से प्रतीक्षा करे। इस बात को हमे अच्छी तरह समझ लेना चाहिये और दूसरो को समझाना चाहिये कि जिस धर्म मे सत्य की निर्भयता और प्रेम की एकता नही है, जिसमे नि स्वार्थ त्याग की भावना नहीं है, जिसमे उदारता की सुगध नही है, वह धर्म नही है। अब हिन्दू धर्म के सस्करण और परिष्करण का समय आ गया है, क्योकि उसके ऊपर जमी हुई अशुद्धि की परते अव उसका दम घोटने लगी है। १९४२ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म सस्करण २ धर्म-संस्करण : २ 133 73 एकमात्र धर्म हो मानव जीवन का सब पहलुश्री से और समग्र रूप में विचार करता है । जीवन का स्थायी अथवा प्रस्थायी एक भी अंग ऐसा नही है, जिस पर विचार करना धर्म अपना कर्त्तव्य नहीं मानता । इसलिये धर्म मनुष्य के मनातन जीवन जितना ही प्रथवा उसमे भी अधिक व्यापक होना चाहिये, श्रीर च कि नमस्त जीवन उसका क्षेत्र है, म लिये उमे श्रत्यन्त उत्कट रुप मे जीवत और प्राणवान होना चाहिये । आज जगत के जितने भी प्रसिद्ध धर्म है, वे अधिकाश ऐसे व्यापक धर्म हैं। अपनी स्थापना के समय तो वे मव जीवत थे ही। परन्तु धार्मिक पुरुषो ने उनकी चेतना को बार-बार जगाकर उन्हें जीवत बनाये रखा है । सिगडी की श्राग जिम प्रकार स्वाभाविक रूप में ही वारवार मद पड जाती है और इसलिये बार-बार उसमें कोयने उान कर और फूक कर उसका मम्करण करना पडता है, उसे प्रज्वलित रखना पडता है, उसी प्रकार समाज मे धर्म-तेज को जाग्रत रखने के लिए धम-परायण ममाज-पुरुषी को उगे फूकने और उसमे ईधन डालने का काम करना पड़ता है। यह काम यदि समय- समय पर न किया जाय, तो धर्म-जीवन क्षीण और विकृत हो जाता है, और धर्म का क्षीण र विकृत रूप धर्म के 'जितना हो हानिकारक होता है । धर्मं को चेतनावान और प्रज्वलित रखने का कार्य केवल धर्म-परायण व्यक्ति ही कर सकते है । यह शक्ति न तो धर्मग्रन्थो मे होती है, न धार्मिक रीति-रिवाजी या सम्कारा मे होती है, न धार्मिक सस्थात्रों में होती है श्रीर न धर्म को सहारा देने वाली राज्य-व्यवस्था होती है । शास्त्रग्रन्थ, सस्कार, रीति-रिवाज और धार्मिक तथा राजकीय सस्थायें धार्मिक जीवन के लिए कम-अधिक मात्रा मे उपयोगी हैं जर, यह भी सच है कि धार्मिक वातावरण को स्थिर बनाने मे उनकी मेवा वहुमूल्य मिद्ध हुई है । परन्तु मूल शक्ति तो धर्मप्राण ऋषियों की, सतो की और महात्माओ की ही होनी है । पवित्र मनुष्य हृदय ही धर्म का अन्तिम आधार है । उपनिषद् का यह वचन बिलकुल यथार्थ है 'धर्मशास्त्र महर्षीणा अत व रग सभृतम् ।' Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 महावीर का जीवन संदेश धर्म - जिज्ञासा और धर्म - चिन्तन मनुष्य का स्वभाव ही है । इस कारण से प्रत्येक, दु" न और प्रत्येक प्रदेश मे उन्नति की कक्षा के अनुसार मनुष्य के हृदय में धर्म का आविर्भाव होता ही रहा है । यह हृदय धर्म कितना ही कलुषित, कितना ही मलिन क्यो न हो जाय, फिर भी मूल वस्तु तो शुद्ध हीं रहती है । अशुद्ध सोना पीतल नही है, और पीतल चाहे जितना शुद्ध, चमकीला और सुडौल हो, फिर भी वह सोना नही है । इसी प्रकार केवल बुद्धि के जोर पर खड़ा किया गया, लोगो के हृदय में रहने वाले राग-द्व ेप से लाभ उठाकर आरम्भ किया गया और थोडे या बहुत से सामर्थ्यवान लोगो के स्वार्थ का पोषण करने वाला धर्म सच्चा धर्म नही है । प्रसस्कारी हृदय की क्षुद्र वासना और दभ से उत्पन्न होने वाली विकृति को ढकने वाला शिष्टाचार अथवा चतुराई से भरे तर्क द्वारा किया हुआ उसका समर्थन भी धर्म नहीं है । प्रज्ञान (अर्थात् अल्पज्ञान), भोलापन और अधश्रद्धा - इन तीन दोपो से कलुपित बना हुआ धर्म अधर्म की कक्षा को पहुँच जाय, यह एक बात है, और मूल में ही जो धर्म नही हैं वह केवल चालाकी से धर्म का रूप धारण कर ले, यह दूसरी बात है । मनुष्य समाज अव इतना प्रौढ और अनुभवी हो गया है कि मानव इतिहास मे धर्म के ऊपर कहे गए दोनो प्रकार व्यापक रूप मे पाये जाते है । परन्तु इन दोनो प्रकारो का पृथक्करण करके इनके सच्चे स्वरूप को पहचानने का कष्ट अभी तक मनुष्य ने नही किया है । हृदय-धर्म जब बुद्धि-प्रधान लोगो मे अपना कार्य आरम्भ करता है, शिष्ट लोगो द्वारा मान्य किया हुआ धर्मं बनता है और इसलिये जब वह सस्थाबद्ध हो जाता है तब उसके शास्त्र रच जाते है, शास्त्रो का अर्थ लगाने वाली मीमासा - पद्धति उत्पन्न होती है और ग्रन्तिम निर्णय देने वाले शास्त्रज्ञो का एक वर्ग खड़ा होता है, अथवा पोप या शकराचार्य के समान अधिकाररूढ व्यक्तियो को मान्यता प्राप्त होती है । नरे धर्म को शास्त्रवद्ध और सस्थावद्ध बनाने का कार्य बुद्धि प्रधान और व्यवहारकुशल लोगो के हाथो होता है, इसलिये धर्म की स्वाभाविक भविष्योन्मुख दृष्टि क्षीण हो जाती है और उस पर भूतकाल की ही परते चढ जाती है । भूतकाल मे सदा श्रग्नि की अपेक्षा भस्म ही अधिक होती है, इसलिये धर्मतेज मद पड जाता है । यही कारण है कि प्रत्येक धर्म का समयसमय पर सस्करण या परिष्करण करना जरूरी हो जाता है । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म सस्करण २ संत तुकाराम जव बाजार जाने को निकलते थे तव उनकी सज्जनता का लाभ उठाने के लिए कई लोग अपनी-अपनी तेल की नली तेल लाने के लिए उन्हे सौप देते थे और तुकाराम भी सतोप के साथ उन नलियो की भारी माला को गले मे डालकर सौपा हुआ काम नियमित रूप से पूरा कर देते थे । जन-स्वभाव ही ऐसा होता है । कोई वालक या कोई आदमी किसी की बात सुनता है, यह मालूम होते ही निकम्मे लोगों का समाज उससे अपना काम करवाने के लिए तैयार हो जाता है । कोई नाव या जहाज नियमित रूप से और तेजी से अपने नियत स्थान पर पहुँचता है, ऐसा पता चलने पर लोग उसी मे अपना माल भरने का आग्रह रखते हैं- प्रौर वह भी इस हद तक कि उसकी गति मद पड जाय और अत्यधिक बोझ से वह डूबने लगे । धर्म की भी इसी तरह की सार्वभौम उपयोगी शक्ति को देखकर हर गरजमद आदमी ने अपनी गरज को किसी न किसी रूप में धर्म के गले मे लटकाया है । इस कारण से भी धर्म का तेज वार वार हीन और क्षीण होता आया है । 75 जिम प्रकार कोई चालू दूकान अपनी तरक्की को बनाये रखने और aढाने के लिये पुराना और निक्कमा हो चुका माल बार-बार हटाया करती है और केवल पड़े रहने के कारण विगडे हुए माल को साफ-स्वच्छ करके उजला और चमकीला बना देती है, उसी प्रकार धर्म का भी बार-बार सस्करण और परिष्करण करना चाहिये । परन्तु यह सस्करण ऐसे कुशल और धर्मज्ञ समाज-सेवको द्वारा ही होना चाहिये, जिनमे खरे सोने को परखने और उसे सुरक्षित रखने की शक्ति है । श्राज दुनिया मे बढी हुई अधिकतर प्रचलित नास्तिकता का मुख्य कारण धर्म-सस्करण का प्रभाव ही है । २ किसी भी समाज के वृद्ध अथवा क्षोणवीर्य होने के मुख्य कारण दो है इन्द्रिय-परायण विलामिता और धर्म- जडता । समाज जव विलासी वन जाता है तो उसके पाम की धन-दौलत उसके लिए पर्याप्त नही होती, उसका पुरुषार्थ अपने श्राप घट जाता है गौर 'ऐसा हो तो भी क्या और वैसा हो तो भी क्या ? किसी मे कुछ नही हैं' इस तरह की निष्क्रियता और श्रालमीपन उस पर सवार हो जाता है । उसके बाद नयेनये अनुभव लेने के बजाय वह प्राचीन ग्रनुभवो के बारे मे कृत्रिम तथा दभ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 महावीर का जीवन संदेश पूर्ण आदर और आग्रह को बढाकर उन्हे ढाल के रूप मे अपने सामने रखता है। दूसरी ओर जव मनुष्य मे वौद्धिक जागृति मद पड जाती है और प्रयोग की अपेक्षा प्रामाण्य पर ही अधिक भार देने की वृत्ति बढ जाती है, तब समाज में एक प्रकार की धर्म-जडता उत्पन्न होती है। यह धर्म-जडता दिखती तो है धर्माभिमान जैसी ही, परन्तु वास्तव मे उसका रूप लापरवाही का होने से वह एक प्रकार की नास्तिकता ही होती है। अनुभव यह नही बतलाता कि अभिमान और आग्रह के मूल मे सच्चा आदरभाव अथवा सच्ची श्रद्धा होती ही है। आज भारत में ग्रामीण समाज की दुर्दशा का कोई पार नही है । शहरी से विदेशी माल और मौज-शौक की चीजे गाँवो मे पहुंचती है, लेकिन उद्योग धन्धे नहीं पहुंचते । शहरो का उडाऊपन, असस्कारिता तथा अन्य समाज घातक दुर्गण गांवो मे तेजी से फैलने लगे है। लेकिन शहरो मे जो धार्मिक विचार-जागृति, राजनीतिक प्रगति और समाज-सुधार कुछ अशो मे दिखाई देता है, उसका प्रभाव बहुत ही कम मात्रा मे गाँवो में पहुंचता हैं। जिस हिन्दू धर्म से और आर्य तत्त्वज्ञान से आज हम जगत को प्रभावित और चकित कर देते हैं, वह धर्म और वह तत्त्वज्ञान जिस विकृत रूप में आज के ग्राम समाज मे प्रचलित है, उसे देखकर यही कहना पडेगा कि 'नेद यदिदमुपासते।' देश-देशान्तर मे प्रशसा पाने वाला हमारा धर्म और गाँवो में पाला जाने वाला धर्म एक है ही नही । गाँवो मे कल तक सच्ची धर्म निष्ठा, पवित्र आस्तिकता और ऊँचा चरित्र-बल था, आज भी कही कही जिनके अवशेप दिखाई पडते है। परन्तु अबुद्धि, जडता और छिपी नास्तिकता का ही साम्राज्य वहाँ सर्वत्र फैलता दिखाई दे रहा है। इस कारण से गांव के समाज मानस मे वृद्धत्व अधिक मालूम होता है । गाँवो मे अज्ञान है, रोग है, गरीबी है । इन तीनो को यदि गांवो से हटाया नही गया, तो ग्राम-समाज अब टिक ही नहीं सकेगा। परन्तु प्रश्न यह है कि ज्ञान, स्वास्थ्य और उद्योग बाहर से गाँव के लोगो पर कहाँ तक लादे जा सकते है ? बाहर से लादे जाने वाले उपायो की एक मर्यादा होती है । इस तारक त्रिपुटी का स्वीकार गांव के लोगो को स्वेच्छा से ही करना चाहिये । और तीनो का स्वेच्छा से स्वीकार हो इसके पूर्व ग्राम-समाज का वृद्धत्व दूर होना चाहिये । उस समाज मे उत्साह और जागृति आनी चाहिये । धर्म-सस्करण के विना यह बात सभव नही होगी । अत दूसरी सब बातो से पहले गांवो मे धर्म सस्करण का समुचित प्रयत्न होना चाहिये । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म-सस्करण २ गावो मे जिम धर्म का पालन होता है उसमें भय, रिश्वत, देववाद और जंतर-मतर का कर्मकाण्ड हो मुन्न होता है-फिर वह धर्म हिन्दुनो का हो, मुसलमानो का हो या मिाइयो का हो। गांव के लोगो को अपनी दुर्बलता का, अमान का. भोलेपन का और अनाय म्पिनि मा अनुभव से उत्पन्न इतना फडवा ज्ञान होता है कि वे न्याभाविक रूप में ही शक्ति के उपागफ बन जाते हैं, फिर भले थे लोग जैन हो या लिंगायन हो। म अमान-मूनकगतिजा मेरी जादू-टोने और जतर-मतर पर लोगो को माम्था जमनी । धर्म यानी वनयान की आराधना अथवा गरीदा हुया उनका मरक्षण-मामान्य जनता धम पा अर्थ यही समझती है। धर्म ने द्वाग मागत्य पर मनुष्य मी श्रमा बनानी होती है, नरिम को तेजस्विता पो म्वाभाविक बनाना होना है। नमार के अनुभव में पद-पर पर जो विपाद प्राप्त होता है उसे दूर पाने में गमय देवी प्राध्यागन प्राप्त करना होता है और जीवन के अगभूत प्रत्येक तन्ना नूनन दृष्टि में नया तरी मूल्याउन करना होता है। नफनना पीर निष्फनता के प्रयानो को ही बदल कर ग भौतिक जगत मे प्राध्यात्मिक म्वातत्य गिद्ध करना होता । मंद्धान्तिक विवेचन की दृष्टि में यह दृष्टिभेद बहन कठिन मानम होगा लेकिन जहां हृदय के माप दृदय बात करता है वहाँ उन्नत भूमिका गा प्रामरण हृदय पर गहरा अमर करता है, और एक बार हृदय मे परिवर्तन हो गया कि फिर किसी भी उपाय में उमगे पीछे नहीं हटा जा सकता। हृदय का ऐमा प्रामंत्रण देने वाले व्यक्ति के अपने हृदय में निमी के बारे में तुच्छता का भाव नहीं होना चाहिये । हमारा प्रामपण अमाघ है, ऐमी अमर श्रास्तिकता उममे होनी चाहिये । साथ ही मनुष्य मार के हृदय के बारे में उसके दिल मे प्रेम और पाम्या-पादर होना चाहिये । धर्मजान देते या लेते समय उमे ग्रहण करने वाले के अधिकार के विषय में आज तक अपार चर्चा हुई है । लेकिन अब धर्मगान देने वाले व्यक्ति के अधिकार की गहरी चर्चा करने के दिन पाये है। ऊपर बताई हर्ष आस्तिकता जिन लोगो मे हो, उन्ही को धर्मवोध और धर्म-मरक्षण का कार्य अपने सिर लेना चाहिये। आज गांवो मे धर्मान्धता के स्प मे नास्तिकता कितनी फैली हुई है, इसका सच्चा खयाल होने पर मन को गहरा प्राधान ही लगना चाहिये और लगता मी है। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का जीवन सदेश प्रत्येक धर्म अनेक तरह के जीवन काव्य से भरपूर होता है। सच पूछा जाय तो धर्मज्ञान का समर्थ वाहन दलील या युक्ति और तर्क नही है, उसका सच्चा वाहन काव्य है । इसलिए काव्य-विहीन धर्म हो ही नही सकता । परन्तु जहाँ-जहाँ समाज मे अज्ञान और जडता का साम्राज्य होता है वहाँ धार्मिक काव्य के शब्दार्थ को ही सच्चा मान लिया जाता है, और अपने अज्ञान के कारण मनुष्य जहाँ न हो वहाँ भी गूढता और जादू का श्रारोपण करने लगता है । इस वृत्ति से अधिक धर्मविघातक वृत्ति कोई हो सक्ती है या नही, इसमे मुझे शक ही है । इसके विपरीत, धर्म के विषय मे वढने वाले इस पागलपन से ऊबे हुए लोग ऐसे मौको पर धर्म मे भरे हुए काव्य को जड़ से मिटा देने का निरर्थक और निष्फल प्रयत्न करते है । सच्चा उपाय तो यह है कि लोगो की बुद्धि को तीव्र बनाया जाय और उनकी काव्यरसिकता को विवेक पूर्ण बनाकर धर्म मे काव्य की वृद्धि की जाय । लोगो की काव्यरसिकता वढने पर वे धर्मं को आसानी से समझ सकेगे और धर्म मे घुसे हुए अधविश्वासो को भी पहचान सकेंगे । 78 परन्तु यह सब करने के लिए ज्ञानवान लोगो को शहरी आदते छोडकर गाँव की जनता के श्रम से पवित्र और प्रकृति से मधुर बने हुए दैनिक जीवन श्रोतप्रोत हो जाना चाहिए। ग्रामवासियो के जीवन से अलग रहकर उनके सरपरस्त, आश्रयदाता बनने से अब काम नही चलेगा । कोई भी समाज युग - कल्पना से पीछे रहकर सफल नही हो सकता । प्राज का युग केवल सैद्धान्तिक मानव-समानता का युग नही है | स्त्री-पुरुष की समानता को और जातियो की समानता को आज अमली रूप मे स्वीकार करना होगा । इतना ही नहीं, सब धर्मों को भी समान प्रतिष्ठा और समान आदर मिलना चाहिये। आज सब धर्मों के प्रति एक से अनादर की समानता पसद की जाती है, और उनके प्रति एक सी अनास्था अथवा एक से अज्ञान को भी समानता का एक मार्ग समझा जाता है । लेकिन यह मार्ग घातक है । आज के युग मे समाज मे रहने वाले प्रत्येक मनुष्य को मुख्य-मुख्य धर्मों का सामान्य ज्ञान होना चाहिये । परन्तु ऐसा ज्ञान लेने या देने मे केवल तार्किक, श्रालोचनात्मक अथवा ऐतिहासिक दृष्टि रखने से काम नही चल सकता । प्रेम, प्रादर और सहानुभूति के साथ जाग्रत जिज्ञासा बुद्धि से सब धर्मों का परिचय प्राप्त करना चाहिये । गाँवो का धर्म-ज्ञान वहुत पिछडा हुआ होता है, उनकी दृष्टि सकुचित होती है और उनका जीवन का हेतु वहुत उन्नत नही होता । श्राज Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म-संस्करण २ 79 जमाने में दुनिया के विभिन्न धमों रे मन्पुरगणो ने और चरित-परायण सघो ने जो प्रयत्न निये है, उसी प्रेम से देनी चाहिये । उममे ध्येय धर्म-जागृति का और लोक-कल्याण ना होना चाहिगे, केवल पण्डिताऊ बहुश्रुतता का नहीं। अाज के ममाज का एक महान शेप वग-विग्रह। लोगो को प्या, हेप या मत्मर फरने के लिए कोई ध्यानमूति नारे। त्रिय को पुरुषों के बिनाफ, नौजवानों को वृटो के खिलाफ, गरीवो को अमीगे के गिलाफ हिन्दूमुसलमानो को एक-दूसरे के खिलाफ और गोरे लोगों को काले और पीले लोगो के खिलाफ लडना है। इस प्रकार मयं विरह कानडाई का वातावरण फैला हुआ है। वम या ज्यादा लोगो को मगठित गारगे उनमा नेतृत्व ग्रहण करने की नीयत हो, तो इसके लिए उन नर की पदि को केन्द्रित करके उन्हें हेप के पालम्वन के लिये एक ध्यानमूर्ति देकर मगय का और परायेपन का वातावरण सडा करना बहुत आमान है। ___ यह गेग धर्म में वडी गादी से घम नकाना है । प्राजकन इस दिशा में प्रवल प्रयत्न भी चल रहे है । न सव परिणाम पर हत्या और त मे आत्महत्या मे ही पायेगा । हम जिन धम-मम्करण का विचार करते है, उनमें इम गेग मे मुक्न रहने की पूरी सावधानी रगनी चाहिये । धर्म के बुरे तत्त्वों को दूर करते ममय उतना ध्यान में रखना चाहिये कि उनके स्थान पर शुभ, माचिक और ठोम तत्त्वो का धर्म में प्रवेश हो । केवल शून्यता, रिक्तता भयकर मिट्ट होती है। व्यवहार-कुशन लोग कहेंगे कि यह मारा विवेचन मुन्दर और उद्बोधक है, परन्तु इममे योजना जैमा कुछ भी दिखाई नहीं देता। विधान-मभा में कोई कानून बनाते समय पहले उमके उद्देश्यो का व्यवस्थित निस्पण क्यिा जाता है और उसके बाद ही उम कानून की धाराये आती है । परन्तु व्यवहार मे देखा जाता है कि कानून की धारायें हाथ मे आते ही उमका हेतु और उद्देश्य गौण वन जाता है और अन्त मे भुला दिया जाता है। समाज को ऐमी धारावद्ध योजना की पादत पड़ गई है । परन्तु इससे जीवन यात्रिक बन जाता है । भावना का स्थान योजना कैसे ले सकती Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 महावीर का जीवन सदेश है ? भावना का क्षेत्र शिक्षा से नव-पल्लवित होता है, जबकि योजना अन्त मे व्यवस्था का रूप ले लेती है। यहाँ मैंने जिस परिवर्तन की बात कही है, वह किसी सत्ता के बल पर नही हो सकेगा। वह शिक्षा के द्वारा और प्रत्यक्ष उदाहरण द्वारा लोगो का हृदय परिवर्तन कराने से ही हो सकेगा। इसके लिए कोई सार्वजिनक योजना तैयार करने की जरूरत नही है । यदि भावना मूल मे शुद्ध होगी और सुरक्षित तथा जीवत रहेगी तो हमारी आवश्यकता के अनुसार अनेक योजनाये उत्पन्न होगी और वदलती रहेगी। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म में सुधार सुधारक आपका आमरण स्वीकार करके मैं यहीं ग्राया, इसमें एक उद्देश्य यह था कि इस निमित्त मे एकाध दिन परमानन्द भाई के साथ रहने का आनन्द मिलेगा। अभी-अभी उनके श्रहमदाबाद के भाषण के विरुद्ध एक बडा जगडा खडा हुया है । मुझे बार-बार श्राश्चर्य होता है कि परमानन्द भाई के समान सौम्य प्रोर सतुलित व्यक्ति के भाषण मे लोगो को ऐसा क्या मिल गया कि वे उन्हें मार्टिन ल्यूथर बनाने के लिए तैयार हो गये है। तीव्र विचार रखने वाले प्रत्येक मित्र को वस्तु का दूसरा पहनू बताकर उमे सौम्य और जिम्मे - दार बनाना ही ग्राज तक परमानन्द भाई का प्रिय कार्य रहा है । उनका पूरा भाषण पढ़े विना ही में कह सकता हूँ कि उसमे उत्पात मचाने वाला अथवा विनाशक कोई तत्त्व नही है । उसका ग्रथ उतना ही है कि नातिकारी या सुधारक युग परमानन्द भाई के समान मौम्य मूर्ति के द्वारा भी अपनी आवाज प्रकट कर मकता है । मैं सुनता हूँ कि अमुक समाज ने श्रथवा समुदाय ने उनका बहिष्कार कर दिया है । उसलिये में पहले इम वहिष्कार के बारे मे ही दो शब्द कहूँगा । वहिष्कार प्रत्येक मुगस्कृत और मगठिन समाज का स्वाभाविक अधिकार है । वह मभ्य समाज के हाथ मे एक प्रभावशाली और मात्त्विक श है | लेकिन यह शम्य दुधारी तलवार है। जिनके खिलाफ इसका उपयोग किया जाता है उन्हें तो जब यह मारेगा तब मारेगा, परन्तु जो लोग इस शम्न का उपयोग करते हैं वे यदि उचित श्रवमर, उचित पद्धति और स्वाभाविक मर्यादा को न जानें, तो यह पहले उन्ही का नाश करना है । एक ममय हमारी जाति के एक सथाने वृद्ध पुरुष ने वहिष्कार की जो मीमामा की थी उमे इस समय में अपनी भाषा मे ग्रापको मुना दूँ । सत्याग्रहाश्रम मे जाकर मैंने हरिजन के हाथ का खाना खाया था । इसलिये जब मै अपने गाँव गया तो मैंने अपने जाति वालो से हूँ । गुजरात के जैसी जातियो की रचना वाली परेशानी हमारे प्रदेश मे बिलकुल कहा कि मैं इस तरह व्यवहार करता और जातियो द्वारा खडी की जाने नही है । फिर भी जाति के लोग Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 महावीर का जीवन संदेश चाहते तो मेरा बहिष्कार कर सक्ते थे। मैने हरिजनो के साथ भोजन करने की बात उनके सामने कबूल की, तो कुछ भाई वोल उठे "बैठो, बैठो। हम पूछने आये तव तुम ऐसी बाते हमसे कहना।" इसी रुख के समर्थन में एक वृद्ध पुरुप ने कहा - "कोई वडा अमीर आदमी होता है तब तो उसका बहिष्कार करने की हम बात भी नहीं करते । दभी आदमी समाज मे पाखड चलाते है, लेकिन हम उन्हें अपने शिकजे मै पकड नही सकते । तब यदि एकाध मन के शुद्ध और सज्जन आदमी का ही हम वहिष्कार करे तो क्या यह हमें शोभा देगा? ऐसा करने से समाज का कल्याण भी नही होगा । इनके जैसे लोग रूढ आचार को जरूर तोडते है, परन्तु वे अनाचार नही करते । इसलिये जाति उनके खिलाफ हो जाय, तो भी उनकी प्रतिष्ठा को कोई धक्का नहीं पहुँचता। उल्टे बहिष्कार करने वाले लोगो की ही वदनामी होती है । यदि निर्मल और शुद्ध-हृदय लोगो का बहिष्कार करके हम उन्हे खो देगे, तो फिर जाति मे रह ही क्या जायगा? इसलिये समझदारी का मार्ग यही है कि ऐसे लोगो का हम नाम ही न ले। यह कलियुग है, इसमे जो कुछ हो उसे हम चुपचाप देखते रहे।" इन वृद्ध पुरुष की मुख्य दृष्टि सच्ची थी, यद्यपि कलियुग की उनकी दलील निरर्थक थी। यह जरूरी है कि समाज के प्राचारो की (रहन-सहन की) प्रत्येक युग मे जाँच की जाय। उनमै आवश्यक परिवर्तन होना भी जरूरी है। शरीर को हम रोज नया पोपण देते है और गदगी भी रोज शरीर से बाहर निकालते रहते है, जिससे शरीर निरोग रहकर अच्छी तरह अपना काम करता है । यही बात समाज-शरीर पर भी लागू होती है। जिस प्रकार खाये हुए आहार का कुछ समय बाद रक्त बनता है और उसका निकम्मा भाग गदगी के रूप में शरीर से बाहर निकल जाता है, उसी प्रकार अच्छी से अच्छी प्राचीन व्यवस्था अपने-अपने समय को पोपण देने के बाद सडाध के रूप मै बची रहती है। उसे यदि हम समाज से निकाल न फेके, तो समाजशरीर बदबू करता है और रोगी हो जाता है। प्रतिदिन होने वाले विकाम को जव हम रोक देते है, तो किसी समय सन्निपात की तरह ममाज मे एकाएक क्राति फूट पडती हैं। विकाम को रोकने का अर्थ है क्राति को निमत्रण देना, फिर यह भाति विदेशी आक्रमण के रूप में हो या भीतरी विद्रोह के *प मे। मामयिक मुधारो के बिना धार्मिक जीवन टिक नहीं मकता, इमलियं सामाजिक मुधार-सामाजिक प्रगति के मात्र भीम नियमो को हम जान Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 83 सुधारक धर्म मे सुधार लेना चाहिये। जिन लोगो के पास हजारो वर्षों का अनुभव और इतिहास है, वे यदि धर्म - विकास और जीवन परिवर्तन का शास्त्र न रचे, तो वे ऋषिमुनियो की परम्परा को कलकित कर देगे । हमारे स्मृतिकार समय-समय पर धर्म-व्यवस्था मे परिवर्तन करते ही आये है । अब हमे ऐसे परिवर्तनो का एक सम्पूर्ण शास्त्र बनाना चाहिये। तभी हम अपने समाज का जहाज जीवनसागर मे सुरक्षित रूप मे चला सकेगे । इस प्रकार जीवन-व्यवस्था की वारवार परीक्षा करके जीवन के तत्त्वज्ञान को नये सिर से रचने वाले लोगो मे भगवान् महावीर एक अग्रगण्य महापुरुष थे । श्रव हम देखे कि उनका युग कैसा था ? महाभारत के युद्ध की घटना श्रार्यों के जीवन मे वडी से वडी काति करने वाली मिद्ध हुई । अग्रेजो और जर्मनो के बीच के भातृद्वेप का विग्रह जिस प्रकार विश्वव्यापी वनकर आज की दुनिया को अभी भी परेशान कर रहा है, उसी तरह कौरव-पाडवो के बीच का वह सर्वनाशी महायुद्ध भारत की प्राचीन संस्कृति के लिए घातक सिद्ध हुआ । इस भारतीय युद्ध के पहने रतिदेव जैमे सम्राट् इस प्रकार के महायज्ञ करने में जीवन की सार्थकता मानते थे, जिनमे प्रतिदिन पच्चीस-पच्चीस हजार पशुओ का वध होता था । उस समय के राजा लोग सम्राट् बनने के लिए प्रतिस्पर्धा करके एक- दूसरे का नाश करते थे और एक दिग्विजय सिद्ध करने के लिए किये गये राजसहार का पाप धोने के लिए उतना ही हिंसक दूसरा यज्ञ करते थे । इसी कारण से भीष्माचार्य तथा धर्मराज के ममान पुण्य-पुरुपो ने क्षात्र धर्म को पापपूर्ण मानकर उसे धिक्कारना चाहा । मनुष्य की प्रखण्ड सेवा के कारण उसके कुटुम्वी बने हुए प्रसव्य पशुओ का - गाय, बैल श्रौर घोडो का --- यज्ञ के नाम पर सहार करने की सिफारिश करने वाले वेदो से सत्रस्त होकर एक ऋषि यह विद्रोही वचन बोल उठे 'विग्वेदा' वैदिक संस्कृति के सुवर्ण - काल मे ऐसा वचन कहना उतना ही साहमपूर्ण था जितना वरदून का युद्ध लड रहे हिडनवर्ग के समक्ष युद्ध का निषेध करना । हमारे वैदिक धर्म के अभिमानी पूर्वजो ने यह वचन भी लिख रखा है। यह बात उनकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता को मूचित करती है, साथ ही यह उस काल की ऊबी हुई धर्मवुद्धि की भी द्योतक है । भारतीय युद्ध, काठियावाड की भूमि पर परस्पर लडा गया यादवो का सहारक युद्ध तथा आस्तिक ऋषि द्वारा बंद कराया हुआ राजा जनमेजय Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 महावीर का जीवन संदेश का सर्पसत्र-इस सारे वातावरण का जिन लोगो को स्मरण था, उन्होने सम्पूर्ण जीवन-दृष्टि मे परिवर्तन करने का निश्चय किया। यह विचार धीरे-धीरे परिपक्व और दृढ होता गया, छह सौ वर्ष तक यह प्रक्रिया चलती रही और उसमे से आर्य-परम्परा के दो पन्थो का जन्म हुआ। इन पथो को हम बौद्ध धर्म और जैन धर्म के नाम से पहचानते है। नहि वेरेण वेराणि सम्मन्तीध कुदाचन । अंवरेण च सम्मति एस धम्मो सनन्तनों ॥ इस प्रकार कहकर बुद्ध भगवान् ने अवैर का सन्देश दिया । 'दुख सेते पराजितो'-प्रजा का यह अनुभव होने से उसने इस सन्देश को अपना लिया । वुद्ध भगवान् ने मासाहार का निपेध भले ही न किया हो, किन्तु यह उन्होने स्पष्ट कहा है कि जव मानव-जाति यज्ञ के नाम पर पशुहत्या नही करती थी उस समय मनुप्यो मे रोग नही-जैसे ही थे । पशुहत्या के फलस्वरूप ही मानव-जाति को अनेक रोग लग गये है। और, जातृपुत्र वर्धमान महावीर ने तो अहिंसा को ही परम धर्म कहकर मानव-जीवन के सम्पूर्ण आधार को ही बदल डाला । वैदिक काल में अवैर, अहिंसा और गोरक्षा की कल्पना थी ही नही ऐसा नही; परन्तु धर्म का पूर्ण साक्षात्कार भी तो अनुभव से ही होता है । बुद्ध और महावीर के समय मे ही ऋषि-दृष्ट अहिंसा का प्रेम-धर्म लोक-दृष्ट हुआ। यह तो नही कहा जा सकता कि उनके समय के बाद भारत मे यज्ञ हुए ही नहीं, परन्तु राष्ट्र-धर्म के हृदय मे यज्ञ अप्रतिष्ठित वन चुके थे। वे प्राचीन संस्कृति की |ज की तरह सुने गये और अनादर के मौन मे विलीन हो गये । जहाँ-तहाँ जन-हृदय पूछने लगा कि वृक्षो का सहार करने से, पशुओ की हत्या करने से और रक्त-मास का कीचड फैलाने से यदि स्वर्ग मे जाया जाता हो, तो फिर नरक मे जाने का मार्ग कौनसा है ? जब अनुकूल और प्रतिकूल तटो पर वसने वाले किसानो मे बीच की नदी के पानी के लिए युद्ध होने का अवसर खडा हो गया, तव बुद्ध भगवान ने दोनो के नेताओं को इकट्ठा करके पूछा 'पानी कीमती हे या भाइयो का खून ?' 'णनी के लिए भाइयो का खून बहाना कहाँ की बुद्धिमानी हे ?' Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधारक में धर्म सुधार राजा ययाति ने अपने और अपने पुत्र के यौवन का अनुभव करके सम्राट् के लिए सुलभ सारे भोग भोग लेने के बाद यह अनुभव वचन कहा कि जगत में जितने भी चांवल और तिल है, जितने भी ऐश प्राराम के साधन हैं, उन सब को कोई अपना बना ले, तो भी एक के सुखोपभोग के लिए वे पर्याप्त नही होगे, वे उसके मन मे तृप्ति उत्पन्न नही कर सकते । इसलिये स्वय वासना का ही त्याग करके सतोष मानने मे जीवन को सफलता की कुञ्जी है | भगवान् महावीर ने भी लोगो से यही कहा । हिसा के द्वारा दूसरो को दबाने की अपेक्षा तप के द्वारा अपनी वासनाओ को दबाना ही विश्वजित् यज्ञ है । इसी मे जीवन की सफलता और कृतार्थता हे । मनुष्य का जीवन अपने आस-पास के लोगो के लिए शाप रूप और त्रास रूप बनने के बदले श्राशीर्वाद बने, इसी मे धर्म निहित है । तप के मूल मे यही बात है । तप के विना मनुष्य का जीवन निष्पाप नही बन सकता । 85 ने जिस प्रकार यज्ञ के जैसे भव्य जीवन- सिद्धान्त को उस समय के लोगो पशुहत्या कर के भ्रष्ट कर दिया, उसी प्रकार उसके बाद के लोगो ने तप के सर्वमगलत्व को भूनकर उसे निरर्थक देह-दमन का रूप दे दिया । सचमुच हमारे देश के लोगों ने महान् से महान् धर्म-सिद्धान्तो को अर्थ - विहीन यात्रिक क्रिया का रूप देकर बहुत बडा बुद्धि-द्रोह और समाज-द्रोह किया है । आहार - शास्त्र, जीवन-शास्त्र, प्राणी शास्त्र, समाज-शास्त्र, अर्थशास्त्र, मानस शास्त्र, तर्क शास्त्र आदि मनुष्योपयोगी शास्त्रो का जिन्होने उत्तम और द्यावधि (Up-to-date ) अध्ययन किया है, उन समाज हितैपी लोगो को धर्मशास्त्रो पर वार-वार विचार करना चाहिये और अपने जमाने के स्वजनो का मार्गदर्शन करना चाहिये । यदि यह सनातन श्रावश्यकता न होती तो भगवान् बुद्ध और महावीर जैसे महापुरुषो को पुरुषार्थ करके जनता को सनातन धर्म की नये सिरे से दीक्षा देना आवश्यकं नही लगता । धर्मं कितना भी उज्ज्वल क्यो न हो, मानवीय बुद्धि अथवा अर्बुद्धि की जडता के कारण उस पर राख चढ हो जाती है । इस राख को हटाकर तथा प्राचीन धर्म-तत्त्वो का सस्कार कर के धर्म को नये सिरे से गति देने का कार्य प्रत्येक युग मे होता प्राया है इसीलिये धर्म टिका है। धर्म के ग्रन्थ, धर्म के मन्दिर तथा अहिंसा, सत्य और शान्ति Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 महावीर का जीवन सदेश सव को भूलकर धर्म का ही द्रोह करने वाले धर्मान्ध आचार्य धर्म को रक्षा नही कर पायेगे । शान्ति, नितिक्षा और उदारता जिनमे है, विरोधी पक्ष के तर्क मे रहे सत्याश और शुभ हेतु को समझने और स्वीकारने जितना स्याद्वाद जिन के गले उतर गया है, ऐसे धर्म-परायण लोग ही धर्म के रक्षक होते है । उच्च धर्मं मे जन्म पाने से मनुष्य उच्च नही होता, परन्तु उच्च जीवन से ही वह उच्च बनता है, यह वुद्ध और महावीर ने अनेक बार कहा है । धर्म का अर्थ ही है जीवन सुधार । प्राकृत मनुष्य का जीवन सामान्यत आहार-निद्रादि आवश्यकताओ के, राग-द्वेषादि वासनाओ के तथा दम्भमत्मरादि विकृतियो के अनुसार ही वहता रहता है। इसमे सुधार कर के जीवन को सु-सस्कृत बनाना ही धर्म का मुख्य कार्य है । जिस प्रकार जीवन पर जग चढता है उसी प्रकार धर्म-वचनो और धार्मिक संस्थानो पर भी जग चढता है । इस जग को दूर करने का कार्य यदि धर्म स्वय न करे तो दूसरा कौन करेगा ? सामाजिक सुधार ही धर्म का प्रयोजन है । यदि कोई यह कहे कि बुद्ध और महावीर के बाद समाज-सुधारको की आवश्यकता नही रही, तो इससे यही सिद्ध होगा कि बुद्ध और महावीर की भी उनके जमाने मे कोई आवश्यकता नही थी । प्रत्येक धर्म -सस्थापक पर यही न्याय लागू होता है, भले ग्रन्थ-वचन कुछ भी कहे । ' ऐसा एक भी देश नही है और ऐसा एक भी युग नही है, जिसे समाज सुधार करने के लिए धर्म-सस्थापक प्राप्त न हुए हो ।' इसलिये हमे धर्म से ही समाज-सुधार के सिद्धान्त मिल सकते है । और इन सिद्धान्तो का उपयोग सर्वप्रथम हमे प्रगति सिद्ध करने, धर्म सस्था को सुधारने के लिए ही करना चाहिये । प्रगति का अर्थ क्या है ? यह प्रश्न हमेशा उठता है जहाँ जीवन के आदर्श बार-बार बदलते है वहाँ प्रगति की दिशा निश्चित करना आसान नही होता । सामान्यत यह कहा जा सकता है कि प्रत्येक समय के लोगो को तात्कालिक जो कुछ वाछनीय मालूम हो उसकी परिवर्तन करना प्रगति है । लोगो को जो दिशा वे जायेगे । एक समय हमारे लोगो ने सगीत और उन्होने इन दोनो कलाओ को सामाजिक बुराई मान के कुछ लोगो ने इन कलाओ के खिलाफ जोरो का और जाने के लिए आवश्यक पसद होगी उसी दिशा मे नृत्य की निन्दा की थी । लिया था । उस समय आन्दोलन कियाथा । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधारक में धर्म सुधार 87 आज उसी सगीत और नृत्य को अपनी सस्कृति की विशेषतायो के रूप मे हम सीखते है और उनका विकास करते है तथा दुनिया को उनकी कद्र करने के लिये निमत्रित करते है । एक जमाने में अपने बालको को खेलकूद मे समय विगाडने के लिये हम सजा देते थे, आज खेदकूद मे जो विद्यार्थी भाग नही लेते उनसे हम नाराज होते है । हमारी पोशाक के बारे में भी यही बात लागू होती है। हमारे देश में एक ऐसा जमाना भी हो गया है, जो मास और मदिरा के सेवन में ही प्रगति मानता था। आदर्श सदा झूले की तरह दो सिरो के बीच झूलते रहते हैं। फिर भी प्रगति जैसी कोई स्थाई चीज अवश्य है, और सभी जमानो को वाछनीय लगे ऐसे कुछ तत्त्वो का भी विकास होना चाहिये। इसका विचार हम आगे करेगे । सामान्यत यह देखा गया है कि समाज को स्थिरता और प्रगति दोनो तत्त्वो की रक्षा करनी होती है। यदि स्थिरता न हो तो सामाजिक सद्गुणो की पूजी एकत्र नही हो सकती, चरित्र का विकास नही हो सकता और मनुष्य का सामाजिक जीवन मे विश्वास भी नही बैठ सकता । उलटे यदि हम अपरिवर्तनवादी बन जाये, तो जीवन को जग लग जायेगा, जीवन सड जायेगा और सारे जीवन-रस सूख जायेगे। स्थिरता और प्रगति ये एक साथ रहने चाले तत्त्व कभी-कभी श्रम और विश्वास की तरह एक के बाद एक आते है। यह भी प्रगति का एक वडा सिद्धान्त है । इन दोनो की अपरिहार्यता को ध्यान मे रखकर ही सामाजिक जीवन के नियम बनाये जाने चाहिये । धर्मशास्त्रो ने समय-समय पर सामाजिक नियमो की रचना की है। हमारे समाज की मान्यता ऐसी बना दी गई है कि नियम ईश्वर के दिये हुये है अथवा सामान्य बुद्धि से परे रहने वाले अलौकिक दृष्टि के लोग ही नियम बना सकते है। प्रत्यक्ष व्यवहार मे तो सभी लोग इस विचार को ही प्रोत्साहन देते है कि धर्म की दी हुई समाज व्यवस्था में कोई परिवर्तन करने का अधिकार समाज को नहीं है। समाज-व्यवस्था प्रत्यक्ष अनुभव, उस अनुभव के आधार पर होने वाला विचार, समाज की भावनाये और समाज मे विकसित होने वाली सनातन श्रद्धा-इन्ही सब पर आधार रखती है। इनमे से श्रद्धा प्रत्येक समाज का मूलधन है। इस धन की रक्षा करना सामाजिक शक्ति का मूल-मत्र है। ___ यदि हम प्रतिक्षण परिवर्तन करते रहेगे तो, समाज वाल के ढेर जैसा हो जायेगा। उसमे धृति (Cohesion) का गुण अायेगा ही नही । और यदि Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 महावीर का जीवन सदेश हम किसी भी तरह का परिवर्तन न करने का निश्चय कर ले, तव तो समाज मुर्दों की तरह सडने लगेगा । समाज मे आवश्यक परिवर्तन करने पर भी कोई परिवर्तन नही किये गये है ऐसा मानने- मनवाने मे प्रत्येक ममाज अपना श्रेय समझता आया है | न्यायाधीश प्रत्येक मुकदमे मे अपना निर्णय देते समय कानून मे परिवर्तन करते है, परन्तु उनका प्रयत्न यह दिखाने का होता है कि कानून मे कोई परिवर्तन नही किया गया है। इसे Legal fiction कहते है । समाज - व्यवस्था को धर्म शास्त्रो के हाथो मे सौपने के बाद उसमे कोई परिवर्तन नही किया गया, ऐसा दिखाना पडता है । इसके लिए भाष्यकार भाष्य रचते है श्रौर एक ही शास्त्र में श्रद्धा रखते हुए भी अलग-अलग भाष्यकारो के अर्थ के अनुसार लोगों के गुट बन जाते है । लोग शास्त्र वचन के प्रामाण्य की रक्षा करके अपने स्वीकृत भाष्यकार के वचन को अधिक महत्त्व देते है । सब देशो के आज तक के इतिहास को देखते हुए प्रगति का यह भी एक सार्वभौम नियम कहा जा सकता है । सामाजिक प्रगति का एक दूसरा महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त भी सर्वत्र देखा गया है । एक जमाना धर्म-व्यवस्था के बाह्य आकार की रक्षा करके उस आकार पूरे या भरे जाने वाले मसाले मे परिवर्तन करता है । पशु के मास का यज्ञ करने के वदले वह माप का ( उडद का) पशु बनाकर उसकी afe देता है और मानता है कि मास यज्ञ की रक्षा हो गई। इस प्रकार भीतर का मसाला पूरी तरह बदल जाने के बाद नये लोग तर्क करते है कि मुख्य चीज मसाला है, आकार तो गौण चीज है । इसलिये भीतर की चीज की रक्षा करके उसे कैसा भी आकार देने मे धर्मद्रोह नही होता, तत्त्व की रक्षा का ही वास्तविक महत्त्व है । इस प्रकार आकार के वदल जाने के बाद नये आकार को ही महत्त्व प्रदान किया जाता है । उडद के प्राटे के पशु बनाने के बदले गेहूँ के आटे के पिण्ड बनाये जाते हे और फिर उसमे नया मसाला स्वीकार करने की तैयारी हो जाती है । एक प्राचीन वचन है 'चलत्येकेन पादेन तिष्ठत्येकेन पण्डित' एक पैर को उठाकर आगे रखने के लिए दूसरा पैर अडिग और स्थिर रखना होता है । उठाया हुआ पैर आगे स्थिर हो जाय उसके बाद पीछे से अडिग पैर के टिकने की या उसे टिकाने की वारी याती है । इसी तरह समाज की प्रगति होती आई हे । जो लोग इस सिद्धान्तो को जान लेते है, उनकी समाज सेवा करने की शक्ति खूव वढ जाती है । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधारक मे धर्म मे सुधार आज का जमाना चर्चा का है। प्राचीन नियम यह था जिस वात के लिए मन मे परम प्रादर हो, उसकी चर्चा नहीं की जा सकती । माता, पिता या गुरु की आज्ञा पर कोई विचार किया ही नही जा सकता था-'प्राज्ञा गुरुणा ह्यविचारणीया।' गुरुजनो के आचरण के काजी हम न बनें, वे जो कुछ करते हैं यह उत्तम ही है 'वृद्धास्ते न विचारणीयचरिता' इस वृत्ति का भी खव विकास हा था। आज एक भी वस्तु इतनी पवित्र नही रही, जिसकी चर्चा ही न की जा सके। सभी लोग सभी वस्तुओ की चर्चा करें, इसमे एक प्रकार की शिक्षा भी है और अनधिकार चेष्टा भी है। इसमे समाज का नेतृत्व क्षुद्र-वृत्तियो को उत्तेजित करने वाले गैर-जिम्मेदार लोगो के हाथ मे आसानी से चला जाता है। परन्तु इस दोष से बचने के लिए यदि यह नियम बना दिया जाय कि 'अधिकारी पुरुप ही चर्चा करने योग्य माने जाने चाहिये,' तो इसके भी अपने अलग गुण-दोष है ही। ऐसा करने से समाज-हित का विचार एक तरह से परिपक्व रूप में होता है, लोगो मे बुद्धि भेद उत्पन्न नहीं होता, स्थिरता बनी रहती है और समाज प्रचण्ड सामर्थ्य का विकास कर सकता है । परन्तु ऐसी स्थिति मे लोक-शिक्षण बहुत वार रुक जाता है और नेतानो की ही एक जाति खडी हो जाती है । समाज की कार्य-शक्ति बढने पर भी उसकी सूझ-बूझ की शक्ति को जग लग जाता है और नेता वर्ग का नैतिक अध पतन होने पर सारा ममाज टूट जाता है । धार्मिक सुधार करने वाले लोग परम धार्मिक और त्रिकालज होने चाहिये। जो लोग धर्म के विधि-विधान में और बाह्म प्रथानो मे प्राति कर सकते है, उनके पास धर्म की आत्मा अखण्ड जागृत होनी चाहिये । उन्हे धर्म तत्त्व का प्राकलन स्वय करना चाहिये । ऐसे लोग हर समाज मे और हर देश में अथवा समाज में उत्पन्न होते ही है, यह धर्म-ग्रन्यो मे लिखा हुआ है और इतिहास में देखा गया है । यिकालज्ञ शब्द का अर्थ हमे भली-भांति समझ लेना चाहिये । 'लाखो वर्ष पहले कौन-कौन सी घटनायें घटी है और लाखो वर्ष बाद कौन-कौन मी पटनाये घटने वानी है, प्रत्येक व्यक्ति क्या-क्या कर चुका है और आगे क्या करने वाला है, यह मव विस्तार में जानने वाला मनुप्य त्रिकालज है,-ली जड मान्यता ममाज में फैली हुई है। ईश्वर की ओर से मदेश प्राप्त करने का दावा करने वाले मुहम्मदपैगम्बर कहते हैं कि दृमरे क्षण क्या होने वाला है Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 महावीर का जीवन सदेश यह न तो खुदा ने अपने नबियो से कह रखा है और न अपने फरिश्तो से । भविष्य-सम्बन्धी ज्ञान खुदा ने अपने पास ही रखा है। कहने का मतलव यह है कि सर्वोच्च मनुष्य को भविष्य का ब्यौरेवार ज्ञान प्राप्त नही हो सकता। तव त्रिकालज्ञ का अर्थ क्या है ? जो मनुष्य दीर्घकालीन इतिहास के अध्ययन से भूतकाल के स्वरूप को अच्छी तरह जानता है और लोक-स्थिति का सूक्ष्म और व्यापक निरीक्षण करने के फलस्वरूप वर्तमान काल की वस्तु-स्थिति से पूर्ण परिचित होता है, उसे यदि उसने शास्त्रीय-वृत्ति का विकास अपने भीतर किया हो तो-समाज शास्त्र की रचना करना आता है और इस शास्त्र के बल पर वह आसानी से यह समझ सकता है कि भविष्य का प्रवाह-विचार प्रवाह तथा घटना प्रवाह-किस दिशा मे बहेगा। ऐसे शास्त्रीय दृष्टि वाले मनुष्य को हम त्रिकालज्ञ कहते है । प्रत्येक देश के और प्रत्येक युग के सर्वोच्च नेता इस प्रकार कम या अधिक मात्रा मे त्रिकालज्ञ होते ही है। और जो लोग इम अर्थ मे त्रिकालज्ञ रहे है, वे ही समाज की नौका को जीवन-सागर में भली-भांति चला सके है। ऐसे मनुष्य मे एक विशिष्ट शक्ति की आवश्यकता होती है । वह है भविष्य के आदर्श की झांकी करने की शक्ति । जिस प्रकार जहाज का कप्तान अपने पास के नक्शे के अनुसार जहाज को चलाता है, जिस प्रकार मकान बनाने वाले लोग अपने नक्शे के अनुसार मकान की सारी रचना करते है, जिस प्रकार महाकाव्य का कोई कवि निश्चित किये हुए उद्देश्य के अनुसार अपने काव्य का विस्तार करता है, उसी प्रकार समाज की धुरा को धारण करने वाला, समाज का नेता अपने मन मे निश्चित किये हुए आदर्ण की दिशा मे समाज को नि शक भाव से ले जाता है । उसके सामने अपने आदर्श का चित्र जितना स्पष्ट और जीवत होगा, उतने ही विश्वास के माथ वह समाज का मार्गदर्शन करेगा । वुद्ध और महावीर ऐसे ही समाज-मुधारक थे, इसीलिये वे अपने पीछे इतनी समर्थ सस्कृति छोड गये हैं। लेकिन बाद के लोग धर्म के रहस्य को भूलकर केवल इढि और अपनी प्रतिष्ठा मे चिपटे रहते हैं । अहिमा-धर्म की मर्वत्र विजय देने की इच्छा रखने वाले जैनो मे जब धर्म के नाम पर मार-पीट होती है तब धर्म कलकित होता है। शम-दम का उपदेश करने वाले प्राचार्य जब प्रोधित होते है और किमी का मर्वनाश करने की प्रतिजा लेते है, तब जिम धर्म के Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधारक धर्म मे सुधार 91 नाम पर उनको प्रतिष्ठा मिली है वह धर्म गहरे सोच में पड़ जाता है कि 'अब मैं कहाँ जाऊँ ? जिनके आधार को मैंने मुख्य माना था वे मेरे रक्षक होने का दावा तो करते है, परन्तु अपने जीवन से ही मेरा गला घोटते है।' महाराष्ट्र मे नागपुर के पास रामटेक नामक एक स्थान है। वहाँ का एक जैन-मन्दिर देखने मै गया था। उसके द्वार पर बन्दूक, तलवार आदि शस्त्र रखे गये थे और सिपाही उस मन्दिर की रक्षा करते थे। इस तरह मन्दिर मे एकत्र की हुई धन-दौलत की रक्षा जरूर होती थी, लेकिन अहिंसा-धर्म की तो निरन्तर विडबना ही होती थी। धन-दौलत के भडार और अहिंसा का मेल कभी बैठ ही नही सकता । यूरोप मे अहिंसावादी क्वेकरो को और भारत मे अहिंसावादी जैन लोगो को काफी धनी देखकर मेरे मन मे शका होती है कि इन लोगो की समझ मे अहिंसा-धर्म अच्छी तरह आता होगा या नही ? गरीवो का वृत्तिच्छेद किये बिना कोई धनवान हो ही नहीं सकता और वृत्तिच्छेद मे शिरच्छेद से कम हिंसा नही है। यदि धर्माचार्य धर्म की विजय देखना चाहते हो, तो उन्हे समाज की अन्याय मूलक व्यवस्था को बदलना ही होगा और ऐसी स्थिति लाने का प्रयत्न करना होगा जिसमे प्रत्येक मनुष्य को उसकी मेहनत का पूरा फल मिले । यह अच्छा ही हुआ कि प्राचीन काल मे आहारशास्त्र के सूक्ष्म नियम बनाये गये। परन्तु आज वे नियम बदलने ही चाहिये । नया आहारशास्त्र बडी तेजी से विकास कर रहा है। धर्म की दृष्टि से उसका लाभ उठाकर धर्माचार्यों को चाहिये कि वे अपने समाज को नया रास्ता दिखाये । मेरी समझ मे यह बात नही आती कि प्याज, आलू, बैगन या टमाटर न खाने मे धर्म मानने वाले लोग कीडो को उवाल कर तैयार किये हुए रेशम के कपडो का घर मे और उपाश्रय मे कैसे उपयोग करते होगे । लेकिन यह तो तुलना मे एक गौण बात हुई । आज स्त्रियो, हरिजनो, गरीवो, किसाना और मजदूरो के प्रति जो जीवन-व्यापी अन्याय चल रहा है, उसे रोकने के लिए धर्मवीरो को कटिबद्ध होना चाहिये । जैन का अर्थ है वीर । उसे तो सदा लडने की तैयारी रखनी ही चाहिये । उमका शस्त्र अहिंसा है, लेकिन इस कारण कम वीरता से उसका काम नही चल सकता । जिस धर्म की स्थापना एक महान् सुधारक ने की Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 महावीर का जीवन संदेश उसके अनुयायी स्वयं ही सुधार का विरोध करे, यह एक प्राश्चर्यजनक घटना है । बुद्ध और महावीर ने जाति-भेद का विरोध किया था, अस्पृश्यता की अवगणना की थी, फिर भी उनके अनुयायी जाति के अभिमान से ओतप्रोत है और अस्पृश्यता को टिकाये रखने में धर्म समझते है । यह स्थिति देखकर ही एक मित्र ने कहा है : 'सत लोग धर्म चलाते है और रूढि - पूजक प्राचार्य उस धर्म का खून करतें है और बाद में उसकी 'ममी' (सुरक्षित शव ) की पूजा करते है ।' मैं नहीं मानता कि ऐसा होना ही चाहिये | इसलिये मेरी यह आशा है कि धर्माचार्य अपनी प्रतिष्ठा को नहीं परन्तु धर्म को जीवत रखने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देगे । सवत् १९६२ - सन् १९३५ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म संस्करण का समाजशास्त्र हम भूतपरस्त बनें या भविष्य के सर्जक ? नया श्राध्यात्मिक समाजशास्त्र परम्परा किसे कहें ? Page #110 --------------------------------------------------------------------------  Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम भूतपरस्त बनें या भविष्य के सर्जक १ भारत प्रचलित लोककथाओ मे भूत-प्रेत श्रादि दुर्दैवी योनियो का वर्णन आता है । उसमे बताया जाता है कि भूतो के पाँव उलटे होते है और उनकी आँखे भी मनुष्य के जैसी मुख के श्रागे रहने के बदले पीछे रहती है । बचपन मे ऐसे वर्णन पढते घवराहट होती थी । आज उसका अर्थ स्पष्ट होता है । जो लोग भूतकाल की खोज करते हैं, भूतकाल के आदर्श की ओर जाते है और आदर्श सामाजिक जीवन भूतकाल मे ही था ऐसी मान्यता रखते है उनकी आँखे सिर के पीछे ही होनी चाहिये और उनके कदम आगे न बढते हुये पीछे-पीछे भूतकाल की ओर ही प्रयाण करते हे गे । हम मानते है कि सब से अच्छा युग भूतकाल मे ही था । उसका ह्रास होते-होते प्राज कलियुग श्राया है। आदर्श धर्म वेदकाल मे ही पाया जाता था । त्रिकालज्ञ ऋपि - मुनि प्राचीन काल मे ही थे । प्राचीन काल का जीवन शुद्ध पवित्र था । प्राचीन काल के लोग नीरोगी थे, बलवान थे, सामाजिक उत्कर्ष के सब नियम जानते थे और उनका पालन करते थे । उनकी शरीरयष्टि ऊँची रहती थी, वे दीर्घायु थे । दिन-पर-दिन वह सारा आदर्श जीवन बिगडता गया । अव लोगो की ऊँचाई भी कम होने लगी है । आगे जाकर लोग और भी वामन बनेंगे, अल्पायुपी बनेगे । भूतकाल ही स्वर्णयुग था । ऐतिहासिक और प्रागैतिहासिक अनुसंधान और उत्खनन द्वारा हजारो वर्षों का जो इतिहास मिलता है उस पर से सिद्ध होता है कि प्राचीन काल के मनुष्य श्राज के जितने ऊँचे नही थे । प्राचीन काल मे मृत व्यक्तियो के शरीर सुरक्षित ढंग से जमीन में गाडने के लिये बडे-बडे पत्थरो मे शरीर की प्राकृति जितना हिस्सा खोदकर उसमे शव को रखते थे और उस पर दूसरी शिला का ढक्कन रख कर पत्थर की वह शव सदूक जमीन मे गॉड देते थे । ऐसी जो प्राचीन सदूके मिली है, उन से पता चलता है कि हमारे पूर्वजो की शरीरयष्टि कितनी ऊंची थी । ईजिप्ट की मम्मी पर से भी पता चलता है कि प्राचीनकाल के लोगो की ऊंचाई आज से अधिक नही थी । जो हो, भूतकाल की भक्ति करने वाले लोगो के लिये भविष्यकाल मे कोई आशास्पद स्थिति है नही । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 महावीर का जीवन सदेश ऐसे लोगो की विचार-पद्धति मै धर्मों का मादर्श स्वरूप भूतकाल में ही था। याज्ञवल्क्य, जनक, अष्टावक्र, गौडपाद, शकर, रामानुज, मध्व, वुद्ध, महाबीर आदि लोगो मे मानवता का पूर्ण विकास हुआ था। उनके आगे अब कोई जा नहीं सकता। वे सर्वज्ञ थे, हम अल्पज्ञ है। वे पूर्ण पुरुष थे । अब वह पूर्णता फिर से पाने वाली नही । इसलिये हमे मान ही लेना चाहिये कि जो कुछ भी श्रेष्ठता कल्पना मे आ सकती है वह इन प्राद्य धर्मसस्थापको मे थी ही। अगर इतिहास कुछ दूसरी बात कहता है तो इतिहास गलत है अथवा उसका अर्थ दूसरे ढग से करना चाहिये । ___ अगर कोई कहे कि आजकल के कोई युगपुरुष प्राचीनकाल के प्रवतारी पुरुषो से भी श्रेष्ठ थे अथवा है, तो उनके लिये ऐसी बात सुननी भी असह्य होगी। धार्मिको की वात दरकिनार, अगर मैंने कहा कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर महाकवि कालिदास से कई दर्जे श्रेष्ठ और प्रतिभाशाली थे तो हमारे लोगो को अच्छा नही लगेगा। हम लोगो ने एक और भी तरीका चलाया है। प्राचीनकाल के श्रेष्ठ पुरुषो को हम ईश्वर का अवतार बनाते है और ईश्वर की सम्पूर्णता का उन पर प्रारोप भी करते है। फिर तो ऐतिहासिक तथ्यो के लिये कोई जगह ही नही रही । राम, कृष्ण, शकर, बुद्ध, महावीर, रामकृष्ण परमहस सब के सब परमात्मा के अवतार ही थे। उनमे कुछ अपूर्णता थी ही नहीं। अपूर्णता का अवकाश ही उनमे कहाँ से हो सके " जो बात धर्ममस्थापको की और अवतारी पुरुषो की, वही बात धर्मग्रन्थो की। उन ग्रन्थो मे सम्पूर्ण ज्ञान और पूर्ण विकसित ज्ञान पाया जा सकता है। उन मे गलती होने की सभावना ही नहीं है। धर्म का पूर्ण विकसित रूप इन ग्रन्थो द्वारा प्रकट हो सके ऐमा ही उनका अर्थ करना चाहिये । जिन लोगो ने ऐसी मनोभूमिका धारण की उनके लिये भविष्यकाल कुछ मानी ही नहीं रखता। अहिंसा धर्म लीजिये। अगर शुद्ध दृष्टि से प्राचीन इतिहास और प्राचीन धर्मग्रन्थो का अध्ययन हम करे तो हमे पता चलता है कि अहिंसा धर्म का प्राकलन कही स्थूल था, कही सूक्ष्म था। उसके पालन मे पहले क्षति ज्यादा होती थी। सामान्य जनता तो प्रमादी ही रहती है। हर एक जमाने के श्रेष्ठ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम भूतपरस्त वने या भविष्य के सर्जक ? 97 पुरुषो के जीवन की तुलना की जाय तो अहिंसा के बारे में भगवान पार्श्वनाथ से भगवान् महावीर आगे बढे हुये ये । याज्ञवल्क्य की अपेक्षा सभव हे, गौडपाद और शकर ऊँची भूमिका पर पहुँच गये थे । टॉलस्टॉय को अहिंसा का जो दर्शन हुआ था, उससे महात्मा गांधी को अनेक गुना ज्यादा स्पष्ट और ज्यादा उज्ज्वल दर्शन हुआ था। लेकिन भूतकाल के उपासक और विभूतिपूजक लोग ऐसी वाते आसानी से मानने को तैयार नहीं होते। वैदिक काल के धर्मग्रन्थो मे वेदांग ज्योतिप भी है। उसके गणित में प्राज हम गलतियाँ देखते है क्योकि वह स्थूल गणित था । धर्मग्रन्थ दोपरहित, निन्ति होते है ऐसा मानने वाले लोगो के लिये वेदांग ज्योतिप की पहेली सोचने लायक है। हमने जैन धर्म के एक भक्त को पूछा, 'जैन धर्म की अहिंसा मे उत्तरोत्तर विकास के लिए कुछ अवकाश है या नही ? क्या इस धर्म के लिए केवल भूतकाल ही है ? भविप्यकाल है ही नहीं?' तब उन्होंने जवाब न देते हुये मुझ ही से सवाल पूछा, 'आपकी राय क्या है ?” मैंने कहा कि जैसे गणित-शास्त्र दिन पर-दिन आगे बढता है और सूक्ष्म वनता जाता है, ज्योतिप शास्त्र में नये-नये आविष्कार होते जाते है और उसका क्षेत्र कल्पनातीत वढ रहा है, वैसे ही धर्मशास्त्र, अध्यात्मशास्त्र अधिकाधिक सूक्ष्म होते जाते है और उनमे पाइन्दा के लिये अभूतपूर्व विकास के लिए अवकाश है। विज्ञान बढता है, वैद्यक शास्त्र बढता है, मानसशास्त्र गहरा होता जाता है, उमी तरह अध्यात्म-विद्या भी बढती आई है और आगे बढ़ेगी। महावीर स्वामी को अहिमा का जो दर्शन हुआ था उससे आगे बढने वाले किसी पुरुप को देखकर महावीर स्वामी को ऐसा ही लगेगा कि अपना जीवनकार्य कृतार्थ हुआ। इस बात को हम इन्कार नहीं कर सकते कि कभी-कभी सारा पुराना जमाना विगड जाता है, धार्मिक श्रद्धा क्षीण होती है, ऐसे अवसर पर अपने श्रेष्ठ पुरुपो का स्मरण करना और उनसे प्रेरणा पाना हितकर ही ह । लेकिन भविष्यकाल के बारे मे अश्रद्धालु बनना केवल नास्तिकता है। सच देखा जाय तो दुनिया के सब के सब धर्म अपना वाल्यकाल पूरा करके प्रौढ अवस्था को पहुँचे है। शायद पूरे पहुँचे भी नही है। धर्म के विकास मे पाँच सौ या हजार वरसो का कोई हिसाव ही नहीं। मनुस्मृति के समाज-शास्त्र मे चन्द बाते जरूर अच्छी होगी, जो आज हम भूल गये है या खो बैठे है। लेकिन हम यह कह नही सकते कि मनुस्मृति मे जो समाज-विज्ञान पाया जाता है वही श्रेष्ठ था या उस मे कोई दोप थे ही Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 महावीर का जीवन संदेश नही । आज अगर मनुस्मृति मे बताया हुआ जीवन फिर से शुरू हो जाय तों समाज-सेवको को, उसकी चन्द बातो के खिलाफ लडना ही पडेगा। धर्मपरायण धर्मप्राण व्यक्तियो को इतना तो समझ ही लेना चाहिये कि भूतकाल की विरासत अत्यन्त कीमती खाद है । उसे खाद्य समझने की भूल हम न करें। अपने पुरुषार्थ से अन्न की नई-नई फसल हर साल पैदा करके उसी अन्न को हम खावे, खाद को नही । हम भूतपरस्त न बने । भविष्य के और सर्जक बनने के लिए हमारा जन्म है और हमारा धर्म भी आवाहक दिन-पर-दिन व्यापक, गहरा और उज्ज्वल बनने वाला है। ३१-१२-१९५७ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नया आध्यात्मिक समाजशास्त्र मनुष्य-स्वभाव मे जो अनेक सद्गुण है उनमे सहयोग और सहकार का सामाजिक महत्त्व बहुत है । बहुत से लोग एक कल्पना से या ध्येय से प्रेरित होकर जब एकत्र काम करने लगते है तब असाधारण शक्ति पैदा होती है । अगर ये लोग केवल एक ध्येय से ही नही, वल्कि एकतन्त्र से चलने लगे, तो उनकी शक्ति करीब-करीब अमर्यादित हो जाती है । यह सहकार शक्ति आज के युग मे ही विशेष विकसित हुई है ऐसा कहा जा सकता है । जब लोग व्यक्तिगत जिम्मेवारी पहचान सकते हैं और सोच समझकर कोई तन्त्र पैदा करके उस तन्त्र के अधीन निष्ठा से वरतने लगते है तब उनका सघ- सामर्थ्य शारीरिक, बौद्धिक और प्राध्यात्मिक तीनो तरफ से सर्वसमर्थ बनता है । पशु मे चन्द पशु जगल मे अकेले अकेले रहते है और चन्द वडे - वडे झुण्ड बना कर रहते है । हिरन, भेडिये यादि प्राणिय के झुण्ड और उनकी तन्त्रनिष्ठा विख्यात है । पक्षियो मे और कीटको मे भी इस प्रकार की समूह निष्ठा दिखाई देती है । चीटियाँ, मक्खियाँ, दीमक श्रादि क्षुद्र लगने वाले कीट भी वडे-वडे समाज चलाते हे । जिस टिड्डी दल के हमले से देखतेदेखते हमारा भारी नुकसान हो जाता है उस टिड्डियों के दल मे भी एक तरह की व्यवस्था होती है । कोट्यवधि टिड्डियां मील के मील फैलती हैं। और एक साथ मिलकर प्रवास करती है । कभी-कभी विलकुल अकस्मात् वे सब की सब अपनी दिशा बदलती है | यह फेरफार कौन सुझाता है ? हुकुम कौन देता है ? और वह सर्वत्र एकदम कैसे फैलती है ? यह एक गूढ रहस्य ही है । , लेकिन क्या पशु पक्षियो और कृमि कीटो की इस समूहवृत्ति को हम सहकारिता कह सकते है ? मनुष्य की सहकारिता मे उसके व्यक्तित्व का विकास होता है । वह व्यक्ति-स्वातन्त्र्य का प्रेमी होता है । समूह से अलग होकर स्वतन्त्रता से जीने की उसमे हिम्मत होती है । उसको मालूम होता है कि तन्त्रनिष्ठा को स्वीकार करने मे व्यक्तिगत जीवन के महत्त्व का भाग छोड देना पडता है । उसके गुण दोप भी वह जानता है। और फिर विचारपूर्वक स्वेच्छा से वह तन्त्रनिष्ठा को स्वीकार करता है । क्या पशु-पक्षियो के टालीधर्म को इस तरह सहकारिता कहना ठीक होगा ? शायद ठीक नही होगा । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 महावीर का जीवन सदेश उनमे व्यक्ति स्वातन्त्य का विकास हुआ है ऐसा कही भी प्रमाणित नही हुआ है । और इसीलिये उनका जीवन वनस्पति जीवन के समान एक ही ढाँचे मे ढला हुआ होता है । उनका जीवन प्रवाह एक ही पात्र मे से बहता है । हिन्दुस्तान में पहले वडे - वडे प्रविभक्त कुटुम्ब होते थे । एक ही कर्ता पुरुष के अनुशासन में तीन-नीन चार-चार पीढियो तक के लोग एकत्र रहते थे । इन सभी के जीवन की सुसूत्रता देखकर आश्चर्य व आदर पैदा होता है । ऐसे कुछ कुटुम्ब आज भी दिखाई देते है | चन्द जाति सस्थाए भी इसी तरह सुचारु रूप से चलती आई है और उनमे असाधारण सामाजिक शक्ति पायी गई है। इन कुटुम्बो की और जातियो की इस समूह वृत्ति को सहकारिता कहे या यह केवल एक टोली धर्म है ? Herd instinct है ? दोनो मे से एक भी पक्ष लेना मुश्किल है । कुटुम्ब निष्ठा मे र जाति-निष्ठा मे वौद्धिक और प्राध्यात्मिक सद्गुणो का विकास होता स्पष्ट दिखाई देता है । इसके विपरीत सहकारिता के मूल मे जो व्यक्तित्व का विकास होना चाहिये वह वहुत ही कम दिखाई देता है । जो वडे - वडे कुटुम्ब चला सकते है या जिनको बडे कुटुम्बो के घटक वनकर रहना साध्य होता है, जाति-निष्ठा के कारण जिन्होने असाधारण जीवनसिद्धि सिद्ध कर बताई है, इतना ही नही, वल्कि धर्म के क्षेत्र मे . जिन्होने साम्प्रदायिक सघ पीढी दर पीढी चलाये है, ऐसे हमारे लोग वदली हुई परिस्थिति मे संघटित क्यो नही हो सकते ? समाज का सकट वे क्यो पहचान नही सकते ? युग-धर्म के अनुकूल सघ कैसे बनाने चाहिये, वह कितने वडे होने चाहिये आदि सघ-विद्या का व्याकरण उनकी समझ मे क्यो नही आ रहा है ? तो फिर क्या आज तक का हमारा साघिक इतिहास केवल एक Herd instinct ही थी ? भगवान् बुद्ध ने सब जातियो मे से शिष्य बनाये और उनका एक सघ बहुत अच्छी तरह से चलाया । इस संघ का प्रकार और उसका इतिहास विनयपिटक मे सविस्तर देखने को मिलता है । जो वैष्णव धर्म सारे हिन्दुस्तान मे फैला हुआ है उसमे मुसलमान आदि अन्य धर्म के लोग भी दाखिल हुए और उनको स्वीकार भी किया गया इतनी व्यापक दृष्टि और सघ-शक्ति का जिन्होने विकास किया वे दुनियाँ मे तरह खो बैठे, यह समाजशास्त्रियो के सामने एक बडा । अपना स्थान किस मुश्किल सवाल है । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नया आध्यात्मिक समाजशास्त्र हमारी कहाँ भूल हुई, उसकी चर्चा हम डेढ सौ साल से करते आये हैं । परस्पर विरोधी उपपत्तियाँ और मीमासा हम सुनते है । लेकिन आज भी नई परिस्थिति के नये प्रादर्शो की नई जीवन-सिद्धि का नया व्याकरण हमने अब तक हस्तगत नही किया है, हृदयगम नही किया है । 101 दुनियाँ को भिन्न-भिन्न महाजातियों और समाजो के इतिहास की छानवीन करके अर्थ शास्त्र, मानव शास्त्र, धर्म शास्त्र, राजनीति, संस्कृतियो का विकास आदि तत्त्वो का अध्ययन करके उसमे से हमे अपना समाजशास्त्र बनाना होगा । पदार्थ विज्ञान, रसायन, वनस्पति-शास्त्र, खनिज विद्या, प्राणी विद्या आदि भौतिक-शास्त्रो का अवलोकन करके उसमे जो कुछ बोध मिलेगा, जो कुछ सूक्ष्म दृष्टि प्राप्त होगी उस सब का लाभ उठाकर अपनी पूर्व परम्परा की बुनियाद पर अध्यात्म-शास्त्र के नियन्त्रण के नीचे हमे अपना नया प्राध्यात्मिक समाजशास्त्र तैयार करना होगा और तदनुरूप जीवन कला का विकास करना होगा। यह सब करने का समय कब का आा चुका है । यह सब कौन कब करेगा ? ८ जुलाई १९५८ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परा किसे कहें ? 'परम्परा निभाये' इसका मतलव क्या ? पुराना सव जैसा का वैसा ही सम्भालकर रखना, उसमे कुछ भी परिवर्तन न होने देना, यही उमका अर्थ है ? हरगिज नहीं। पर यानी पीछे से आने वाला। परम्परा का अर्थ है एक स्थिति छोडकर उसके जैसी दूसरी स्थिति को लेना, आगे चलकर उस दूसरी स्थिति को भी छोडकर उसके साथ मेल खाये ऐमी या उसमे से पैदा होने वाली तीसरी कालानुकूल स्थिति को अपनाना। इसे कहते है परम्परा निभाना । हम मकान मे नीचनी मजिल से ऊपर की मजिल को जाते है तो कूदकर या उडकर नहीं जाते, जीना या सीडी चढकर जाते है । यानि जमीन पर से पहली सीढी पर, पहली सीढी से दूसरी मीढी पर, यो मीढियो के क्रम से ऊपर जाते है। नीचे उतरने के लिये भी कूदते नहीं है, क्रम से उतरते है। सामाजिक जीवन मे ऐसा ही क्रम रहता है। समाज चढे या गिरे, उसकी गति, प्रगति या परागति क्रमश होती है । इसलिये मनुष्य परम्परा निभाकर उन्नति भी पा सकता है और अवनति भी। परम्परा की खूवी दो वस्तुप्रो पर या तत्त्वो पर निर्भर है(1) नित्य परिवर्तन करते हुये भी, (2) पुरानी परिस्थिति या पुराने तत्त्वो से सम्बन्ध या अनुवन्ध न छोडना । दूसरे शब्दो मे कहे तो परिवर्तनशीलता यह एक खूबी और सम्बन्ध अविच्छिन्न रखना यह दूसरी सूवी । ऐसी परम्परा ही प्रगति का उत्तम व्याकरण है । From precedent to precedent daily self surpasses---यह है सूत्र परम्परावाद का। _ 'पुराना छोडना नही और नया लेना नहीं', यह कोई परम्परावाद का सूत्र नही है, यह तो अपरिवर्तनवाद का है । जिन्दा शरीर बढता है, मुर्दा सडता है, दोनो मे से एक भी अपरिवर्तनवादी नही है । परम्पग की खूबी यही है कि उसमे परिवर्तन क्रमश होता है। सिर्फ कान्ति मे नम की बात नहीं है। कोई पुत्र जब पिता की कोठी मम्भालता है तो पिता की पूजी पर साँप की तरह बैठे नहीं रहता। उस पूंजी का उपयोग कर के उमे बढाता है और नये-नये क्षेत्रो मे काम करता है । मिर्फ फर्म का नाम कायम रग्रकर Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परा किसे कहैं । 103 और कार्यपद्धति भी हो सके वहाँ तक वही चालू रखकर वह आगे बढता है । सामाजिक सुधार इसी प्रकार होता है । वालको के शरीर, मन और समझ शक्ति में भी जो प्रगति होती है वह भी परम्परा निभाकर ही होती है । परम्परा यानी क्रमयुक्त प्रगति । ____ यही बात किसी कवि ने कही है कि-बुद्धिमान मनुष्य जब चलता है तब एक पैर स्थिर रखकर दूसरा आगे रखता है, बाद मे उसे स्थिर रखकर पीछे का उठाकर आगे ले जाता है । नयी जगह निहार कर स्थिर करने के बाद ही पीछे की जगह छोडना, इसी मे बुद्धिमानी है । ऐसी बुद्धिमानी के साथ आगे बढना, प्रगति करना तो होना ही चाहिये । ऐसी प्रगति जो धर्म करता आया है उसी को हम सनातन धर्म कहते है । सनातन ही नित्य नूतन होता है। १५ मई १९६६ Page #120 --------------------------------------------------------------------------  Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यावाद की समन्वय शक्ति नया समन्वय त्रिवेणी समन्वय समन्वयकारी जैन दर्शन प्राण और सस्कारिता धर्मों से श्रेष्ठ धार्मिकता धर्म के प्रकार और नये धार्मिक प्रश्न सर्वत्याग या सर्वस्वीकार स्यादवाद की समन्वय शक्ति Page #122 --------------------------------------------------------------------------  Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नया समन्वय जैनो का स्याद्वाद या अनेकान्तवाद कहता है कि सत्य एक ही है, फिर भी देखने वाले की दृष्टि एकागी होने के कारण सत्य का उमे पाशिक माक्षात्कार होता है । एक मनुप्य एक तरफ से देखकर सत्य का एक तरह से वर्णन करता है, दूसरा मनुष्य दूमरी तरफ से देखकर उमी सत्य का विलकुल विपरीत शब्दो मे निस्पण करता है। सांवला मनुप्य बिल्कुल काले मनुष्य के मुकाबले में गोरा मावित होता है और गोरे के माथ तुलना करने पर काला ठहराया जाता है। दिल्ली की दृष्टि में नागपुर शहर दक्षिण की ओर है। पूना के लोग उसे उत्तर की तरफ मानते है । नागपुर मे अगर पूछा जाय तो वह कहेगा, 'मैं अपने विश्व के केन्द्र स्थान में हूँ। 'पोदिच्य या दाक्षिणात्य जैसे विशेपण मैं अपने-मापको क्यो लगाऊँ ? हाँ, उममे कोई शक नही कि पूना मेरी दक्षिण की ओर है और दिल्ली उत्तर की तरफ ।' स्याद्वाद घ्यान मे पाने के बाद बुद्धि और हृदय दोनो समन्वय की दृष्टि स्वीकार करने को तैयार हो जाते हैं । स्याद्वद की दृष्टि कहती है - भाइयो, अपने-अपने अनुभव दुनिया के सामने रखो। लेकिन दूमरे का अनुभव सही या गलत कहने का आपको कोई अधिकार नही है । आपके अनुभव की जड मे आपकी दृष्टि या भूमिका होगी। दूमरे की दृष्टि उसमे भिन्न हो सकती है। अपनी निजी भूमिका पर से उसको जो अनुभव हुअा वह आपसे भिन्न होगा ही। फिर भी वह आप मे कम सच्चा हो, इसका कोई कारण नहीं है । प्रापको जिस तरह अपने अनुभव का विश्वास होता है और आप उसका आदर भी करते है उसी तरह दूसरा भी अपने खुद के अनुभव के बारे मे करेगा ही। मले पाप दूसरे के अनुभव को स्वीकार न करें। उसके बारे मे तटस्थ रहिये । लेकिन दूसरे की दृष्टि के लिए श्रापके मन मे आदर अवश्य होना चाहिये । भिन्न-भिन्न दृष्टि के लिए आपके मन मे आदर अवश्य होना चाहिये । भिन्न-भिन्न दृष्टियो के बारे मे आदर होना समझदारी का और सस्कारिता का लक्षण है। पुराने जमाने मे लोग वाद विवाद करते थे और कहते थे कि जो हार जाय वह दूसरे का शिष्य बने । कई लोग अपना सिर देने को तैयार हो जाते Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 महावीर का जीवन सदेश थे । अाज का मनुष्य अपने प्रतिपक्षी से कहेगा, देखो, मेरी वात' मै तुम्हारे गले नहीं उतार सकता, इतनी मेरी हार मुझे कबूल करनी ही होगी । लेकिन तुम्हारी बात मुझे जंचती नहीं उसका क्या ? इसलिये उचित यही है कि हम अपना परस्पर मतभेद स्वीकार करने को तैयार हो जायें । इस तरह की इस समझदारी से ही शान्तिमय' सहचार मनुष्य-जाति को मान्य होने लगा है। आपका कहना आपको मुबारक, मेरा मुझे । अब हम समझदारी से तय करे कि कोई भी किमी का रास्ता न रोके । चिन्तन करते-करते एक की दृष्टि दूसरे को मान्य होगी तब होगी। सत्य एक ही होने के कारण कभी न कभी एक दूसरे का कहना एक दूसरे को मान्य होना ही चाहिये । तव तक धैर्य रखने की और राह देखने की दोनो ओर से तैयारी होनी चाहिये । कभीकभी उच्च भूमिका पर पहुंचने के बाद ही भिन्न-भिन्न भूमिकाएँ एक पाथ सहज मान्य होती है। हमारे देश मे बौद्ध, जैन और वेदान्त ऐसी तीन धाराये चलती आई है । वेदान्त हमे प्रात्मौपम्य की साधना बताता है और आत्मैक्य का सर्वश्रेष्ठ पुरुपार्थ हमारे सामने रखता है । जीव और जगत् एक ही है, आत्मा और परमात्मा मे कोई भेद नही, सर्वत्र एक ही अद्वैत का अखण्ड स्फुरण हो रहा है यह वात ध्यान मे आने के बाद कौन किसकी हिंसा करेगा ? हर एक हिसा तत्त्वत आत्म-हत्या ही है। इतना समझने के बाद हर एक के लिए अहिंसा स्वाभाविक ही बन जाती है। सम पश्यन् हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् । न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परा गतिम् ।। इस एक श्लोक मे वेदान्त का रहस्य आ जाता है और वेदान्तमूलक प्राचार की नीति भी। जैन दर्शन अनेकान्त की भूमिका पर मे 'केवलज्ञान' की कल्पना करा देता है । 'ईश्वर है या नहीं' इस चर्चा मे वह नहीं उतरता । जीवन-साधना को ईश्वर से क्या लेना-देना है ? तपस्या के द्वारा सब दोपो को जला दिया, स्याद्वाद से दृष्टि को निर्मल किया कि फिर आत्म-साक्षात्कार होगा ही और जीवन भी सार्थक होगा। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नया समन्वय 109 वौद्ध दर्शन कहता है— श्रात्मा और परमात्मा, जीव और ईश्वर की झझट मे आप पडे ही क्यो ? हमारा सम्बन्ध ग्राता है जीवन के साथ । जीवन की उन्नति करना हमारा ध्येय है । हमारा नित्य का अनुभव है कि जीवन दुखमय है । वह दुख वामना के कारण पैदा होता है । वामना-विजय से दुख दूर होकर जीवन शुद्ध होता है। ऐमी जीवन-सिद्धि का मार्ग है-शुद्र जीवन-दृष्टि, शुद्ध सकल्प, शुद्ध प्रवृत्ति, गुद्ध जीविका आदि आठ प्रकार की साधना | हमारा कर्तव्य है जीवन के प्रति । एक वार जीवन शुद्ध हो गया और ग्रहकार का नाश हुप्रा तो फिर जो स्थिति होगी उसी को निर्वाण कहते है | 'निर्वाण परमा पान्ति' प्राप्त करने के लिए मनुष्य को धर्माचरण करना चाहिये । हम ग्राज जिसे धर्म कहते है वह वस्तु बहुत जटिल वन गई है । शास्त्र, पुराण, तरह-तरह के पन्य, त्योहार, व्रत-वैकल्य, श्राद्वादि नम्कार, भूत-प्रेतो की पूजा, दान-धर्म, मदावन-कौन-सी बात का धर्म मे समावेश नही होता ? भगवान् बुद्ध अपने उपदेश मे जिम धर्म का उल्लेख करते थे, उती को हम 'धम्म' कहे । मन पाप कर्मों का त्याग करना, कुशल कर्म करते रहना, चित्त-शुद्धि के लिए प्रयत्न करना, मयमपूर्वक जीवन व्यतीत करना और ग्रहकार छोडकर अन्तिम शान्ति तक पहुँचने की तैयारी करना इसको भगवान् 'धम्म' कहते है । 'कल्याणो धम्मो । धर्म का पालन करने में, अनुशीलन करने से ही व्यक्ति का, समाज र विश्व का कल्याण होता है । श्रायु के स्सी वर्ष तक इस 'कल्याण उसके प्रचार के लिए एक धर्म-सेना तैयार निर्वाण प्राप्त कर लिया । धम्म' का उपदेश करके और करके सिद्धार्थ गौतमबुद्ध ने इस बात को ढाई हजार साल हो चुके । भगवान् महावीर भी उसी समय के थे । ढाई हजार साल के बाद दुनिया के राष्ट्रो की स्थिति का खयाल करते और मानव संस्कृति का तय किया हुया रास्ता देखते श्राश्चर्य होता है कि भगवान् बुद्ध का उपदेश, भगवान् महावीर का उपदेश श्रौर वेदान्त की सिखावन अभी तक 'वासी' नही हुई है और गौडपादाचार्य के अनुसार कहना पडता है कि वाद-विवाद का अखाडा छोडकर समन्वय की उच्च भूमिका पर चलें । हर एक दृष्टि और हर एक भूमिका का सहानुभूति के साथ चिन्तन Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 महावीर का जीवन सदेश करे और ससार के संघर्षों को मिटाकर शान्ति स्थापना की तैयारी करे । निर्विकार प्रेम के बल पर ही यह साधना सिद्ध होने वाली है। इसके लिए जातिभेद, भाषाभेद, सस्कृतिभेद, वणभेद, मतभेद आदि सब भेदो को लाप कर हर एक स्थिति मे मूलभूत विश्वात्मैक्य को पहचानने की साधना सारी दुनिया को करनी है। १२ फरवरी १९५७ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिवेणी समन्वय हर माल महावीर जयन्ती आनी है और हर माल हम वही बाते करते हैं और मानते हैं कि महावीर प्रभु के प्रति हमने अपना कर्त्तव्य प्रदा किया । सुन्ने जब नाविन्य नष्ट हो जाता है और हम कुछ दृष्टि या नई चीज लाने के लेकिन अब तो दस-बीस वरस वही की ही नत्र जब्दी के समारोह मे नई तर को बुलाया जाता है। ऊब से जाते हैं लिए मेरे जैसे से जयन्ती के अवसर पर और पर्युपण पर्व के अवसर पर व्याख्यान देतादेता मैं भी पुराना हो गया हूँ । मैंने कई बार कहा है कि, दो ढाई हजार चर्प के पहले हिना, नयम और तपस्या का सन्देशा मनुष्य जाति के सामने रखकर भगवान् महावीर ने सिद्ध किया कि वे सच्चे अर्थ मे नास्तिक-शिरोमणि हैं । ईश्वर पर विश्वास रखना या शास्त्र पर विश्वास रखना कोई सच्ची आस्तिकता नही है । मच्ची प्रास्तिकता तो यह है कि मनुष्य के हृदय पर विश्वाम किया जाये । ग्रास्तिकता का लक्षण यह है कि मनुष्य विश्वास करे कि किसी-न-किसी दिन मनुष्य अपना स्वार्थी, ईर्ष्यालु या क्रूर स्वभाव छोडकर समस्त मानव जाति का एक विश्व कुटुम्ब स्थापित करेगा और यह कुटुम्ब भाव वढाते-वढाते भले-बुरे सव प्राणिय का उसमे अन्तर्भाव करेगा । प्राजकल के युग मे ग्रास्तिकता इस बात मे होगी कि हम विश्वाम करे कि रशिया और अमेरिका दोनो किसी-न-किसी दिन मानवता के सिद्धान्त को सर्वोपरि होना स्वीकार करेंगे । श्रास्तिकता का लक्षण है कि हम हृदय से मानें कि हिन्दू और मुसलमान भाई-भाई होकर ही रहेगे और हम माने कि पाकिस्तान की नीति भी किसी-न-किसी दिन सुधर जायेगी । प्राज विनोवा जो भूदान का काम कर रहे है वह आस्तिकता का काम है । उनका विश्वास है कि आज के स्वार्थी युग मे भी मनुष्य अपना सर्वस्व दे सकता है | आज के भारत की अन्तर्राष्ट्रीय नीति आस्तिकता का सर्वोत्तम नमूना है । अविश्वास और ईर्ष्या के इम जमाने मे भारत सब-के-सब राष्ट्रो पर विश्वास रखने को तैयार है । इन सव राष्ट्रो का इतिहास और उनकी Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 करतूते हम नही जानते, सो बात नही । हम अपने हम दुनिया से अलग थोडे ही है, तो भी हम कल्याण की ओर प्रस्थान अवश्य करेगा । महावीर का जीवन संदेश दोप भी कहाँ नही जानते ? विश्वास करते है कि मनुष्य आज लोग दुनियो के सामने मानवी प्रेम का, विश्व कुटुम्ब का प्रदर्श रखते सकोच करते है । सिर्फ Peaceful co-cxistence प्रहिंसक सह-जीवन या सहचार की बाते करके ही सतोप मानते है । जब कि भगवान् महावीर ने प्राणी मात्र के प्रति अहिसा का सब प्राणियो के एक परिवार होने का सदेश दुनिया के सामने रखा और विश्वास किया कि इसका स्वीकार भी मनुष्य जानि अवश्य करेगी । इसीलिये मै भगवान् महावीर को प्रास्तिक - शिरोमणि कहता हूँ । लेकिन आज मैं यह पुरानी बात विस्तार के साथ दोहराना नही चाहता । आज मुझे एक कदम आगे बढकर एक नये समन्वय की बात करनी है - Synthesis ौर harmony की बात करनी है । हम सनातनी लोग उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र, और भगवद् गीता को 'प्रस्थानत्रयी' कहते है । और, तीनं मे जो कोई पुरुष एकवाक्यता या समन्वय सिद्ध कर बतावे उसको 'आचार्य' कहते हैं । यह पुरानी बात हो गयी। अनेक श्राचार्यों ने अपने-अपने ढंग से 'प्रस्थानत्रयी' की एकवाक्यता कर दिखाई है और हमारे जमाने मे कई विद्वानो ने इन सब आचार्यों के बीच भी सामजस्य स्थापित कर दिखाया है। शकराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, निम्बार्क आदि आचार्य जो कहते है वह एक-दूसरे का मारक नही है, किन्तु समर्थक है, ऐसी भूमिका पर हम पहुँचे है । और, इसी कारण भारतीय दर्शनशास्त्र एक नई समृद्धि पा सका है । अब हमे सस्कृति समन्वय की दृष्टि बढाकर अपने देश के लिए तीन धाराओ का समन्वय करना आवश्यक हो गया है। बौद्ध दर्शन, जैन- दर्शन, और वेदान्त दर्शन आपस मे चाहे जितना विवाद करें, सस्कृति की दृष्टि से इन तीनो मे सुन्दर समन्वय देखना आज का युग - कार्य है । बुद्ध भगवान् को हम इस युग के अवतार मानते है । बुद्ध भगवान् ने अपने जमाने के दार्शनिक झगडे को देखकर लोगो से कहा कि भले आदमी, इस आत्मा-परमात्मा की झझट मे मत फँसो । आत्मा-परमात्मा अगर हैं तो अपने स्थान पर सुरक्षित Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिवेणी समन्वय होगे, हमे उनकी चर्चा मे नही पडना है । हम केवल 'धम्म' को मानते है । उसी के पालन मे अपना कल्याण देखते है । 'धम्म' के मानी है सदाचार का सार्वभौम नियम | 'धम्म' ही सच्चा सत्पुरुष धर्म है । बुद्ध भगवान् का कहना था कि मुझको भी 'धम्म' का ही प्रतीक समझो– 'यो म पश्यति सो धम्म पश्यति यो धम्म पश्यति सो म पश्यति ।' 'कल्याणो धम्मो ।' बुद्ध भगवान् के प्रार्य अष्टांगिक मार्ग का प्रचार जगत् के विशाल क्षेत्र मे और अधिकाश मानव जाति मे स्थूल रूप से हो चुका है । 113 बुद्ध भगवान् के समकालीन भगवान् महावीर ने भी ऐसा ही एक युग-सन्देश दे दिया । ययाति जैसे सम्राट् ने अपने सौ लडको का यौवन अनुभव करने के बाद और हर तरह के विलास मे डूबने के बाद कहा था"इस सारी दुनियाँ मे जितने चाँवल है, गेहूँ है, तिल है - यानी साधन सम्पत्ति है - और जितने भी दास-दासियाँ है, एक आदमी के उपभोग के लिये भी पर्याप्त नही है, इसलिये भोग-विलास को बढाते मत जाओ, मयम करना सीखो ।” भगवान् महावीर ने भी यही तपस्या का व सयम का मार्ग सिखाया । उन्होने यह भी कहा कि मनुष्य का अनुभव एकागी होता है, दृष्टि एकागी होती है, इन सब दृष्टियो के समन्वय से ही केवल सत्य का, सम्पूर्ण सत्य का ज्ञान होगा | भगवान् महावीर ने यह भी बताया कि लोभ और वासना पर विजय पाने के लिये और सर्व कल्याणकारी समन्वय दृष्टि प्राप्त करने के लिये श्रात्म-शक्ति बढानी चाहिये । स्याद्वाद या अनेकान्तवाद को मैने बौद्धिक हिंसा का नाम दिया है । जिस तरह peaceful Co-existence राजनीतिक सामाजिक अहिंसा है, उसी तरह एकान्तवाद बौद्धिक अहिंसा है । इस एकान्तवाद को परिपूर्ण समन्वय का रूप दिया भगवान् गौडपादाचार्य ने । लोग उन्हे अद्वैताचार्य कहते है । मैं उन्हे समन्वयाचार्य कहता हूँ । वेदान्त की सर्व - सग्राहक दृष्टि का वर्णन करते हुये उन्होने कहा कि "और दर्शन आपस मे लड सकते है, हमारा किसी से झगडा नही है । हम ऐसी भूमिका पर खडे है कि जहाँ से हम सब दर्शनो की खूबियाँ देख सकते है । इसलिये हम सब को स्वीकार करते हैं और उनकी व्यवस्था भी कर सकते है ।" यह वेदान्त दर्शन आज दुनिया के दार्शनिको मे अधिकाधिक प्रतिष्ठा पाने लगा है । यह दर्शन कहता है कि "धर्म" की स्थापना श्रात्मशक्ति से ही होगी जरूर, लेकिन उसकी बुनियाद मे विश्वात्मैक्य भाव होना Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 महावीर का जीवन संदेश चाहिये । सब की आत्मा एक है । सब राष्ट्र, सब जातियाँ, सव महावश (रेसेज) एक ही है । इनमे, हम द्वैत चलायेगे तो मानव जाति का जीवन विफल होगा । गोरे और काले, लाल और पीले और हमारे जैसे गेहुएँ सव एक ही आदि मानव की सन्तान है । रग-भेद, भाषा-भेद, धर्म और देश-भेद से हमारा अद्वैत, हमारा ऐक्य टूट नही सकता । यह है वेदान्त धर्म की सीख । कोई शुद्ध पुण्यवान नहीं, कोई शुद्ध पापी नही, सारी दुनिया सद् और असद् से भरी हुई है, और इसलिये उसमे अद्वैत यानी ऐक्य है । यह है सच्ची दृष्टि । कुछ दिन हुये मैं भोपाल, भेलसा और साची की ओर गया था। भौगोलिक दृष्टि से यह प्रदेश भारत के केन्द्र मे है । बौद्ध धर्म के समर्थ प्रचारक सारपुत्त ओर मोग्गलान के कारण यह एक तीर्थ स्थान है ही। भगवान् महावीर के परम कल्याणमय उपदेश का प्रचार इस प्रदेश मे कम नही हुआ है । और, वेदान्त का प्रचार तो भारतवर्ष के जरै-जरे मे पहुंच गया है। भारतवर्ष के हृदय के समान उस स्थान को देखकर मेरे मन में यह समन्वय की नयी 'प्रस्थान-त्रयी' विशेष रूप से स्पष्ट हुई । अनेकान्त का सन्देशा समझने वाले लोगो को चाहिये कि वे इस स्थान पर ऐसी एक प्रचण्ड प्रवृत्ति बो दे कि जिमका प्रकाश सारे भारत मे ही नही, दशो दिशामो मे फैल जाये । आज का युग समन्वय का युग है । महावीर की जयन्ती के दिन हम सकल्प करे कि बौद्ध, जैन और वेदान्त इस त्रिमूर्ति की हम अपनी सगम-सस्कृति में स्थापना करेंगे और भगवान् महावीर की कृपा से सर्व-धर्म-समन्वय का भी अनुशीलन करेंगे। २२-४-५६ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वयकारी जैन दर्शन बौद्धदर्शन, जनदर्शन, वेदान्तदर्शन इन तीनो का अगर हम ममन्वय कर सके तो हमारी तमाम दार्शनिक कठिनाइयां दूर हो जायेगी। ममन्वय के इम प्रयास मे हमे अधिक मे अधिक महायता मिलनी है जनदर्शन से इमका कुछ चिन्तन करें इसके पहले हम इन तीनो की भूमिका फिर मे थोडे मे समझ ले। हमने कहा ही है कि तत्त्व ज्ञान के क्षेत्र मे जितने भी दर्णन है, जीवन-रहस्य को ढूंढने की और जीवन की सफलता पाने की कोशिश करते है । इनमे वौद्धदर्शन का कहना है कि जीवन की गुत्थियां हल करने के लिये हमे प्रात्मा, परमात्मा, परब्रह्म आदि तत्त्वो की तनिक भी जमरत नही है । हमारा जीवन है, उसके राग-द्वेप है, उनको प्रेरणा देने वाली तृष्णा याने वासना है, इनके पीछे "मैं हूँ, मैं हूँ" इस प्रकार अपने अस्तित्व का अनुभव कराने वाला अहकार है । इनका स्वरूप ममझने से हम देख सकते है कि जीवन जैसा हम जी रहे है, दुःखपूर्ण है । तृप्णा दूर करो, अहकार को खत्म करो (अस्मि मानस्म यो विनयो) तो जीवन मे मुख ही मुख है, गान्ति और सन्तोप है, जो हमारे साथ स्थायी रूप मे रहेगे । इस दोप-मुक्त स्थायी शान्ति को बौद्ध 'निर्वाण' कहते है। जैनदर्णन के अनुसार परमात्मा-परब्रह्म की तो कोई दार्शनिक आवश्यकता हे ही नही, किन्तु आत्मा को मानना जरूरी है । जिम अवस्था को वौद्ध लोग 'निर्वाण' कहते है, उसे जैन परिभापा 'केवलज्ञान' कहती है । केवलज्ञान ही सम्पूर्ण ज्ञान है, वह जव तक नही हुना, मनुष्य के जीवन का प्राकलन एकागी ही रहता है । जब एक अग से देखता है, तब उसे जीवन के एक अग का साक्षात्कार होता है । दृष्टि दूसरी ओर चलायी तो उसी चीज का दूसरी वाजू से किन्तु एकागी दर्शन होता है । सोचने के जितने तरीके उतने अलग-अलग दर्शन बनते हैं । इसको जैनदर्शन सप्तभगी-न्याय कहता है और उदाहरण देता है सात अन्धो को स्पर्श से हाथी का जो दर्शन होता है, उसके कारण उनके बीच कमा झगडा हुया । पाँव को स्पर्श करने वाला अन्धा कहता है हाथी खम्मे के जैसा है, हाथी के पेट को स्पर्श करने वाला Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 महावीर का जीवन सदेश अन्धा कहता है हाथी छत के जैसा है, सूढ को पहचानने वाला हाथी को अजगर की उपमा देता है और हाथी के कान तो सूप के जैसे है ही। वे सव अन्धे, जहाँ तक उनका ज्ञान था, सही थे । लेकिन एक देश को सर्व देश समझाने की भूल वे करते थे । जैनियो का स्याद्वाद इन सब की एकागिता वताकर अन्धं के झगडो को मिटा देता है । स्याद्वाद नही कहेगा, खम्भा, छत, अजगर और सूप एक ही चीज है, सव अन्धो का अनुभव एक ही है, झगडा केवल शब्दो का ही है । स्याद्वाद अन्धो के वचनो मे एकवाक्यता लाने की कोशिश नहीं करता। स्याद्वाद कहेगा, इन अन्धो के अनुभव मे एकागिता होने से उनके वचनो मे परस्पर विरोध स्पष्ट है। अगर इन अनुभवो को दृष्टि दी जाये और उनको सारे पूरे हाथी का दर्शन हो जाय तो सब हँस पडेगे और कहेगे, हम क्यो दूसरो के अनुभव को तोडने गये थे । सबकी बात सही है, सिर्फ गलत है विरोध की कल्पना । यही खूबी है समन्वयवृत्ति की। समन्वय कहता है कि जीवन एक अद्भुत वस्तु है । इसका साक्षात्कार सब को अखण्ड होता ही रहता है, किन्तु आकलन की मर्यादा के कारण अथवा भूमिका मे स्थूल-मूक्ष्म श्रादि भेद होने के कारण आकलन मे फर्क आता है। उसे दूर करने का काम समन्वय का है । समन्वय ही मनुष्य को जीवन का सम्पूर्ण-परिपूर्ण ज्ञान पाने में मददगार होता है । __ कोई ऐसा नही समझें कि हमारे समन्वय से हम एकदम अन्तिम ज्ञान तक पहुंच जाते है। समन्वय से इतना तो बोध होता ही है कि ज्ञानप्राप्ति क्रमश होती है। हमारी साधना जैसे बढती है, अनुभव का क्षेत्र अधिकाधिक होता है, व्यापक, गहरा और विशाल होता जाता है । एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट होगी। एक सीधे रास्ते पर से एक मोटर दूर से हमारी ओर पा रही है। प्रारम्भ मे मोटर का दर्शन विल्कुल सूक्ष्म, एक विन्दु के जैसा होता है । जब मोटर नजदीक आती है, तब मोटर का धब्बा बनता है और नजदीक प्रा गई तो हम पहचान सकते है, मोटर' का ही वह आकार हे । हम मोटर को ही देखते है । लेकिन उसके और नजदीक आने पर मोटर के भिन्न-भिन्न हिस्सेअवयव दीखने लगते है। मोटर का साक्षात्कार बढता जाता है। मोटर नजदीक आने पर उसका पूर्ण दर्शन होता है । उसके अन्दर बैठने वाले कौन Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमन्वयकारी जैन दर्शन 117 उनगेनीम पहनान । प्राधिर जब परमपन्दर जाकर ठो है. नवा मोटर मंही नारी, पनुभर रोने ना है। मोट,हमारी मेरा है । म उगो नाम उठी गाने ग्यागोर पोर उगी गनि पब मारी गनि हु... नाना क्षागारोगा। जीया नाक्षागार को भी जो किरा पोर जग नमन्वयवृत्ति हर हमें मगारानी।। चौदिर क्षेत्र में न्याः नमा मिसा, सग पोटारसा। यह हा गयी बोकिर पा । समय पाटिसा समजाना है रिग नियमनी नीलिम पहिमाग में जर मगर मागे मी HIT . Tय उमीनातिना नष्ट होनी । पौरपहिया-ती वाता। जामान पा गरी पाप-पर-नारी नष्ट होना। फिर गौर गिरी गा करना' अगर रम हिमा परें नो र प्रपती री हिमानी। म्यागर प्रौर मनमगी न्यायम गमय में किस वोटिस भूमिका देने है । पोर पी भूमिका में शुद मान्न की पोर जाती है। अगर न सन पर शशि पन प्रेकर और जीया प्रेग्नि मागाहार निधन प्रपन गो मानिनी पंगा पोर ममन्वय मा पिकाग करेगा तो ममम्न दुनिया की प्राज मो मय गो गा ममम्गायेंन गे पो दृष्टि और प्रति उनमें प्रारंगी। जैन दर्शन पौर वेदान्त दर्शन पम्पर पूग्गा है, पोषक हैं। समन्वय निये दोनो अत्यन्त प्रावश्यमा ६ दलना गाक्षाकार होगा नब हम प्रागानी मे पागे यन गफेंगे । १ घस्नूपर १९६५ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राण और सस्कारिता धर्म का प्रयोजन जीवन के विकास के लिये-जीवन-शुद्धि और जीवनसमृद्धि के लिये है, इतना तो हमने देख लिया । असली वस्तु जीवन है। उसे कृतार्थ करने के लिये धर्म की प्रवृत्ति है। जीवन का आधार है प्राण । प्राण व्यक्तिगत भी होता है और सामुदायिक भी होता है । इस प्राण की अदम्य स्फति के कारण जीवन अखण्ड चलता आया है। जीवन मे अगर प्राण (Vitality) है तो धर्म मे प्रयोजन है, सयम है। इस सयम का अगर योग्य उपयोग किया तो प्राण-शक्ति बढती है, घटती नही। जिस तरह लगाम खीचने से घोडा अधिक जोर से दौड सकता है अथवा जिस तरह भाप (Steam) को कोठी मे वद करने में शक्ति हासिल होती है उसी तरह सयम के द्वारा प्राण-शक्ति का कार्य वढता है, प्राण-शक्ति कार्य-समर्थ होती है। सामान्य रूप से स्वीकार करना पड़ेगा कि सस्कारिता बढने पर प्राणशक्ति कुछ सौम्य होती है, कुछ क्षीण भी होती है, लेकिन अधिक कारगर होती है। अगर जीवन-शक्ति को अनिरुद्ध काम करने दिया तो उस मे जोश आता है । लेकिन वह कार्य कृतार्थ नही होता। अगर सयम की मात्रा हद से ज्यादा वढाई तो प्राण क्षीण होता है, अथवा उसमे विकृति आती है। जब धर्म अपनी जीवन-निष्ठा छोड सिद्धान्तनिष्ठ बनता है तब उस से जीवन-शुद्धि का काम कुछ हद तक अच्छी तरह से होता है । लेकिन सारा-कासारा समाज उस के तकाजे को न कभी मान सकता है, न निभा सकता है। प्राकृत लोग कहते है कि 'धर्म का सिद्धान्त तो ठीक ही है, बुद्धि उस को स्वीकार भी करती है। लेकिन जीवन उस के लिये तैयार नही है । जो लोग सर्वोच्च सिद्धान्त का पालन कर सकते है, वे महात्मा है। उन की श्रेष्ठता हम मजूर करते है। हम अल्पात्मा है। हम आदर्श तक नहीं पहुंच सकते । आदर्श तक पहुँचने का हमारा अधिकार भी नहीं। हम महाव्रत का पालन भी नही कर सकते, अणुव्रत से सतोप करेगे।' Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राण और सस्कारिता 119 इस तरह धर्म में अधिकार भेद आ गया और समाज मे ऊँच-नीच श्रेणी बंध गई। जिनका मर्वमान्य ग्रादर्श एक है, किन्तु अनुशीलन-शक्ति कम या अधिक है, वैमे ही लोग ऊँच-नीच की श्रेणी-व्यवस्था खुशी से मान्य करते है । जब ऐसा नही होता तव समाज मे दम पैदा होता है । लोग सिद्धान्त का पालन न करते हुए भी ऊपर से बताते है कि वे उस का पालन कर रहे है। तीसरा मार्ग पर्याय-धर्म का है । जब मनुष्य फाका रखने का व्रत लेता है लेकिन भूखा नहीं रह सकता, तब माहार का अर्थ करता है धान्याहार और फलाहार करने पर व्रत-पालन का सतोप मानता है । अगर मास का यज न कर सका तो माप का यज्ञ करके पिप्ट पशु का बलिदान देंगे । ऐसा पर्याय-धर्म चलाने में धर्म निष्प्रभ होता है और उसका फल नही मिलता। मनुस्मृति ने साफ कहा है कि प्रधान धर्म का पालन करने की शक्ति होने पर भी जो मनुष्य आपद्धर्म का आश्रय लेता है उसे धर्म-पान का फल नही मिलता। प्राण और सस्कारिता दोनो का यथाप्रमाण मिश्रण करने से मनुष्य का उत्तम विकास होता है । अपनी शक्ति की अपेक्षा कडे धर्म का पालन करने से वह निष्फल होता है । ऐसे आदमी को गीता ने मिथ्याचारी कहा है । केवल प्राण को समझने वाले को असुर कहा है। केवल सयम को प्रधानता देने से मनुष्य ऋपि मुनि की कोटि प्राप्त करता है। जो दोनो का समन्वय करता है, वही सामाजिक दृष्टि रखने वाला धर्मकार, समाज-धुरीण बनता है । वह हर चीज की मर्यादा जानता है और समाज के कल्याण की भावना मन मे रखकर लोगो का नेतृत्व करता है । अाज ऐसे समाज-धर्म की सब से वडी आवश्यकता है । उसी से धर्म-तेज प्रकट होगा और सब का कल्याण होगा। यह काम करने वालो को प्राचार्य कहते है । सब शास्त्रो का निरीक्षणपरीक्षण करके उस मे से अपने जमाने के समाज के लिये हितकर भाग जो इकट्ठा करता है (प्राचिनोति हि शास्त्रार्थम् ), उस के बाद ऐसे लोकहितकारी धर्म की जो समाज मे स्थापना करता है (प्राचारे स्थापयत्युत), और उस धर्म का लोग श्रद्धापूर्वक पालन करें इसलिये, और अपने कल्याण के Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 महावीर का जीवन सदेश लिये भी, निष्ठा और दृढता के साथ उस धर्म का स्वय पालन करता है (स्वय पाचरते वस्तु ), ऐसे समाज-नेता को प्राचार्य कहा है । ( स प्राचार्य प्रचक्षते)। समाज का प्राण वढे, उस की सस्कारिता मे उत्तरोत्तर वृद्धि हो और सामाजिक जीवन के आदर्श तक मनुष्य पहुँच जाय इसलिये जो धर्म की स्थापना करता है, प्रचार करता है और आचरण करता हे ऐसो के द्वारा ही युग-धर्म कृतार्थ हो सकता है। 'प्राचिनोति हि शास्त्रार्थ, आचारे स्थापयत्युत । स्वय आचरते यस्तु, स आचार्य प्रचक्षते ॥ २६-३-५७ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मों से श्रेष्ठ धार्मिकता "केवल नीति का उपदेश करने में दुनिया मदाचारी नहीं बनती। धर्म-तेज प्राप्त करना केवल बुद्धि का प्रयोग नहीं है। उसके लिये श्रद्धा, निप्छा तो चाहिये ही, इतना ही नहीं किन्तु जिन्हें अतीन्द्रिय भान है ऐसे कोई ऋषि-मुनि, गुरु, पैगम्बर के वचन पर, उसके दिये हुए ग्रन्थ पर अनन्य निष्ठा चाहिये । अपनी बुद्धि का प्रामाण्य चलाने में सतग ह मलिए शाम्य का प्रामाण्य कबूल करना चाहिये । शाम्य-वचन पर श्रद्वा-निप्ठा रखकर ही मनुप्य प्राध्यात्मिक मार्ग में प्रगति कर मकता है और साक्षात्कार तक पहुँन सकता है।" यह है भूमिका धर्मनिष्ठ लोगो की। श्री राजगोपालाचारी कहते है कि गेमी धर्मनिष्ठा के माथ अगर मकुचितता और एकागिता पाती हो तो उसे वर्दास्त करके भी धर्मनिष्ठा का पक्ष मजबूत करना चाहिए। सच्ची धर्मनिष्ठा के साथ सकुचितता और एकागिता रह सकती है, लेकिन कभी भी जोर नही पकडती । अनुभव बढने पर एकागिता और मकुचितता पाप ही आप गल जाती है । क्योकि एकागिता और मकुचितता असल मे अधार्मिक चीजें है। धर्मनिष्ठा के साथ उनका कायम का मेल बैठ नही सकता । आज की दुनिया में धर्मनिष्ठा कम पाई जाती है। काफी मात्रा में पाये जाते है-धर्माभिमान और धर्मान्धता । अथवा यह कहना ठीक होगा कि असल मे लोगो में होते है एकागिता, सकुचितता, दुरभिमान और असहिष्णुता । ये चारो चाण्डाल अपना राज्य मजबूत करने के लिये जिन-जिन चीजों का सहारा लेते है, उनमे मुख्य चीज है धर्माभिमान। धर्मान्धता की मदद से अमहिष्णुता. व द्वे पवुद्धि जोर पकडती है । जिस जमाने मे जीवन-शुद्वि कम होती है उस जमाने मे प्रेम, सेवा, सहयोग और ममन्वय वाला सद्गुण-चतुष्टय क्षीण होता है । अभिमान, मत्सर, अविश्वास और शत्रुत्व जैसे इन दोपो को प्रश्रय मिलता है और मनुष्य मानता है कि यही है उसकी धर्म-सेवा की पूंजी। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 महावीर का जीवन सदेश अब सवाल उठता है कि क्या शास्त्र निष्ठा, ग्रन्थप्रामाण्य, गुरुवचन के प्रति अन्धश्रद्धा और सनातन कढि के प्रति पक्षपात ये मव धर्म-वृद्धि के लिए सचमुच आवश्यक है ? जिस देश में एक ही धर्म चलता है, जहाँ का समाज एकजिनसी है, वहां ऐमी मकुचित श्रद्धा और निष्ठा शायद खतरनाक नही भी हो। लेकिन जिस देश में (और जिस दुनिया मे) अनेक धर्मों का साहचर्य है वहाँ पर या तो हरेक मनुष्य अपने-अपने धर्म का अभिमान के साथ पालन करे और समयसमय पर और धर्मों के साथ झगडे चलाने की तैयारी रखे अथवा सव धर्मों के प्रति सद्भाव रखकर अपने-अपने धर्म का पालन करे। धर्माभिमानी लोगो के लिए यह दूसरो वात कठिन होती है। अपने विचारो से या रिवाजो मे जिनका मेल नही बैठता, उनके बारे मे सहानुभूति रखना उनके लिये कठिन होता है। पूरी शक्ति लगाकर कोशिश करे तो वे सहिष्णुता तक जा सकते है । जो चीज नापसन्द होते हुए भी जिसका नाश करना मुनासिव नही है उसी को हम सहन करते है । जिसे सहन करते हे उसे मन मे वुग तो मानते ही है । ऐमी हालत में मेल-जोल होना, प्रेम-सम्बन्ध वढाना तभी शक्य होता हे जब हम भेद के तत्वो को गौण मान सकते है, उमका महत्त्व कम करते है। यह तभी बनेगा जब हम अपने धर्म की छोटी-छोटी बातो का महत्त्व कम करते है और मानवी सम्बन्ध के महत्त्व को बढाते है। धर्माभिमान यह कैसे सहन करेगा ? अभिमान चीज ही कृत्रिम है। इसलिये उसके खजाने मे कृत्रिम चीजे बहुत रहती है। सच्चा रास्ता यह है कि जब ईश्वर की दुनिया मे अनेक धर्म है और उनके अनुयायी हमारे जैसे होते हुये भी भिन्न-भिन्न वस्तुप्रो पर, परस्पर विरोधी वस्तुओं पर कम या अधिक श्रद्धा रखते है, तब हमे उन सब बातो को सहानुभूति के साथ समझने की कोशिश करनी चाहिये । __ पशु के बलिदान के जैसा रिवाज हमे पापमूलक और घृणित लगे तो उसके प्रति आदर हो नहीं सकता । लेकिन बलिदान के पीछे जो अर्पण भावना है, ईश्वर-भक्ति है, त्याग वृत्ति है उसकी ओर ध्यान देने की और उसका आदर करने की शक्ति तो हमारे पास होनी ही चाहिये। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मों से श्रेष्ठ धार्मिकता 123 और जो लोग श्रद्धा-भक्तिपूर्वक पशु को बलिदान चढाते है, उनको पशु-हत्या का तनिक भी बुरा न लगता हो तो भी जिनको कुरा लगता है उनका भाव समझने की और उनके हृदय की वेदना की कद्र करने की शक्ति होनी चाहिये । ___ इसके मानी ये हुए कि मनुष्य को भिन्न-भिन्न विचार और परम्पर विरोधी भावनाये समझने की और उनके साथ सहानुभूति रखने की शक्ति होनी ही चाहिये । यह तभी हो सकता है जब मनुष्य सभी धर्म-ग्रन्थ और सभी धर्म-सस्थापको के प्रति आदर रखे । और, यह भी तभी बन सकता है जब हरेक धर्म की छोटी-छोटी और गौण वस्तु के प्रति आदमी उदासीन वन जाये सर्व-धर्म-समभाव के माथ अपने धर्म की खामियां और उसकी कमजोरियां समझने की और उनका स्वीकार करने की शक्ति भी होनी चाहिये। अनेक देशो के कानूनो का तुलनात्मक अध्ययन करने वाले के पास एक सार्वभौम मर्वसामान्य कानूनी दृष्टि खडी होती है। फिर वह उम (Jurisprudence) को ही-सार्वभौम न्यायदृष्टि को ही-प्रधानता देने लगता है और सब देशो के कानूनो की कद्र करते हुए और उस-उस देश में वहाँ के कानूनो का पालन करते हुए, वह अपनी भूमिका उच्च रस मकता है। ऐसे मनुष्य की श्रद्धा-भक्ति कुछ हद तक-काफी हद तक बुद्धिप्रधान ही होती है । नीति और सदाचार के कानून कभी-कभी सापेक्ष (relative) और साकेतिक (conventional) होते है। यह समझकर उनसे ऊपर उठने का कर्तव्य वह स्वीकारता है । ऐमे उदार व्यक्ति की धर्मनिष्ठा अन्धी न होने के कारण, एकागी लोग उमे शिथिल भी कह सकते है। लेकिन मत्यप्राप्ति का और आध्यात्मिकता वढाने का वही तरीका है। सर्वधर्म-समभाव के साथ पक्षपात-राहित्य आ ही जाता है । क्योकि मनुष्य धर्मों को पहचान कर उनमे रही हुई धार्मिकता पाता है और इस चीज का साक्षात्कार करता है कि सार्वभौम धार्मिकता धर्मों से भी श्रेष्ठ है। २८ मई १ ५७ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म के प्रकार और नये धार्मिक प्रश्न आज तक लोग धर्म के दो विभाग करते थे । वशमूलक और सिद्धान्तभूलक । हिन्दू, पारसी और यहूदियो के धर्म वशगत धर्म है। यहूदी जाति मै जन्मा हुया मनुष्य ही यहूदी हो सकता है। हम लोग उस धर्म मे प्रवेश नही कर सकते । पारसियो का धर्म भी ऐसा ही है। आदमी जन्म से ही पारसी धर्मी हो सकता है। हिन्दू धर्म प्रधानतया वैसा ही है। किन्तु हिन्दूधर्म की चन्द शाखाएँ ऐसी है जो धर्मान्तर के द्वारा लोगो को अपने में ले सकती है। आर्यसमाज, ब्राह्मसमाज और वौद्धधर्म इस प्रकार के है । कोई अग्रेज या चीनी आदमी भी आर्यसमाज में दाखिल हो सकता है । और फिर हम ऐसे आदमी को हिन्दू कहने के लिए बाध्य हो जाते है । बौद्धो का ऐसा ही है। कोई भी हिन्दू के बौद्ध होने पर उसका हिन्दुत्व मिटता नही । कोई जर्मन या अग्रेज जव वौद्ध धर्म में आता है-ऐसे कई उदाहरण है-तब उसे हम जरूर हिन्दू ही कहेगे । किन्तु बौद्ध धर्म दुनिया मे इतना फैला हुआ है कि वर्मा, सिलोन, थाइड, श्याम, कम्बोडिया, चीन और जापान के बौद्वो को शायद हम हिन्दू नहीं कहेगे। जव कि नेपाल और भूटान के बौद्ध लोग हमारे मन मे हिन्दू ही है और मै तो तिब्बत के वौद्धो को भी हिन्दू ही कहूँगा। जाति या वश के ऊपर निर्भर रहने वाले इन धर्मों को अंग्रेजी में 'ethnic religion' कहते है। इसके विपरीत जो धर्म सिद्धान्त-समूह, धर्म-सस्थापक और धर्म-ग्रन्थ पर आधार रखते है उनको कहा जाता है creedal religion | दुनिया के सब लोगो को वे आमत्रण देते है कि तुम्हारा उद्धार हमारे ही द्वारा होगा, हमे स्वीकार करो। बुद्ध भगवान् ने अपने धर्म को 'एहि पश्येक' धर्म कहा है । 'आयओं और देखो। जच जाय तो स्वीकार करो।' वौद्ध-धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम इस प्रकार के धर्म है। स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका जाकर हिन्दू धर्म का नही किन्तु वेदान्त धर्म का प्रचार किया। वेदान्त के सिद्धान्त जिसे मान्य है बह Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म के प्रकार और नये धार्मिक प्रश्न वेदान्ती हो सकता है। अमेरिका मे इस वेदान्त का प्रचार हुआ । लेकिन उसका कोई अलग पन्थ नही हुआ । 125 जैन धर्म हिन्दू धर्म का ही एक रूप है । जैन समाज हिन्दू समाज के चाहर नही है । जैन संस्कृति हिन्दू संस्कृति का अविभाज्य अंग है । हिन्दू समाज अमर जैन संस्कृति को छोड देगा तो उसे अर्धाङ्ग याने लकवा होगा । जैन मत का प्रचार अकसर भारत मे ही हुआ । इसलिये वह सिद्धान्तनिष्ठ होते हुए भी वस्तुत वशनिष्ठ ही रहा है। दुनिया के किसी भी देश का, किसी भी Race यानी वश का आदमी, तीर्थकरो की नसीहत को स्वीकार करके जैन बन सकता है । लेकिन वैसा प्रयत्न किसी ने किया नही है । सिक्खो का भी ऐसा ही है । धर्मो का यह जो पुराना द्विविध वर्गीकरण है, उसका मैंने यहाँ तक वर्णन किया । पश्चिम के लोगो को ऐसे वर्गीकरण पसन्द होते है । लेकिन आज मैं एक नये ही ढंग से धर्मो का वर्गीकरण करना चाहता हूँ । मेरा वर्गीकरण त्रिविध है । पहले वर्ग मे ऐसे सच धर्म आते हैं जो ईश्वर केन्द्रिक है। यहूदी धर्म, ईसाई धर्म, इस्लाम, हमारा वैदिक धर्म, वैष्णव धर्म, ब्राह्म धर्म ये सब ईश्वर केन्द्रिक है । दूसरा वर्ग है आत्म केन्द्रिक धर्म । इसका उत्तम नमूना है जैन धर्म | इस सृष्टि का सर्जनहार कौन है ? इसका नियन्ता तो कोई होगा ही ऐसी तर्क-प्रणाली मे वे फँसते नही । वे कहते है कि आत्मा है । उसकी शक्ति श्रमर्यादित है । तपस्या के द्वारा यह शक्ति बढ़ाकर मनुष्य को अपना उद्धार करना है । यह है इस धर्म की मान्यता | आत्मशक्ति बढाने का तरीका है अहिसा तप और ज्ञान । इसी से मनुष्य को केवलज्ञान प्राप्त होता है और वह मुक्त हो जाता है । धर्मो का तीसरा प्रकार है जीवन - केन्द्रिक | इस वर्ग के धर्म आत्मा को या परमात्मा को नही मानते । वे मानते है जीवन को । व्यष्टि और समष्टि के सस्कार को । उनका कहना है कि सम्यक् ज्ञान और चारित्य के _द्वारा मनुष्य अपने दोषो को क्षीण करता है और निर्वाण को प्राप्त कर सकता है । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 महावीर का जीवन सदेश बौद्ध धर्म का यह हुअा प्रधान स्वरूप । महायान पन्य ने इस स्वरूप का विस्तार बहुत किया है। मेरा अभिप्राय है कि साम्यवादी समाज जब धर्म का प पकडेगा तब उसे इसी वर्ग में दाखिल होना पड़ेगा। साम्यवादी लोग ईश्वर को, आत्मा को और इन दोनो पर अाधार रखने वाले धर्मों का इन्कार करते हैं। __ अगर हम गौर से सोचे तो ईश्वर केन्द्रिक और प्रात्म केन्द्रिक धर्म भी जीवन-परायण तो होते ही हैं। इसलिये इन तीनो का सामजस्य वेठ सकता हे और वही करने के दिन अव आये है। केवल परमात्मा को ही प्राधान्य देने वाला वेदान्त धर्म, तपस्या और अहिंसा द्वारा आत्म-शक्ति का साक्षात्कार करने वाला जैन धर्म और सम्यक् दृष्टि द्वारा जीवन को शुद्ध और दुख मुक्त करने वाला बौद्ध धर्म इन तीनो का समन्वय करने के दिन अव आये हैं । वौद्धो का धर्म-प्राधान्य, जनो की अहिंसा-तपोमूलक आत्मनिष्ठा और विश्वात्मैक्य को परमपुरुषार्थ मानने वाले वेदाल को ब्रह्मपरायणता या ब्रह्मनिष्ठा-तीनो का समन्वय करने से विश्वशान्ति की, सत्ययुग की और सर्वोदय की स्थापना होगी। बुद्ध परिनिर्वाण के ढाई हजार वर्ष पूरे हुए हैं। ऐसे मौके पर सारी दुनिया मे वुद्ध भगवान् के उपदेश की अोर लोगो का ध्यान गया है। आज सव देशो मे बुद्ध के उपदेश का स्मरण हो रहा है। यही मुहर्त है कि हम बुद्ध के बताये हुए अवर के सिद्धान्त को कार्यान्वित करने का अहिंसा का तरीका फिर से आजमावे । जो बुद्ध ने कहा या गाँधीजी ने देश के सामने रखा वही अहिंसा का सिद्धान्त महावीर ने बताया था, इतना कहने से नहीं चलेगा। अहिंसा के सन्देश को आज के युग को लेकर कार्यान्वित कैसे करे यही मुख्य सवाल है। अब जब आप सेमिनार चलाना चाहते है तब उसके लिए कुछ सशोधन के विषय आपके सामने रखना चाहता हूँ। सेमिनार के मानी ही हैं सशोधन करने वाला विद्वत्मण्डल । इसलिये कुछ महत्व के सवाल हम अपने सामने रखकर उनका सशोधन~मनन करे। मैं मासाहार को पाप समझता हूँ। मैं मानता हूँ कि प्राणियो को मारकर उनका मास खाने का अधिकार मनुष्य को नही है । अगर समस्त मनुप्य जाति मासाहार का त्याग करे तो मुझे सतोष होगा। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म के प्राार और नये धामिक प्रश्न 127 इमनिये लोगों को मामाहानत्याग की सिफारिग करने के पहले में इस यात का पता लगा कि दुनिया में मनुष्य-मन्या कितनी है, इतने लोगों को पेट भर खाने के लिए अम कितना चाहिये । मैं यह भी देग कि प्राज कुल मिलाकर अनोपति स्तिन होती है। वह अगर अपर्याप्त है नो उमे घटाने के उपाय क्या-क्या है ? मैं यह भी पता लगा कि दुनिया मे पाहार के लिए पशु-पक्षी और मछनियो का कितना महार होता है । उनना ग्राहार बन्द कराने के लिए मैं उनको दनगे फोनगी चीज दे सकता है? पशु-पक्षी प्रादि प्राणी मी नाहार की अपेक्षा गाते हैं। उनके याहार के लिए जितनी जमीन प्रावन्या, यह भी गुरे देगना पडेगा। पशु-पक्षियो, तो हल्या न करने में उसी मग कितनी बोगी, गया की हिमात्र लगाना पडेगा और अगर घरेन या पालतू पशुप्रो की गाया हद में ज्यादा नही बटने देनी है तो उसका भी इलाज मुजे गौचना नाहिये। और, वही नियम अगर मनुष्य को लागू करना है तो प्रतिमायादी मनुप्य को लोक्सच्या रे मवान में दिलचम्पी रगनी ही होगी। अहिंमा धर्म के मामने ग्राज मव में बडा मवान है युद का पोर अनुप्य-मनुप्य के बीच, वश-वश के बीच जा म्पर्धा नलनी है और प्रयत्नपूर्वक देप वढाया जाता है उसका । पचशील अहिमा धर्म का एक विलकुल प्राथमिक रूप है। उमको भी स्वीकार कगते फितनी कठिनाइयां उत्पन हो रही है। पश्चिम के विद्वान् जिम तरह अनेक मामाजिक, राष्ट्रीय, गजनीतिक, आर्थिक और मानसिक मवालो का मागोपाग अध्ययन करते है और अपनी मति के अनुसार व्यवहार उपाय बताते जाते है उसी तरह हमे भी करना होगा। यह काम तीन दिन के सेमिनार का नही है । अाज हम उमका प्रारम्भ कर सकते हैं। अहिमा का तीसरा सवाल है-मानव के द्वारा होने वाले मानव के शोपण का। __ सवाल यह है कि क्या अहिमावादी धनवान हो सकता है ? अथवा दूसरे शब्दो मे कहे तो क्या धनवान मनुष्य का जीवन अहिंसक है ? अपर Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 महावीर का जीवन सदेश नही है तो सम्पत्ति का इलाज क्या ? अहिंसक-समाज रचना मे और Socialistic Pattern मे फर्क क्या है ? गाँधीजी कहते थे कि अहिसक समाज की स्थापना अहिंसक ढग से ही होनी चाहिये। इसके मानी यह नही कि हम सामाजिक अन्याय को बर्दास्त करे और केवल अहिंसा धर्म का उपदेश करते रहे। अगर कोई हमारे घर की सम्पत्ति लूट ले जाय अथवा घर के लडके-लडकी को उठाकर ले जाय तो हम आराम से नही बैठते । अस्वस्थ होकर अन्याय का इलाज करते है । उसी तरह का कोई कारगर, अहिंसक तरीका हमे बताना चाहिये और उसे कार्यान्वित करके दिखाना चाहिये। आहार का सवाल, लोकसख्या का सवाल, युद्ध का सवाल और सामाजिक अन्याय टालने के लिये समाज-रचना में परिवर्तन करने का सवाल, ये सारे सवाल हमारे संशोधन के विषय हो। इनका अगर हमने रास्ता बताया तो हमारा धर्म फिर से सजीवन और तेजस्वी होगा। [ दिल्ली में एक जैन सेमिनार में दिया गया उद्घाटन-भापण ] Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व-त्याग या सर्व स्वीकार ༡ धर्म का आविष्कार किमने किया ? मनुष्य हृदय ने ' मनुष्य की बुद्धि मामान्यत जितना दूर देख सकती हैं इससे भी दूर जो देख मकतेने ऐगे श्रान्तदर्शी ऋषि-मुनियों ने और नवी पंगम्बरो ने या प्रत्यक्ष जन-गण-मनअधिनायक स्वयं परमात्मा ने ? धर्म शब्द के श्रयं श्रनेक है । नेकिन इनमें भी दो श्रयं प्रधान है । धर्म का एक अर्थ होता है स्वभाव या प्रकृति । जनाना प्रग्नि का धर्म है । गीला करना पानी का धर्म है। मौका मिलते ही बहते रहना हवा का धर्म है । मी अर्थ मे हम कहते हैं कि तनिक भी दुग्र होते रोना वरून. का धम है । तेज भूख लगने पर जो मिले सो गाना यह प्राणीमात्र का और मनुष्य का भी धर्म है । यहाँ धर्म का केवन्न अर्थ है प्रकृति या स्वभाव । धर्म का जो दूसरा अर्थ है वह एक ही वाक्य में स्पष्ट होगा - नाहे जितनी तीव्र भूख लगे, प्राण कठ मे प्रा जाय तो मी नांगे करके नही खाना, दूसरे को मारकर नही साना, प्रयोग्य वस्तु नही खाना, दूसरे को भू रखकर स्वयं नही खाना, यह है मनुष्य का धमं । प्रथम अर्थ का धर्म स्वभावगत या प्राकृतिक धर्म केवल समझने की वस्तु है । उम मे मले-बुरे का भाव नही प्राता । जब हम कहते हैं देखना खो का धर्म है तब हम इतना ही कहना चाहते हैं विश्रांयों में देखने की शक्ति है | अधिक से अधिक हम यह कह सकते है कि गांखें देखने को उत्सुक होती हैं । सामान्य तौर पर ग्रांखो से देखे बिना नही रहा जाता । लेकिन जब हम कहते है कि अश्लील चीजें प्रांखो मे नही देखनी चाहिये तब हम श्रांखो के प्राकृतिक धर्म मे ऊँचा उठना चाहते हैं । प्रकृति को रोककर, स्वभाव को दवाकर किसी उच्च प्रादर्श को सिद्ध करना चाहते है । श्रखो का जीवन कृतार्थ करना चाहते है । भूख लगे तब खाना, जो मिले सो खाना पशुओ के साथ मनुष्य का भी स्वभाव-धर्म है । किन्तु खाने की वामना के वश होने के पहले सोचना और खाने को किया की योग्यता श्रीर अयोग्यता का खयाल करना यह है मनुष्य का धर्म । और, जैसा कि ऊपर कहा है भूख चाहे जितनी Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का जीवन संदेश तेज हो जब खाना हराम मालूम हो तब खाने से परहेज रखना, यह हे मनुष्य का धर्म । 130 सकट देखते ही जान बचाने के लिये भाग जाना यह है प्राणिमात्र का स्वभाव-धर्म | लेकिन किसी को सकट से बचाने के लिये अपने प्राण खतरे मे डालना, प्राणो की परवाह नही करना, यह है मनुष्य का कर्त्तव्य-धर्म । ऐसे धर्म का आविष्कार किसने किया ? गीता कहेगी कि प्रजापति भगवान् ने स्वयं प्रजा के साथ-साथ ही उसके कर्त्तव्य-धर्म का भी सर्जन किया है । स्वभाव धर्म मनुष्य को प्रकृति ने दिया और जीवन को कृतार्थ करने वाला कर्त्तव्य धर्मं भगवान् ने मनुष्य के हृदय में जागृत किया । (प्राणियो मे भी अपने बच्चे की या अपने समूह की रक्षा का भाव भगवान् ने इतना उत्कट किया है कि नर-मादा अपने बच्चे की या समुदाय की रक्षा के लिये अपना प्राण भी देते है । इस बात से प्राणियो कुछ हद तक मनुष्य के जैसा धर्मोदय हुआ है सही 1) ऐसा धर्मोदय भगवान् की प्रेरणा से ऋषि-मुनियों के, साधु-सतो के, समाज नेता-धर्म सस्थापको के हृदय में होता है । ऐसा धर्म धीरे-धीरे मनुष्यहृदय में विकसित होता जाता है । लेकिन किसी भी देश मे, किसी भी जमात मै, किसी भी जमाने मे देखिये, धर्मभेद होते हुए भी धर्म - विकास की दिशा एक ही होती है । अपनी वासनाओ के ऊपर विजय पाना, जो उचित है उसी को करना, अनुचित नही करना, अपने हृदय का विकास करते-करते अन्यो के साथ अपनी एकता का अनुभव करना, यह है धर्म का व्यापक स्वरूप | ऐसे धर्म का स्पष्ट उपदेश सुनते ही हृदय धीरे-धीरे उसके अनुकूल होने लगता है । ऐसे धर्म के पालन के लिये शक्ति इकट्ठा करना, यही है मनुष्य की साधना । मनुष्य-स्वभाव मे और एक बात भरी पडी है कि जो कोई सच्चे धर्म का बोध कराता है अथवा धर्म-पालन के लिये जरूरी शक्ति कमाने मे मदद करता है उस के प्रति कृतज्ञ बनना, उसके कहे अनुसार चलना, उस के हाथ मे अपना जीवन अर्पण करना, मनुष्य के लिये स्वाभाविक है । ऐसी अर्पण वुद्धि जव बढती है तब मनुष्य लोकोत्तर त्याग और पराक्रम कर सकता है । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 131 सर्व त्याग या सर्व स्वीकार ? इसीलिये कहते है कि धर्म का प्रचार, धर्म-प्राण, तेजस्वी मनुष्य की प्रेरणा के विना नही होता । वडे-बडे समाजो के लिये व्यापक सामाजिक धर्म का जिन्हें ने विस्तार से चिन्तन किया और लोगो को रास्ता दिखाया उनको हम धर्मकार कहते है । वैदिक ऋपि, मनु, याज्ञवल्क्य आदि स्मृतिकार, गौतम बुद्ध, महावीर आदि पथप्रदर्शक, हजरत मूसा, हजरत ईसा, हजरत मुहम्मद, हजरत कन्फ्यूशियस आदि पैगम्बर ये सब मनुष्य जाति के प्रधान नेता है । इन्होने अपने-अपने वश के लोगो को रास्ता दिखाया । उनके बाद भी उनके अनुयायियों ने देश और काल की मर्यादा लाघकर इन धर्म-सस्थापको के उपदेश का फैलाव किया । अव धर्म की मूल प्रेरणा कहाँ से आई यह सवाल गौण हो गया । श्रव तो धर्म-सस्थापक, उनके वचनो का सग्रह करने वाले धर्म ग्रन्थ, उनको गद्दी पर बैठने वाले उनके शिष्य श्रीर उनके द्वारा स्थापित परम्परा, यही हो गया धर्म का मूल उद्गम या स्रोत । श्राज जो धर्म के नाम झगडे होते है, अनाचार - अत्याचार होते हे वे सब इस तन्त्रनिष्ठा के कारण ही होते है । धर्म-निष्ठा की जगह तन्त्रनिष्ठा आ गई । 'हमारा धर्म सच्चा, तुम्हारा धर्म झूठ या कच्चा । हमारे धर्म का हम फैलाव करेंगे। दूसरे धर्मों की खच्ची करेंगे । यही सर्पात्मक प्रवृत्ति चली, फैल गई । धर्म के अनुसार जीवन परिवर्तन करने की बात गौण हो गई । अपने धर्म का अभिमान रखना, दूसरो के धर्मो के प्रति श्रनादर या तिरस्कार रखना, दूसरे धर्म की नुक्ताचीनी करते रहना और धर्म के नाम पर मघर्ष बढाना, यही एक वडी प्रवृत्ति हो गई । इस विपम और भयानक परिस्थिति से बचने के लिये मानव कल्याणकारी दीर्घदृष्टि उदार महात्मानो ने सर्व-धर्म-सहिष्णुता, सर्व-धर्म-समभाव का सार्वभौम युग-धर्म वताया । हमारा धर्म पर विश्वास है । हम मानते है कि सर्व-धर्म-समभाव वाला सार्वभौम धर्म अन्यान्य सब धर्मो मे सामजस्य स्थापित करेगा । लेकिन जिनके प्रति हमारे मन मे गहरा श्रादर है ऐसे लोकहितचिन्तक हमे कहते है धर्ममात्र के प्रति जिनके मन मे कोई विशेष प्रदर, प्रास्था या निष्ठा नही रही ऐसे लोग आपकी बात मानेगे सही । लेकिन क्या Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का जीवन सदेश किमी भी धर्म के निष्ठावान अनुयायी ने आपकी बात मानी हे ? सर्व-धर्म समभाव की ही बात लीजिये । कोई कट्टर रोमन कैथोलिक, कट्टर मुसलमान तो क्या कोई कट्टर बौद्ध भी प्रापकी बात मानने को तैयार है ? ऐसा एक भी उदाहरण दिखाइये और बाद मे सर्वधर्म समभाव की अथवा सर्वधर्म ममभाव की बाते करे । कट्टर लोगो की धर्मनिष्ठा इसी में है कि वे अपना धर्म छोडकर और किसी धर्म को धर्म मानने के लिए तैयार नही । 132 ( स्मरण होता है कि जयपुर के एक सनातनी शास्त्री ने कहा कि सव धर्मो मे सनातन हिन्दू धर्म ही श्रेष्ठ है । इतने पर कई पुराने सनातन धर्माभिमानी शास्त्री विगड गये । उन्हें ने कहा, 'सनातन धर्म की श्रेष्ठता की बात करते अपने कबूल तो किया ही कि बाकी के भी धर्म है । अगर आपकी धर्मनिष्ठा सच्ची है तो ग्राप केवल सनातन धर्म को ही धर्म कहे । बाकी सब धर्म है ।' यही वृत्ति कट्टर इस्लामियो की और कैथोलिक आदि इसाइयो की है । लेकिन हमने घर का ही उदाहरण लेना अधिक उपयोगी मान लिया 1) सर्वधर्म समभाव या सर्वधर्म समन्वय तक पहुँचने के लिये इतनी तो हृदय की उदारता आवश्यक है ही कि हर एक धर्म की खूबियाँ हम पहचानें । धर्म के विधि-निषेधो के पीछे रही केवल धार्मिकता हो हम पुरस्कार करें और कालग्रस्त या गौण बातो की उपेक्षा करे । इस पर नये लोग कहते है कि कालग्रस्त धर्मों की झझट मे हम पडे ही क्यो ' सव धर्मो की बलाये दूर रखकर हम लोगो से क्यो न कहे, “भले श्रादमी, अपने-अपने हृदय की प्रेरणा को ही मान लो । सगठित धर्मों की बातें ही छोड़ दो ।" वासना - परतन्त्र मनुष्य को बचाने के लिये धर्म पैदा हुया । उसी के पीछे वामनाएँ सगठित हुई और उन्होने मनुष्य को पथ परतन्त्र फिरकाभिमानी बनाया। आप धर्मों को गौण करके धार्मिकता को बढावा देना चाहते है । लेकिन धार्मिकता तो कब की निष्प्राण मनुष्य को धर्म-परतन्त्र बनाने की अपेक्षा स्वतन्त्र हो 1 हो चुकी है । परतन्त्र क्यो नही करते है ? इन लोगो की बात सही है । लेकिन हम उन्हें भी श्रापको सच्चे और पक्के कितने अनुयायी मिले ?" पूछते है "इस रास्ते श्राप जवाव देंगे कि Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व त्याग या सर्व स्वीकार ? अनुयायी तो सब से बडी बला है । कोई किसी का अनुयायी न रहे इसी बात का हम पुरस्कार करे । 133 बात फिर से यहीं आकर खडी होती है कि जिन लोगो मे धर्म का आग्रह नही होता, जिनकी 'धर्म' - निष्ठा शिथिल होती है वे ही सर्व-धर्म समभाव की बात मानते है और वे ही धर्मों को गौण बनाकर हृदय की स्वतन्त्रता कबूल करते है । ऐसी हालत मे हृदय की स्वतन्त्रता स्थापित करने के लिये सब धर्मो का विरोध करने की अपेक्षा सब धर्मों के उत्तम तत्वों का स्वीकार करना ही अच्छा रास्ता है । हम सघर्ष मे न उतरे । हृदय से सब धर्मों के प्रति आत्मीयता धारण करे और धार्मिकता की शक्ति पर विश्वास रखे, यही सच्चा मार्ग है । तत्त्वनिष्ठा और व्यवहार दोनो की दृष्टि से यही मार्ग ठीक है । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद की समन्वय शक्ति आज के युग की मुख्य माँग है, समन्वय । मतभेदो प्रति हम आदरभाव रखते हैं । लेकिन हम चाहते है कि भिन्न मतावलवी लोग आपस मे लडे नही । केवल चर्चा से झगडो का अन्त नही आता । सत्य की प्रतीति चर्चा से नही, किन्तु हृदय से होनी चाहिये । बुद्धि के द्वारा सत्य का एकागी दर्शन हो सकता है । स्याद्वाद ने यही बात हमे सिखाई है । हृदय के द्वारा और जीवन के द्वारा सत्य का अनुभव करते मतभेद का स्वरूप और मतभेदो का कारण धीरे-धीरे समझ मे आने लगता है और भेद केश गौण बनते है । समन्वय का प्रयत्न कौन करे ? मैं मानता हूँ कि जो लोग स्याद्वाद का रहस्य समझते है, उन्ही का प्रथम कर्त्तव्य है कि दार्शनिक चर्चाये छोडकर हर एक वाद की भूमिका वे समझ ले और जीवन मे सघर्ष रूपी हिंसा टालकर सहयोग रूपी अहिसा का रास्ता खुला कर दे । मैं जापान तीन दर्फ गया हूँ । बौद्ध धर्म का पालन करने वाले लोगो सेलका में, ब्रह्मदेश मे, चीन और जापान मे मिला हूँ। मै मानता हूँ कि बौद्ध धर्म का यानी बौद्ध जीवन-साधना का रहस्य समन्वयकारी हृदय ही अधिक अच्छी तरह से समझ सकता है । एक दर्फ जापान से लौटते मैं श्री विनोबाजी से मिला था । मैंने कहा कि, "आपने और मैने वेदान्त दर्शन का अध्ययन किया है । गौडपादाचार्य ने पनी कारिका मे कहा है कि अद्वैतवादी की भूमिका इतनी ऊँची है कि वहाँ पर किसी से झगडा ही नही हो सकता। मैंने तो अद्वैत मे समन्वय ही देखा है । तार्किक द्वैत की बात मैं नही करता । जीवन के क्षेत्र मे श्रद्वैत की साधना समन्वय ही सिखाती है । इस समन्वय के द्वारा वेदान्त श्रोर बोद्धदर्शन एक-दूसरे के नजदीक आ सकते है ।" श्री विनोबाजी ने कहा, "मेरा मन भी उसी दिशा मे काम कर रहा है । मैं बोधिगया मे एक समन्वय आश्रम की स्थापना करना चाहता हूँ ।" Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद की समन्वय शक्ति 135 श्री विनोवाजी के कहने मे मैंने इसी विषय पर सर्वोदय सम्मेलन मे एक व्याख्यान भी दिया श्रौर श्री विनोवा ने अपने व्याख्यान मे उस की पुष्टि की। बुद्ध गया एशिया के लोगो को एकन करने वाला एक पवित्र स्थान है । मैंने तुरन्त देखा कि बौद्ध जीवन-साधना, जैन जीवन - साधना और वेदान्त को जीवन-साधना तीनो का उत्तम समन्वय हो सकता है। श्रोर, ऐसा समन्वय ही भक्ति के वायु मंडल में दुनिया का उद्धार कर सकता है । स्याद्वाद अथवा समन्वय ही अहिंसा का सर्व करयाणकारी साधन श्रथवा जार है । (हिंसा के समर्थ शस्त्र को शस्त्र न कह कर प्रोजार ही कहना चाहिये 1) समन्वय के इम सर्व-समर्थ प्रोजार या साधन की मदद से सारे विश्व को हम एक परिवार बना सकते हैं । 'यन भवति विश्व एकनीडम् ।' जैन मुनियो की परम्परा सामान्य नही है । उन मे जितनी रूढिनिष्ठा है, उतनी ही तत्त्व-निष्ठा भी है। श्रोर, तत्त्व-निष्ठा की विजय रुढि पर जब होगी, तभी जीवन मफन होता है । रुढि - निष्ठा, मरण की दीक्षा है । तत्त्व-निष्ठा जीवन और प्रगति को दीक्षा है । अव युग-धर्म कहता है कि तत्त्व-निष्ठा को समन्वय की दृष्टि से जीवन की ओर देखन चाहिये । मैं मानता हूँ कि युग-धर्म समन्वय को ही सफल बनायेगा । Page #152 --------------------------------------------------------------------------  Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म और हिंसा जैन धर्म और हिंसा जीवन-व्यापी अहिंसा और जैन समाज • प्रहिंसा का नया प्रस्थान हिंसाका वैज्ञानिक प्रस्थान Page #154 --------------------------------------------------------------------------  Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म और अहिंसा धर्म की अनेक व्याख्याये की गई है। मेरे विचार से धर्म की उत्तम व्याख्या यह है “जीवन-शुद्धि और समृद्धि की साधना जो दिखाये वह धर्म है।" प्रत्येक धर्म मे आत्मोद्धार के लिये जो बाते बताई गई है, उनके द्वारा ही मनुष्य अपनी उन्नति कर सकता है। यह साधना दो प्रकार से होती है। केवल अपना ही विचार करके आत्मशुद्धि से आत्म-विजय प्राप्त करना और अन्त मे मुक्त होना, यह पहली साधना है। दूसरी साधना वह है जिसमे केवल व्यक्ति का विचार न करके समस्त समाज का विचार किया जाता है। सारे व्यक्तियो को मिलाकर समाज वनता है और वह समाज ही मुख्य माना जाता है । जैसे हम शरीर के एक-एक अवयव का विचार नहीं करते, परन्तु समग्र शरीर का विचार करते हैं, वैसे ही मुख्यत विचारणीय प्रश्न यह है कि सगठन बनाकर रहने वाली मनुष्य-जाति अहिंसा की साधना कैसे कर सकती है। मेरी मान्यता के अनुसार अभी तक मनुष्य-जाति की बाल्यावस्था थी, इसलिये केवल व्यक्ति के लिये मार्ग विचारने और बताने से हमारा काम चल जाता था। परन्तु अव जो कार्य हमारे सामने है वह विकट और व्यापक हे । अब निश्चित तथा व्यवहार्य सामाजिक साधना बताने के दिन आये है। आज की साधना केवल आत्मशुद्धि की नही परन्तु समाज-जीवन की शुद्धि की साधना है । प्रत्येक वालक को कभी न कभी ऐसा लगता ही है कि कल जो वात मेरी समझ मे नही आती थी वह आज समझ मे आ रही है। मनुष्य को भी अक्मर ऐसा लगता है कि अमुक महापुरुप के इस जगत मे आने के बाद ही इतनी बात हमारी समझ मे आई। प्रत्येक धर्म मे साधना का मार्ग दिखाने वाले महापुरुष आते है। मुसलमानो का विश्वास है कि इस्लाम के नवी मुहम्मद साहब ने जो कुछ कहा वह अन्तिम वचन है। सनातनी हिन्दू भी ईश्वर के अमुक सख्या के अवतारो मे विश्वास करते है। जैन भी चौवीस * तारीख 6-6-80 को वम्बई मे हुई सभा मे अध्यक्ष पद से दिये गये भापण का सारभाग-1 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 महावीर का जीवन सदेश तीर्थकरो मे विश्वास करते हैं । जैन लोग मानते है कि अन्तिम तीर्थकर महावीर हुये है, अब आगे कोई तीर्थकर नही होगे। लेकिन यह दलील मेरे गले नही उतरती। कोई एक व्यक्ति चाहे जितना महान् हो, फिर भी उसके साथ धर्मशास्त्र पूर्ण नही हो जाता । तव तो माना जायेगा कि मनुष्य-जाति की प्रगति का अन्त हो गया। इससे तो यही माना जा सकता है कि विश्व की रचना को चलाने वाली अगम्य शक्ति या तो तृप्त हो गई है या निराश हो गई है । परन्तु वास्तव मे ऐसा नही है । साधना का सस्करण और परिष्करण वार-बार होना ही चाहिये । यह कार्य करने वाले व्यक्ति भी बार-बार आने ही चाहिये । जिस समय चार व्रतो की आवश्यकता थी उस समय चार व्रतो से काम चला। लेकिन जब उनमे परिवर्तन करके व्रतो की सख्या पाँच करने की आवश्यकता हुई तब ऐसा कहने वाले व्यक्ति निकल पारने और चार के पाँच व्रत हो गये। इसी प्रकार समय-समय पर मार्ग-दर्शन करने वाले महापुरुष निकल ही आते है । अहिंसा एक सनातन तत्त्व है। अमुक समय के पहले अहिंसा नही थी, यह नहीं कहा जा सकता। समय-समय पर अहिंसा का प्रचार करने वाले पुरुष निकल ही आते है। मुझे सदा यह लगा है कि अहिंसा की सच्ची साधना ब्रह्मचर्य मे, सयम मे है । जो मनुष्य भोग-विनास मे डूवा रहता है और वैसा करके मरने के लिये बच्चे पैदा करता है, वह अहिंसक नही है। जीवन मे विलासिता कामुकता कम हो तो ही सच्ची अहिंसा को जीवन में उतारा जा सकता है और समाज मे उसे फैलाया जा सकता है। पुण्य दु खकर है, लेकिन उसका फल सुखकर है, जब कि पाप बाहर से अथवा प्रारम्भ मे सुखकर होता है, लेकिन उसका फल दुखकर होता है । इसलिये भोग-विलास का सुखकर मालूम होना स्वाभाविक है। मनुष्य जिस हद तक विलासिता का त्याग करता है उसी हद तक वह अहिंसा-धर्म के निकट पहुँच पाता है । विलासिता को दूर करने के लिये इन्द्रियो की वृत्नियो को जीतना पडता है। इसी को तप कहा जाता है। यह तप ही अहिंसा है । यह साधना व्यक्तिगत और सामुदायिक दोनो प्रकार से होती है। उसे बताने वाले तीर्थकर समय-समय पर आते ही रहने चाहिये । और, इस प्रकार सनातन अहिंसा-धर्म का विकास होना चाहिये। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म और अहिंसा 141 अपराध के लिये सजा देना मनुष्य-जाति का वडा अपराध है। दूसरो को सजा देने वाले हम कौन होते है ? अपराध के लिये अपराधी को प्रायश्चित्त करना चाहिये । अपराध के लिये सजा देकर तो हम हिमा को घटाने के बदले प्रतिहिंसा करते है। सजा देने से मनुप्य का सुधार नहीं होता। सजा देकर हम भले ही सतोप अनुभव करे, परन्तु वास्तव मे उमसे हिंमा दुगुनी होती है। अपराध करने वाले की हिमा अप्रतिष्ठित मानी जाती है। जब किमी अपराधी को सजा होती है तो लोग उम कार्य को अच्छा मानने है, इसलिये यह प्रतिहिमा प्रतिष्ठित मानी जाती है। यह उलटे मार्ग की साधना है । इननी वात हम समझ लें, तो अहिमा का मार्ग हमारी ममा मे या जायेगा । भावी तीर्थकर हमें अवश्य कहेंगे कि अपराधी को सजा देना भी अपराध ही है। गोधी के मामने अगर हम ग्रोध न करें, तो अन्न मे उमे शान्त होना ही पडे गा । 'प्रतृणे पतितो वह्नि म्वयमेवोपगाम्यति'-तृणरहित स्थान मे पडी हुई आग अपने पाप धुल जाती है। आज हम अहिंसा के वाल्यकाल में है। अहिंसा के विकास के लिये वडे धीरज और अम्बूट साहस की जरत है। मार्ग लम्बा है। ममाज में अहिंसा की शिक्षा का कार्य करना आवश्यक है। इसके लिये अनेक महापुरुप आयेंगे और मार्ग दिखायेंगे। केवल म्यूल हिमा का त्याग पर्याप्त नही होगा। जहां धन के ढेर जमा हो गये है वहाँ उनकी नीव मे शोपण का पाप है--हिमा है । अमेरिका में क्वेकर मम्प्रदाय के लोग अहिंसक है और धनी भी है। भारत में जन लोग अहिंसक होने का सारण दावा करते है। फिर भी वे धनाढ्य है। द्रोह के विना धन नहीं मिलता। इसलिये मेरी ममझ मे नही पाता कि अहिंसा और धन का मेल कैसे बैठ सकता है । आप चीटियो के दर के सामने प्राटा डालें, रात्रि-भोजन न करे, पानू न खायें-यह सब तो अच्छा है। परन्तु यह प्रारम्भ की क्रिया है । हमे तो अहिमा-धर्म मे आगे बढना है। जगत मे जव युद्ध चल रहा हो तब हम शान्त कैसे बैठ सकते है ? हमे उसे रोकने का मार्ग खोजना चाहिये । हमारे विचारो में परिवर्तन की आवश्यकता है। कई लोग कहते है कि युद्ध तो यूरोप मे लडा जा रहा है, हमारे देश मे तो गांधीजी के प्रताप से सब ठीक चल रहा है। लेकिन मैं कहता हूँ कि हमारे देश में प्रत्येक प्रान्त मे भीतर ही भीतर फूट फैली हुई है, हर जगह अविश्वास फैला हुआ है । ये सव हिंसा के ही प्रतीक है। यूरोप के पास अस्त्र-शस्त्र है, इसलिये वहाँ के लोग Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का जीवन संदेश युद्ध करते है | हम एक-दूसरे के पैर खीचकर एक-दूसरे को नीचे गिराते है । वृत्ति से तो दोनो एक से ही है । वहाँ समर्थों की शस्त्राधारी हिंसा चलती है, यहाँ समर्थो की प्रविश्वास, द्वेप, निद्रा और द्रोह - मूलक हिंसा । 142 अदालत मे जाने के वदले पच के द्वारा अन्याय दूर अन्याय करने वालो को अपना बनाकर उसकी शुद्धि का प्रयत्न प्रकार की ग्रहिंसक साधना का विकास विचारपूर्वक अभी तक किया है । कराना और - करना - इस हमने नही सरकारी अन्याय के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह करने के बजाय सत्याग्रह करने की हिंसक साधना हमारे जमाने मे गाँधीजी ने ही बताई है। राज्य के विरुद्ध किये जाने वाले पुराने 'जागा' (धरना) या ऐसे ही दूसरे विद्रोह मे हिंसा नही थी । शायद ऐसा कहा जा सकता है कि उसमे अहिंसक पद्धति के बीज थे । राष्ट्रो के बीच जो युद्ध लडे जाते है उनके बजाय चढाई करने वाले शत्रु का अहिंसक पद्धति से प्रतिकार कैसे किया जाय, यह सोचने या सुझाने का मौका गाँधीजी को भी नही मिला है । अमेरिका मे या अफ्रीका मे गोरे लोग काले लोगो पर जो जुल्म ढाते है, उन्हें दूर करने का अहिंसक मार्ग दिखाने की जिम्मेदारी अहिंसा के उपासको और आचार्यों की है । परन्तु ग्राज तो ये लोग शास्त्र-वचनो की व्याख्या करने मे और परम्परागत मार्ग से अपने तप या प्रतिष्ठा को बढाने मे ही मशगूल है । आज दुनिया मे बडी से बडी हिंसा शोपण की चल रही है। दूसरो की कठिन परिस्थितियो का लाभ उठाकर उनकी सेवाओ का दुरुपयोग करन और उन पर अनुचित अत्याचार करना अर्थात् उनके जीवन का शोषण करना बहुत बडी हिंसा है। इस तरह की हिंसा परिवारो मे भी चलती है । जमीदार और काश्तकार खेत मे काम करने वाले मजदूरो के मालिक और खेतीहर मजदूर, कारखानेदार और कारखाने के मजदूर उच्च वर्गों के लोग और श्रमजीवी लोग इन सब के सम्बन्धो मे शोषण की, दबाव की और जुल्मो की हिंसा सतत चला ही करती है। साहूकार मनमाना व्याज लेकर कर्जदार को चूसता है यह भी हिंसा ही है । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म और अहिंसा 143 जैन समाज तथा जैन साधुनो और आन यों को यह सोचना चाहिये कि इस सारी हिंसा का सामना कैसे किया जाय और इस दृष्टि से समाजजीवन का परिवर्तन करने के लिये कौनसे कदम उठाये जाने चाहिये । जब हमारा समाज धर्मप्राण था उस समय हमारे धर्माचार्य तत्कालीन विज्ञान की मदद से साहस पूर्वक जीवन परिवर्तन करने मे हिचकिचाते नही थे और समाज की पुरानी रूढियो का विरोध करने मे भी डरते नही थे। शरीर-शुद्धि के लिए पचगव्य मे गोमूत्र का भी प्राशन करने की प्रथा के पीछे वैज्ञानिक साहस स्पष्ट दिखाई देता है। पानी मे सूक्ष्म कीटाणु होते है इसलिये पानी को गरम करने और उसे तुरन्त ठण्डा करने की जो प्रथा जैनो ने चलाई, उसमे आज के डॉक्टरी आग्रहो से कम हिम्मत नही थी। जैन साधुनो का केशलुञ्चन तथा मुख पर बाँधी जाने वाली 'मुहपत्ती' भी मामाजिक शिष्टाचार की परवाह न करके एक प्रकार के विज्ञान से चिपके रहने की हिम्मत का ही प्रतीक है । बहुबीज वनस्पति न खाना, रात्रि-भोजन न करना इत्यादि सुधारो का प्रचार जिन आचार्यों और साधुनो ने किया, वे आज के जमाने मे विज्ञान का अनुसरण करके यदि चिन्तन करे और नये आचार का प्रचार करे, तो कोई यह नही कह सकेगा कि आज के जैन आचार्य धर्मपरायण न रहकर रूढि-परायण हो गये है और आज के जैन साधु अन्धपरम्परामो का निष्प्राण जीवन जीते है। जो चीज बुरी मानी जाती है वह कितनी ही सुखकर, प्रिय अथवा प्रतिष्ठित क्यो न हो, तो भी उसका त्याग करने के लिये तैयार होना और अद्यतन विज्ञान तथा धर्मज्ञान आज जो नई दृष्टि प्रदान करे उसका अनुसरण करने के लिये तैयार होना जीवन्त और प्राणवान रहने का लक्षण है। जो व्यक्ति जीवन पर विजय प्राप्त करता है वह जिनेश्वर है । अब ऐसे अनेक जिनेश्वर उत्पन्न होने चाहिये। उनके आने की हम तैयारी करे और उनके स्वागत के लिये लोक-मानस तयार करे। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-व्यापी अहिंसा और जैन समाज' लोग पूछते हैं, और अचरज की बात तो यह है कि मेरे जैन मित्र भी मुझे पूछने लगे है, कि आप इस युग में अहिंसा और मासाहार की बात क्या लेकर बैठे है ? एक पुराने जैन मित्र तो मुझे समझाने लगे कि "हम जैनियों का जो वर्तमान रुख है उससे हम मन्तोप है । हम प्राणी-हत्या नहीं करते । कोडे-मकोडे भी हमारे हाथो न मर जाय इसकी सम्भाल रखते है । बहुवीज वास्पति भी नही खाते । इस तरह मे अपना जीवन निष्पाप बनाने की कोशिश करते हैं। हमारे साधु हम लोगो की इस वृत्ति को बढावा देते हैं । महावीर की वाणी सुनाने है । स्वय सूक्ष्म हिंसा से भी वचने की कोशिश करते हैं । वे तप करते है । हम दान करते है। इससे अधिक आजकल के जमाने मे क्या हो सकता है ? दूसरे लोग मासाहार करते है । प्राणी-हत्या करते है । इसका हमे दुख है। लेकिन हम न कभी उनकी निन्दा करते है,न उनको रोकते है। दुखी होकर बैठ जाते है । यही तो आपका Peaceful Co-existence है न? इसी नीति से हम और हमारा धर्म वच गये है।" ____ मैं इस अलम् बुद्धि से और सन्तोप से डरता हूँ। इस भूमिका की बुनियाद मे केवल बौद्धिक ही नही, किन्तु नैतिक अप्रगतिशील आलस्य और जडता है । भगवान् महावीर ने क्या चाहा था और हम कहाँ ठहर गये है यह गम्भीरता से सोचना चाहिये । हम निष्पाप बने इतना वस नही है। आज की स्थिति में अपने को निष्पाप मानना हृदय को धोखा देना है । क्या दुनिया भर की प्राणी-सृष्टि को हत्या से बचाने का, उसे अभयदान देने का हमारा कर्तव्य नहीं है ? मनुष्य मनुष्य के वीच जो वैर, द्वेष और हिंसा विश्वव्यापी बन रही है, उसे रोकना नही है ? ज्ञानी, बुद्धिमान और चतुर लोग सारी दुनिया को निचो रहे है यह क्या हम स्वस्थचित्त होकर वर्दाश्त कर सकते हैं ? हमारी तिजारत और हमारी महाजनी हिंसा से मुक्त है ? जव गाँधीजी ने विश्व के लिये अहिंसा का नया प्रयोग शुरु किया तब उसमे जैनियो का सहयोग कितना था ? जब सव राष्ट्रो के शान्तता-वाद के प्रतिनिधि इकट्ठा होते है तब जैन धर्म के चन्द जागरूक प्रतिनिधि जीवदया Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-व्यापी अहिंसा और जैन समाज 145 का साहित्य ले पाते है। लेकिन विश्व समस्या के हल करने मे अपना हिस्सा नही लेते। आज जो अहिंसात्मक सामाजिक नवजीवन का क्रान्तिकारी प्रयोग भूदान-ग्रामदान के नाम से चल रहा है, उसे बढावा देने मे जैन-समाज अग्रसर क्यो नही, सम्पत्ति निर्माण मे और उसके न्याय-विभाग मे जो जीवन-व्यापी हिंसा चलती है उसे रोकने के लिये समाजवाद कोशिश कर रहा है । उसे जैन-धर्म का अविभाज्य अग बनाने की ओर जैन साधुओ का मानस क्या नही काम कर रहा है ? भारतीय समाज मे ऊँच-नीच भाव दृढमूल बन गया है । यह जो भयानक विराट हिंसा भारत मे चल रही है उसे जडमूल से उखेडने का काम जैन-धर्म का अविभाज्य अग नहीं है ? सम्पत्ति के उपभोग मे और सम्पत्ति के उत्पादन मे भी मर्यादा का स्वीकार करना जैन-धर्म मे शुरू से कहा गया था। उसका क्या हुआ? ये सब वाते छेडने का मेरा इरादा नही था। स्वर्गस्थ धर्मानन्द कोसवी के कुछ लेख के सिलसिले में मेरा ध्यान इस ओर खीचा गया । इसलिये जो कुछ लिखना पड़ा, उतना लिख करके मै खामोश हो जाता । जैन ममाज की अजागृति के बारे मे स्वय जैनो ने और औरो ने काफी लिखा है । किसी व्यक्ति या समाज की तौहीन करने से किसी का भी भला नही होता । केवल कटुता बढती हे और कभी-कभी दुर्जनता की वाढ पाती है। लेकिन मैं देखता हूँ कि अव जैन ममाज मे विचार-जागृति के दिन आ रहे है । लोगो मे अपने जीवन-क्रम के बारे मे असन्तोप पैदा हो रहा है। जैन साधु भी अपना पुराना रूप छोडकर नये ढग से सोचने लगे है। दिगम्बर, श्वेताम्बर स्थानकवासी, तेरापन्थी ऐसे भेद से भी लोग अव ऊबने लगे है । पुराने ग्रन्थो का प्रकाशन करना, देशी भाषा मे या अग्रेजी मे अनुवाद कराना और बढिया कागज पर ग्रन्थ प्रकाशित करना, इसी को जो लोग धर्मसेवा का महत्त्वपूर्ण काम मानते थे उनमे भी नव-जागृति आने लगी है। मै देखता है कि अब इस नव-जागृति मे यथासमय वाढ पायेगी, और जैन समाज कायापलट करेगा । जैन समाज रूढिग्रस्त है, लेकिन Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 महावीर का जीवन संदेश क्षीणवीर्य नही हे, पुरुषार्थी है । मैं मानता हूँ कि इस जागृति का असर श्रावको पर प्रथम होगा । साधुओ पर देरी मे होगा । साधु समाज चाहे जितना निस्पृह, अपरिग्रही या स्वल्प परिग्रही हो, जब तक वह निवृत्ति परायण है तब तक परावलम्बी है ही । परावलम्बी लोग रूढि को जल्दी-जल्दी तोड नही सकते । सम्भव है कि नये युग के अनुसार एक नया ही साधुवर्ग तैयार होगा और वह साधु सस्था मे क्रान्ति लायेगा । यह बात केवल जैन साधुग्रो की नही । सब धर्म के साधुग्रो की ऐसी ही बात है । मैं उनका मानस जानता हूँ । जब उनमे परिवर्तन होगा तब वे अपना तेज प्रगट कर सकेगे । धर्म- तेज के ऊपर समय-समय पर जो राख छा जाती हे उसे दूर करने की शक्ति साधु सस्था के पास नही होती। लेकिन जो लोग यह काम कर सकते है उन्ही के द्वारा नयी साधु सस्था स्थापित की जाती है, ( जो अपने जमाने का क्रान्ति- कार्य पूरा करने के बाद फिर से रूढिग्रस्त हो जाती है ) । शकराचार्य के जैसे सुधारक सन्यासी के अनुयायी प्राज रूढि धर्म के सब से बडे समर्थक हो गये है | इसमे आश्चर्य की कोई बात नही हे । सस्कृति का जीवनक्रम ही ऐसा होता है । २६-२-५७ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा का नया प्रस्थान जीवदया, मासाहार का त्याग और अहिंसा, इन तीन वातो का प्रचार कुछ रिवाजी-सा हो गया है । जैन धर्मियो की घोर से इन तीनो विषयो मे कुछ-न-कुछ प्रकाशित होता ही रहता है । अनेक सस्थाये भी चलती है । गाँधीजी ने श्रीमद् राजचन्द्रजी से कुछ प्रेरणा पाई, इस बात से जैनियो का राजी होना स्वाभाविक है। गाँधीजी के ग्रहसा प्रचार का स्वरूप कुछ अलग ही था। लेकिन जीवदया और मामाहार-त्याग दोनो के बारे मे गाँधीजी का उत्साह कम नही था । मनुष्य के लिये मासाहार स्वाभाविक नही, शाकाहार, धान्याहार अथवा अन्नाहार ही मनुष्य के लिये योग्य आहार है ऐसा गाँधीजी का दृढ विश्वास था । पश्चिम के चन्द शाकाहारी प्रपने सिद्धान्त के प्रचार मे शाकाहार के नैतिक तत्त्व पर भार न देते हुए मासाहार मनुष्य शरीर के लिये बाधक है इस बात पर अधिक जोर देते है। गाँधीजी जब आखरी वक्त लन्दन गये थे जब वहाँ के शाकाहारी मण्डल को उन्होने भारपूर्वक कहा था कि शाकाहार- प्रवार को केवल आरोग्य-प्रधान वैद्यकीय बुनियाद मत दीजिये । शाकाहार की बुनियाद तो नैतिक याने दयामूलक प्राध्यात्मिक ही होनी चाहिये । गांधीजी ने भारत के हम लोगों को समझाया कि मामाहारी लोगो को पापी कहने से या समझने से हमारा प्रचार विगड जायेगा। यूं देखा जाय तो शाकाहार र फलाहार मे भी सूक्ष्म हिंसा तो है ही और दूध कोई वनस्पतिजन्य पदार्थ नही, प्राणीज वस्तु है । दुनिया की अधिकाश जनता मासाहारी है । वह मासाहार को पापमूलक नही समझती । ऐसी हालत मे हम धैर्य के साथ और प्रेम के साथ उन्हे समझाने की कोशिश करें । लेकिन उनके प्रति नफरत रखने का पाप न करें । लेकिन गांधीजी ने मानव-मानव के बीच जो भयानक सघर्ष और विद्वेष चल रहा है उसी को केन्द्र मे रखकर हिंसा का प्रचार किया । राष्ट्रराष्ट्र के बीच, वश-वश के बीच, वर्ग वर्ग के बीच और धर्म-धर्म के बीच जो विद्वेष और सघर्ष पाया जाता है उसे दूर करदे । अन्याय का प्रतिकार श्रात्मबलिदान द्वारा करने का शास्त्र गाँधीजी ने चिन्तक गाँधीजी की यह बान समझ गये है बताया । विश्व के मानव - हिनऔर अपने-अपने ढंग से इस चीज Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का जीवन संदेश का अध्ययन, विचार और प्रचार कर रहे है । उनके इस प्रचार में गहरा चिंतन और चैतन्य है। गाँधीजी के इस महान् अहिंसा प्रचार का काम राजनैतिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय पैमाने पर प० जवाहरलाल नेहरू कर रहे है । 148 अन्तर्राष्ट्रीय मानवी सघर्ष टालने का महत्त्व जो लोग समझ गये हे और इस दिशा मे प्राणप्रण से प्रयत्न कर रहे है वे अधिकाश आहार मे मासा - हारी है, इतने पर से अगर हम उनसे घृणा करेंगे या अलिप्त रहेगे तो हमारा काम नही चलेगा । अहिंसा के सच्चे पुजारी भनुष्य-मास खाने वाले क्रव्याद। को भी दूर नही रखेगे । उनसे घृणा नही करेगे । ( ऐसे लोग आज भी अफ्रिका मे कही कही पाये जाते है । कल तक उनका मनुष्य- मासाहार जाहिरा तौर पर चलता था । ) ऐसे लोगो के बीच जाकर अहिंसा का प्रचार करने की जो हिम्मत करेगा वही महावीर का शिष्योत्तम गिना जायेगा । ईसा मसीह के चन्द शिष्य अफ्रिका मे जाकर प्रेमधर्म का प्रसार कर रहे है । वे जानते है कि वहाँ अहिंसा का प्रात्यन्तिक प्रचार हो नही सकता, क्रमश आसान सीढी के जैसा ही वहाँ प्रचार होना चाहिये । ऐसे प्रचार के लिये लोकोत्तर वीर्य और धैर्य की आवश्यकता है । वीर्य और धैर्य अहिंसा के प्रधान लक्षण है । यह वान जैसी गाँधीजी ने समझाई वैसी ही अपने जमाने मे भगवान् महावीर ने भी समझाई थी । अहिंसा धर्म का प्रचार इस नये प्रस्थान के द्वारा ही होगा । रूढिग्रस्त वेजान प्रचार छोडकर जिन लोगो ने इस नये प्रस्थान को समझा है और उसको स्वीकार किया है, उन्ही को शतश प्रणाम । भविष्य उन्ही का है । भूतकाल की उपासना बहुत हुई । शास्त्रों की खदान मे खोद-खोदकर हिंसा निकालने की और संग्रहीत करने की प्रवृत्ति बहुत हुई । शास्त्र वचनो का दोहन भी बहुत हुआ । श्रव तो जीवन का चिनन और पुरुषार्थ का दोहन करने के दिन आ गये । हमारे सामाजिक जीवन मे उच्च-नीच भाव मूलक जो हिंसा फैल गई है, प्रतिपक्षी के प्रति उग्र द्वेप भाव रखना जो हमारे लिये स्वाभाविक बन गया है उसका इलाज हम करे तो वह ग्रहिमा-माधना का प्रारम्भ होगा। अहिंसा का यह युगातर जो पहचानेगा उसी को ग्रहिमा का वीर्य और धैर्य प्राप्त होगा । १ अपेल १९६१ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा का वैज्ञानिक प्रस्थान जैन दृष्टि की जीवन-साधना में अहिमा का विचार काकी सूक्ष्मता तक पहुँचा है। उसमें अहिंसा का एक पहल है जीवो के प्रति करुणा और दूसरा है स्वय हिंसा के दोप से बचने की उत्कट कामना । दोनो मे फर्क है। करुणा मे प्राणी के दुख निवारण करने की शुभ कामना होती है । प्राणियों का दुख दूर हो, वे सुखी रहे. उनके जीवनानुभव मे बाधा न पडे, इस इच्छा के कारण मनुष्य जीवो के प्रति अपना प्रेम वढाता है, सहानुभूति बढाता हे और जितनी हो सके सेवा करने दौडता है । दूसरी दृष्टि वाला कहता है कि सृष्टि में असंख्य प्रागी पैदा होते है, जीते हैं, मरते है, एक-दूसरे को मारते है, अपने को बचाने की कोशिश करते है । यह तो सब दुनिया मे चलेगा ही। हरएक प्राणी अपने अपने कर्म के अनुसार सुख-दुख का अनुभव करेगा । हम कितने प्राणियो को दुख से वचा सकते है ? दुख से बचाने का ठेका लेना या पेशा बनाना अहकार का ही एक रूप है। इस तरह का ऐश्वर्य कुदरत ने या भगवान् ने मनुष्य को दिया नहीं है । मनुष्य स्वय अपने को हिंसा से वचावे । न किसी प्राणी को मारे, मरावे या मारने मे अनुमोदन देवे । अपने को हिंसा के पाप से बचाना यही है अहिंसा । इस दूसरी दुष्टि मे यह भी विचार आ जाना हे कि हम ऐसा कोई काम न करे कि जिसके द्वारा जीवो की उत्पत्ति हो और फिर उनको मरना पडे । अगर हमने आस-पास की जमीन नाहक गीली कर दी, कीचड इकट्ठा होने दिया तो वहाँ कीट-सृष्टि पैदा होगी। पैदा होने के बाद उसे मरना ही है । वह सारा पाप हमारे सिर पर रहेगा। इसलिये हमारी अोर से जीवोत्पत्ति को प्रोत्साहन न मिले इतना तो हमे देखना ही चाहिये । यह भी अहिसा की साधना है। इसी वृत्ति से ब्रह्मचर्य का पालन अहिंसा की साधना ही होगी। जीव को पैदा नहीं होने दिया तो उसे पैदा करके मरणाधीन बनाने के पाप से हम बच जायेगे। करुणा इससे कुछ अधिक बढती है। उसमे कुछ प्रत्यक्ष सेवा करने की बात आती है। प्राणियो को दुख से बचाना, उनके भले के लिये स्वय कष्ट Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 महावीर का जीवन सदश उठाना, त्याग करना, सयम का पालन करना यह मब क्रियात्मक वाते अहिंसा मे आ जाती है। आजकल जैन समाज मे इसकी चिन्ता नही चलती कि हम हिसा के दोप से कैसे बचे। जो कुछ जैनियो के लिये आचार बताया गया है उसका पालन करके लोग सतोष मानते है। धर्मबुद्धि जाग्रत है, लेकिन धार्मिक पुरुषार्थ कम है तो साधक अणुव्रत का पालन करेगे। साधना वढने पर दीक्षा लेकर उग्र व्रतो का पालन करेंगे। अव जिन लोगो ने जीवदया के अहिंमक आधार का विस्तार किया उन लोगो ने अपने जमाने के ज्ञान के अनुसार बताया कि पानी गरम करके एकदम ठडा करके पीना चाहिये । आलू, वैगन जैसे पदार्थ नही खाने चाहिये । क्य कि हरएक वीज के साथ और हरएक अकुर के साथ जीनोत्लत्ति की सम्भावना होती है । एक पान खाने से जितने अकुर उतने जीवो की हत्या करने का पाप लगेगा । मूक्ष्मातिसूक्ष्म जीवो की हत्या से बचने के लिये इनना सतर्क रहना पडता हे कि वही जीवन-व्यापी साधना बन जाती है। पानी गरम करके एकदम ठडा करना, मुहपत्ती लगाना, शाम के बाद भोजन नही करना इत्यादि रीतिधर्म का विकास हुआ। __शुरु-शुरु मै यह सब वैज्ञानिक शोध-खोज थी। हमारा वैज्ञानिक ज्ञान जैसा वढेगा उसके अनुसार हमारा अहिंसा का आकलन भी बढेगा, वढना चाहिये । और, उसके अनुसार आचार-धर्म मे सूक्ष्मता भी पानी चाहिये । साथ-साथ अगर अनुभव से कोई वात गलत साबित हुई तो पुराने प्राचारधर्म बदलने भी चाहिये । अहिंसा धर्म जड रूढिधर्म नही है । वह है वैज्ञानिक धर्म । विज्ञान के द्वारा जैसे-जैसे हमारा जीवविज्ञान, प्राणिविज्ञान बढ़ेगा वैमा हमारा अहिंसा का प्राचारधर्म भी अधिकाधिक सूक्ष्म बनेगा । विशिष्ट प्राणी मे या वस्तु मे जीव है या नही है इसकी खोज तो होनी ही चाहिये । जैन तीर्थकर और प्राचार्यों के दिनो मे जीव-सृष्टि का विज्ञान जहाँ तक वढा था, उसके अनुसार उन्हें ने अहिंसक धर्म का प्राचार-धर्म कैसा-कैमा होता है यह बताया । वे लोग अपने जमाने के विज्ञान-निष्ठ थे। अाज उसी प्राचीन वैज्ञानिक दृष्टि का हम ने म्पान्तर कर दिया है वचननिष्ठा मै और रूढिनिष्ठा मे। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंहिसा का वैज्ञानिक प्रस्थान 151 इधर आज की दुनिया मे, विशेष कर पश्चिम मे जीव-विज्ञान बहत कुछ आगे बढा है। जीव किसे कहे, किस चीज मे जीव तत्त्व कितना है, उसका विकास कैसे होता है, जीवो को मरण क्यो आता है, मरण से बचाने के लिये क्या-क्या करना चाहिये आदि अनेक बाते नये ढग से, नई दृष्टि से सोची जाती है और सोचनी चाहिये। यह है अनुसधान का विपय, न कि तीर्थकर, के, गणधर के, प्राचार्यों के प्राप्त-वचनो का अर्थ करने का। अगर हम वैज्ञानिक दृष्टि छोड कर व्याकरण, तर्क और दृष्टि-समन्वय के आधार पर चर्चा ही करते रहे तो वह दृष्टि वैज्ञानिक न रह कर वकीलो के जैसी चर्चात्मक ही बन जायेगी। इसलिये हमे जीवविज्ञान मे, मनोविज्ञान में और समाजविज्ञान मे अनुसधान करना होगा। प्रयोग और चिन्तन चला कर गहरा अनुसधान करना पडेगा और वह भी हमारी निजी मौलिक दृष्टि से । पश्चिम के प्रयोग-वीरो ने जो आज तक अनुसधान किया है, उससे हम लाभ उठायेंगे जरूर, लेकिन उनका प्रस्थान ही हमे मान्य नही है । पश्चिम मे वनस्पतिविज्ञान, जीवविज्ञान, कृमि-कीट आदि सूक्ष्म प्राणीविज्ञान, आदि विज्ञान के अनेक विभाग अथवा क्षेत्र दिन-पर-दिन प्रगति करते जा रहे है, लेकिन उनका प्रस्थान ही गलत है। सामान्य तौर पर नीचे दिये गये सिद्धान्त ही उनके बुनियादी सिद्धान्त है। (1) जिस तरह मिट्टी, पत्थर, पानी, सोना, चाँदी, लोहा आदि धातु, यह सारी भौतिक सृष्टि मनुष्य के उपयोग के लिये है, उसी तरह सारी की सारी मनुष्येतर सृष्टि भी मनुष्य के उपयोग के लिये है । वृक्ष, वनस्पति, कद मूल, फल आदि वनस्पति-सृष्टि मनुष्य के उपभोग के लिये है, उसी तरह कोट-सृष्टि, पशु-पक्षी, आदि द्विपाद, चतुष्पाद और वहुपाद प्राणियो की सृष्टि, पशु-पक्षी आदि स्थलचर, सॉप आदि सरिसृप और मछलियां आदि जलचर सब मनुष्य के आहार के लिये, सेवा के लिये, उपभोग और आनन्द के लिये है। इन्हे मार कर खाना, पकड कर काम मे लाना और उन पर अपना स्वामित्व रखना यह सव मनुष्य के अधिकार में आता है। (2) अगर इनकी संख्या कम होने लगी तो इनकी पैदाइश बढे, इनकी नई-नई नस्लें तैयार हो जाये और इनसे अधिकाधिक सेवा मिल जाय इसलिये सब तरह से पुरुषार्थ करने का भी मनुष्य को अधिकार है। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 महावीर का जीवन संदेश ( 2 ) वनस्पति- सृष्टि का और प्राणसृष्टि का उपयोग करते अगर कुछ नुकसान होता है, रोग होते है, बाधाये पहुँचती हैं, खनरे उठाने पडते है तो अपनी बुद्धि चलाकर इन सब चीजा का और प्राणियों का उपभोग निरावाध वन सके इसका इलाज भी ढूंढना । (4) और, इस तरह से वनस्पति और प्राणि सृष्टि पर अधिकार जमने के बाद उनसे जो लाभ होता है वह सारी की सारी मनुष्य जाति को मिल सके इसलिये आवश्यक वैज्ञानिक सशोधन करना, सगठन बढाने की शक्ति बढाना और अधिक-से-अधिक लोगों को अधिक-से-अधिक लाभ असानी से मिल सके ऐसी व्यवस्था काम मे लाना इन चार पुस्पार्थो मे मूल विचार है स्वामित्व प्राप्त करके उपभोग करने का । हिंसा का प्रस्थान विलकुन इसके विपरीत होगा । इसलिये हमारी फिजिकल लॅबोरेटरी मे वैज्ञानिक प्रयोगशाला मे, एनिमल हसबैडरी मे - पशु सवर्धन मे हमारी दृष्टि ही अलग होगी। हम कहेंगे कि वनस्पति, पशु-पक्षी आदि मनुष्येतर जीवसृष्टि को जीने का स्वतन्त्र अधिकार है । न हम उनके मालिक है, न उन पर हमारा कोई अधिकार है । बात सही है कि इनके बिना हम जी नही सकते, लेकिन इन्हे मारने का, इन्हे लूटने का, इनके परिश्रम से लाभ उठाने का हमे कोई नैतिक अधिकार नही है । इसलिये यह सारी स्वार्थी प्रवृत्ति घटाने की हमारी कोशिश होनी चाहिये । अहिंसा और मानवता की दृष्टि से हमे एक ऐसा म बाँधना होगा, जिसके द्वारा अपने जीवन मे हम हिसा को उत्तरोत्तर कम करते जाय । ग्राज गाय, बैल, भैंसे यादि बडे-बड़े जानवरो को अभयदान दिया, कल बकरे, मेढे, दुवे, हिरण श्रादि छोटे जानवर को मारना छोड दिया, परसो मासाहार मे मछलियाँ और अडे के बाहर मासाहार न करने का नियम बनाया, आगे जाकर प्राणी के शरीर से उत्पन्न होने वाले दूध घी आदि स्वाभाविक आहार की मदद लेकर धान्य, फल, सब्जी, कदमूल आदि अनाहार से सतोप माना, उसके बाद हिम्मत पूर्वक दूध आदि पदाथ अडेक जैसे ही त्याग मानकर उनके बिना चलाने की कोशिशे करना और दूध, घी आदि मासाहार के प्रतीको की जगह वनस्पति मे से हम क्या-क्या पैदा कर सकते है इसके प्रयोग करना, यह होगी हमारी हिंसावृत्ति की शोध खोज । अगर दूध देने वाली गाय पवित्र है, तो शहद देने वाली मधुमक्खी भी उतनी ही पवित्र है गौहत्या महापाप है तो शहद की मक्खियों को मारना, Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 153 अहिंसा का वैज्ञानिक प्रस्थान उनके छत्तो का नाश करना, धुओं और आग के प्रयोग से उनका नाश करना, यह सब हिंसा है, घातकता है और अनावश्यक क्रूरता है, यह भी समाज को समझाना चाहिये। रेशम के लिये जो हम कीटसृष्टि मे भयानक सहार चलाते है उसका भी हमे विचार करना होगा। इसमे इतना कहने से नही चलेगा कि इतनी हिंसा हम मान्य रखते है, वाकी की मान्य नहीं रखते। केवल मान्यता की ही बात सोची जाय तो उसमे अनेक पथ पैदा होगे ही और ऐसे पथो को मान्य रखना ही धर्म्य होगा। मनुष्य को मार कर खाने वाले समाज भी इस दुनिया मे थे । प्राचीन या मध्यकालीन जैन मुनियो ने ऐसो के बीच जाकर भी उन्हे अहिंसा की ओर आकृष्ट किया। इसके आगे जाकर पशु-पक्षी का मास खाने वाले लोगो ने गाय-बैल का मास छोडा, यह भी एक प्रगति हुई । लेकिन इतने पर से गाय-बैल का मास खाने वाले को हम पापी या पतित नही कह सकते, उनकी घृणा भी नही कर सकते। दुनिया मे बहुमती उनकी है। उनकी धर्मबुद्वि और हमारी धर्मवुद्धि मे फर्क है। ऐसे करोडो हिन्दू है, जो पूज्यभाव के कारण गाय-बैल का मास नही खाते, किन्तु इतर पशुपक्षिय का मास खाते हैं । ऐसे भी हिन्दू हैं जो बतक के अडे खाते है, किन्तु घृणा के कारण मुर्गी के अडे नही खाते । मुसलमान ऐमी ही घृणा के कारण सूअर का मास नही खाते । यहूदियो के भी अपने नियम है । और, हिन्दुनो मे भी गोमास खाने वाले नही सो नही। यह सारा विस्तार इसलिये किया है कि हम केवल आदर और तिरस्कार पर आधारित मनोवृत्ति के वश न होकर वैज्ञानिक ढग से प्रयोग करते जायें और सब के प्रति हम सहानुभूति रखे । और, अव अहिंसा की हमारी साधना केवल शास्त्र-वचनो पर और धार्मिक रस्मरिवाजो पर आधारित न रखकर उसे वैज्ञानिक सशोधन का विषय बनावे । आज तक पशु-हिंसा, निरामिपाहार, तपस्या और ग्राहार-शुद्धि इतनी ही दृष्टि प्रधान रख कर अहिंसा का विचार और प्रचार किया और पुराने जमाने की स्थूल वैज्ञानिक दृष्टि के अनुसार एकेन्द्रिय प्राणी, पचेन्द्रिय प्राणी आदि भेदो की बुनियाद पर अहिंसा के नियम बनाये । अब जब विज्ञान Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 महावीर का जीवन सदेश और खास करके जीवविज्ञान बहुत कुछ वढा है और हम नई बुनियाद लेकर जीवविज्ञान वढा सकते है । तब पुराने, कालग्रस्त जीवविज्ञान से हम सतोष न माने । जो बुनियाद मजबूत नही है उसे छोड दे और वचन-प्रामाण्य एव पुराने धर्मकारो के अनुयायित्व से सतोप न मान कर आध्यात्मिक दृष्टि से नये-नये प्रयोग करने के लिए हम तैयार हो जाएँ। इसके लिए पश्चिम की प्रयोगशालाओ से भिन्न अहिसा-परायण प्रयोगशालाओ की स्थापना करनी होगी। प्रयोग-वीर अध्यापक उसमे काम करेगे। सिद्धान्त और व्यवहार का समन्वय कर के मानव जाति के उत्कर्ष के लिए वे नसीहत देते जायेगे। उनकी नसीहत धर्म-पुरुपो की आज्ञा का स्प नही लेगी। जिसमे सत्यनिष्ठा है, अध्यात्मनिष्ठा है और अहिंसा की सार्वभौम दृष्टि जिसे मजूर है, उसके लिए अन्दरूनी प्रेरणा से जो बात मान्य होगी सो मान्य । हर एक जमाने के मानव-हितचिन्तक तटस्थ तपस्वियो की नसीहत ही धर्मजीवन के लिए अन्तिम प्रमाण होगी और अन्तिम प्राधार हृदय के सतोष का ही होगा। 'शुद्धहृदयेन हि धर्म जानाति ।' इसलिये केवल प्राचीन धर्मग्रथ और धर्मकारो के वचन से बाहर नही सोचने का स्वभाव छोडकर हमे वैज्ञानिक ढग से शुद्ध निर्णय पर आना होगा। और, केवल आहार और आजीविका के साधन के क्षेत्र से अपने को मर्यादित न करके अहिंसा-जैसे सार्वभौम, सर्वकल्याणकारी सिद्धान्त का उपयोग और विनियोग, युद्ध और शाति-जैसे जगत्व्यापी सवालो का सर्वोदयी हल हूँढने मे ऐसा करना जरूरी हो गया है। वशसघर्ष, वर्गसंघर्प आदि विश्वव्यापी भयानक संघों का निराकरण करके समन्वय की स्थापना करने के लिये अहिंसा की मदद कैसी हो सकती है, यह देखने के लिये ऋपि-तुल्य चिन्तन और विज्ञानवीरो की प्रयोग-परायणता एकत्र करनी होगी। ऐसा मिलान करने से ही सजीवनी विद्या प्राप्त होगी। इस दिशा मे प्रारम्भ करना ही सब से महत्त्व की बात है । प्रारम्भ होने पर भगवान् की ओर से बुद्धियोग मिलेगा और योग्य व्यक्तियो का सहयोग तथा दिशा-दर्शन भी मिलेगा। पूर्व के और पश्चिम के मनीषियो ने आज तक जो चिन्तन किया है, अनुभव पाया है, और प्रयोग भी किये है, उनको एकत्र ला से भविष्य की दिशा स्पष्ट हो सकेगी। किसी ने ठीक ही कहा है कि प्राचीन की योगविद्या और आधुनिक काल की प्रयोग-विद्या दोनो के समन्वय से सत्ययु की और धर्मयुग की स्थापना हो सकेगी। यह समय ऐसे नये प्रस्थान का है १५ अप्रेल १९६३ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामानव का साक्षात्कार क्षमापन का दिन धार्मिक व्यक्तिवाद • धर्मभावना का नयाल महामानव का साक्षात्कार Page #172 --------------------------------------------------------------------------  Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमापन का दिन [ १ ] लोग कहते है कि अति प्रभाव रूप ही है। मैं मानता हूँ कि गुण है । अगर ग्रहिमा के लिये नाव रूप कोई का उपयोग होता है। मैत्री मे दुरपयोग स्नेह में प्रात्मीयता दोषों को छोटे कर प्रेम या मैत्री | प्रेम का वह डर नहीं है । प्रसन में ग्रहिमा, मैगी घोर प्रेम या का भाव माना है | हम प्रपना भला पाहते रे, देखते हैं, अपनी भूलो यो क्षमा करते है और सुधर जाये के माप पर तुरन्न विश्वान करते है। जहां-जहां हमारे मन मे प्रारमीयता होती है, वहांवहाँ हमारी ये नव वृत्तियां न्वानाविता ने प्रकट होती है । प्रभाव रूप मोक्ष भी यह दोष नहीं है हन्तु या गया हो ता वह है अपने पराये का भेद भूलकर दूसरी भी ना चाहना, दूसरो के भले के लिये आराम के निये, स्वय फष्ट उठाना और दूगरी दोषों के प्रति क्षमावृत्ति रखना, यही है, वही है मैत्री भावना | जागंणीभावना है वहाँ वदला लेने की इच्छा नहीं होती । जब प्रमृनगर गजाव मे जनरल डायर ने हमारे लोगो की गल को और उनसे तरह-तरह ने पीठिन और अपमानित किया, तब गांधीजी ने सरकार से न्याय की मांग की। किन्तु माथ यह भी कहा कि हम जनरन शयर को गजा नहीं कराना चाहते । गांधीजी ने यह जो नया रप धारण किया उनमें कोई श्रानयं नही था, किन्तु मारे राष्ट्र ने कुछ मोचने के बाद उनकी हम बदला न लेने की नीति को तुरन्त मान निया | इस पर मे सिद्ध होना है कि हमारे देश को सस्कृति मे ग्रहमा हराई तक पहुँची हुई है। गांधीजी जैसे समर्थ कर्मयोगी ही लोगो के हृदय में पैठकर उनकी सोयी हुई ग्रहमा को जाग्रत कर सकते है । ग्राज का दिन क्षमा करने का श्रीर क्षमा मांगने का है । जिन महावीरी ने इस व्रत को, उस रिवाज की ग्रोर ऐसे दिनों की स्थापना की, उनके हृदय में सच्ची और जीवित श्रहिमा थी । वे शान्ति के साथ कायोत्सर्ग भी कर सकते थे । हम लोग मुँह मे ग्रहिमा का समर्थन भी करते है, और अन्याय करने वालो को सजा भी दिलाना चाहते है । इतना ही नही, किन्तु कई दफे पाप का बदला घोरतर पाप कर के ही लेना चाहते है । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 महावीर का जीवन संदेश हमारी सारी दुनिया इस दोष मे, इस नशे मे फंसी हुई है । हिटलर राष्ट्रीय पैमाने पर यहूदियो का ध्वस किया । स्टालिन ने अपने लोगो को आदेश देकर जर्मनो का द्वेप सिखाया । उसने अपने लोगो को कहा कि जब तक काफी मात्रा मे जर्मनो का द्वेप न कर सको तव तक तुम्हे विजय मिलने की नही है । आज अमेरिका हम से नाराज है, क्योकि हम रशिया का द्वेष नही कर पाते, उस की ओर तथा चीन देश की प्रोर शक की निगाह से नही देखते । आज चद लोग हम पर बहुत नाराज है, क्योकि हम पाकिस्तान से प्रचारित द्वेष-धर्म का बदला द्वेप-प्रचार से नही लेते । हमारे पुण्य-पुरुपो ने सिखाया कि द्वेष का शमन द्वेष से नही होता । वैर से वैर बढता ही है। वर का शमन अवर से ही हो सकता है । हिन्दू संस्कृति की बुनियाद का वचन है 'न पापे प्रति पाप स्याद् ।' पापी का बदला लेने के लिये हम स्वयं पापी न वने । मैत्री की दृष्टि से हम सब की ओर देखे | सव की ओर यानी मित्र, उदासीन, तटस्थ, शत्रु, पापी, अनाचारी, दुराचारी, श्राततायी और दभी ऐसे सब की ओर हम मैत्री भाव से ही देखे और चले । भारत सरकार ने पाकिस्तान के प्रति, अमेरिका और इग्लैण्ड के प्रति, जापान और चीन के प्रति यही भाव रखा है। अमेरिका जैसे अनेक देश इलिये हम पर भले ही नाराज हो किन्तु वे समझ गये है कि हमारी यह नीति ही श्रेष्ठ नीति है । पाकिस्तान कुछ भी करे, हम उन्हे श्रन्याय नही करने देगे, किन्तु साथ-साथ उन के प्रति मैत्रीभाव ही रखेंगे । वधु-भाव को न हम छोडेंगे, न भूलेंगे । मैंने अब तक आतरराष्ट्रीय क्षेत्र की बातें की। हमे अपने समाज के अन्दर भी यही क्षमा-वृत्ति और मैत्री भावना दृढ करनी चाहिये । हमारे हाथां किसी का अन्याय न हो और किसी का, उसने हमारा अन्याय किया इमलिये, हम द्वेष न करें । अन्याय का प्रतिकार प्रवश्य करें, किंतु वदला लेने की बात सोचें तक नही । लेकिन मेरे मन मे शका उठनी है कि ग्राज की इस मभा के जैमी सभायें करने से यह काम हो सकेगा ? Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 159 क्षमापन का दिन जब कोई नयी दवा बताई जाती है तब हम उसे श्रद्धा से ले लेते है । दूसरा चारा ही नही रहता है । किन्तु जब कोई पुरानी दवा हमारे सामने रखी जाती है, तब हम पूछते है कि क्या ऐसा कोई सबूत है कि इस दवा के सेवन से कोई आदमी रोग मुक्त हुआ है ? ईसाई धर्म के जगद्गुरु पोप हर साल वडे दिनो मे मैत्री भावना का उपदेश करते है और शान्ति के लिये प्रार्थना करते है । उनके उस प्रयास का कही कुछ असर नही दीख पडता । हमारे जैन भाई भी हर साल सब को क्षमा करते है, और सब से क्षमा की याचना भी करते है, लेकिन अन्य समाज की अपेक्षा हमारे जैन भाई अधिक क्षमाशील हैं, ऐसा कोई अनुभव नही है । साधुग्रो के वीच भी जो ईर्षा, प्रभूया पायी जाती है, वह शाब्दिक सकल्पो से और पवित्र सूत्रो के रटन से दूर नही होती । धर्म का रास्ता कभी इतना सस्ता नही होता है । आज हम अच्छे विचार व्यक्त करके या सुनकर सतोष न माने कि हमने आज कुछ किया । चद लोग तो ऐसा ही मानते है कि श्राज तक का पाप पश्चात्ताप करके धो डाला । अव नया पाप करने की छुट्टी मिल गयी । ऐसा कहकर भी हम थक गये है कि वोलने के दिन खत्म हो गये हैं । व कुछ करना चाहिये । व्रत त्योहार का दिन ग्रा गया, इस वास्ते कुछ करना चाहिये, कुछ कहना चाहिये । कम से कम एक अच्छा सकल्प करना चाहिये, ऐसा सोचकर हम इकट्ठा होते हे । सभा के अन्त मे मान लेते है कि हमने कुछ पुण्य कर्म किये सही । किन्तु ग्राज तक ऐसे जितने भी दिन मनाये उसका नतीजा क्या हुआ, सो भी सोचना चाहिये । अगर हम अतर्मुखी हो सके, निश्चय का बल लगाकर कोई सकल्प किया, तो आज का दिन हमने मनाया । एक बात मे हमने प्रगति की है सही। वह यह कि हम छोटे-छोटे फिरको के बाहर निकले । अच्छी बात सुनने के लिये अच्छा कार्य करने के लिये और अगर हो सके तो जीवन मे परिवर्तन करने के लिये हम अपने फिरके मे बधे नही रहते है । कूपमण्डूक वृत्ति हमने छोड दी है । अन्य धर्मी लोगो पर हम विश्वास करने लगे है । उनके साथ मेल-जोल बढा रहे है, उनकी बाते सुनने को तैयार हैं । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 महावीर का जीवन सदेश जिस तरह हम अपने व्रत-उत्सव मे औरो को बुलाते है उसी तरह हमे भी उनके व्रत-उत्सव में शरीक होना चाहिये। सिर्फ मुसलमानो की वात मै नही कर रहा हूँ। ईसाई, यहूदी, पारसी आदि सब धर्मों के और सब देश के लोगो के शुभ कार्यों मे हमे शरीक होना चाहिये । दिल्ली जैसे राजधानी के शहर मे दुनिया के सब देशो के प्रतिनिधि पाये जाते है । यहाँ हम सब से मिल सकते है, सब के साथ मैत्रीभाव बढा सकते है। यह भी कोई छोटी माधना नही है। [ २ ] प्रवृत्तिशील इस दुनिया मे सब लोग बाहर देखते है । दूसगे की टीका टिप्पणी करते है । यह देखकर उपनिषद् के ऋषि कहते हैं, 'विधाता ने जब शरीर मे आँख, कान आदि इन्द्रियों कुरेदी, तब उन्हे बाहर देखने वाली बनाया । अतर्मुख होकर अपनी ओर देखना और अपने गुण-दोष को पहचानना कोई बुद्धिमान आदमी ही कर सक्ता है-(परॉचि खानि व्यतृणत् स्वयम्भू तस्मात् पराड पश्यति नान्तरात्मन् । कश्चिद् धीर प्रत्यग् आत्मान ऐक्षत् आवृत्तचक्षु अमृतत्वमिच्छन् ।” अपने गुण-दोप देखने की आदत डालने के लिये हमारे पुरखो ने खास रिवाज, व्रत और त्यौहार बनाये है । उस दिन सुबह उठते ही मनुष्य अपने स्वभाव और जीवन की जांच करता है और जिस किसी का तनिक भी बिगाडा हो, किसी का अन्याय किया हो, मन से भी किसी का अहित सोचा हो, उसके पास जाकर उसकी क्षमा मांगने का रिवाज है । इस विधि को क्षमापन कहते है। इस क्षमापन मे मुख्य भाग तो अन्तर्मुख होकर अपने दोप को देखना और जिस किसी का अन्याय किया हो उसके पास जाकर अपने दोप का स्वीकार करना और बाद मे उसकी क्षमा मांगना है। अगर मैं हरएक के पास जाकर इतना ही कहूँ कि, "इस साल के दरमियान मेरी ओर से जो कुछ भी गलती हुई हो, दोप हुया हो, उसकी क्षमा कीजिये", तो उसमे से कुछ भी निकलता नही दीख पडता । सुनने वाला आदमी भी कह देता है 'बहुत अच्छा' । इसके अन्दर भी गहराई नही Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमपान का दिन 161 होती। फन इतना ही होना है कि दोनो के बीच अगर कुछ कटुता मा गई हो तो उसे छोडने का थोडा-सा मौका मिलता है और प्रौपचारिक क्षमा करने के वाद उस साल मे हुए झगडे का जिक्र आदमी नहीं कर सकता। अच्छा रास्ता तो यह है कि दोनो व्यक्ति वैठ कर शान्ति से क्षमावृत्ति से वाते करें। अपने जो दोष ध्यान मे आ जाये, उनका नाम लेकर क्षमा मांगे और एक दूसरे के सद्भाव की याचना करे। वह दिन सचमुच एक नया प्रारम्भ करने का दिन है। महाराष्ट्र मे मकर सक्रान्ति के दिन लोग स्नेह और मिठास के प्रतीक तिल और गुड एक दूसरे को देकर मद्भाव की याचना करते है। उसमे क्षमापन का हिस्सा नही है । ऐसा माना गया है कि जहाँ सद्भाव पाया वहाँ मन मे कटता रह नहीं सकती। बहुत-सी बाते तो मनुष्य भूल ही जाता है। और चन्द वाते मन मे रही भी, तो वह चुमती नही । द्वप का कचरा दूर करने के लिये बुहारी लेकर उसके पीछे पड़ने की जरूरत नहीं है । प्रेम पैदा हुपा तो द्वैप आप ही आप गायव हो जाता है। जैसे धूप निकलते कहरा। गुजरात मे, खासकर के जैनियो मे क्षमापन का सुन्दर रिवाज है। वे कहते हैं-मिय्या मे दुष्कृत स्यात् - मैने जो कुछ भी बुरा किया हो वह नही किया जैसा हो जाय । मायावादी वेदान्ती इस प्रार्थना का रहस्य जल्दी और अच्छी तरह से समझ सकेगे । जो लोग सारे जगत की हस्ती को मायारूप मानने के लिए तैयार हैं, वे क्सिी के भी दुष्कार्य को मायारूप समझकर मिथ्या मान कर उसे भूल जाने के लिये आसानी से तैयार हंगे। जो हो, अन्तर्मुख होकर अपने दोपो को देखने का स्वभाव हरएक को बढाना चाहिये । अभिमान छोडकर अपने दोप कबूल करने में मानसिक आरोग्य है और सामाजिक सुगन्धि है, यह पहचानना चाहिये । दूमर के दोपो को क्षमा करने की तत्तरता मन मे होनी चाहिये और समाज मे परस्पर सद्भाव वढाने का अखण्ड प्रयत्न चलना चाहिये। मनुष्य-मनुष्य के वीच ऐसा वायुमण्डल पैदा करने की आवश्यकता स्पष्ट है। लेकिन भक्त लोग भगवान् के पाम से भी नित्य क्षमा मांगते हैं। ऐसे अपराध-क्षमापन के स्तोत्र भी बनाये गये है, जिनमे अपने सारे दोपो की फेहरिम्न भी होती हे और भगवान् को उसकी उदारता, उसका वात्सल्य और उसके सामर्थ्य की याद भी दिलाई जाती है। अपने दोपो को यादकर के Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 महावीर का जीवन संदेश पश्चात्ताप से पानी-पानी हो जाना स्वाभाविक है, योग्य है । लेकिन भगवान् को उसके कर्त्तव्य की याद दिलाना और लेनदार पैसे वसूल करता हो वैसे भगवान् से क्षमा वसूल करना, अच्छा नही लगता । लेकिन भक्त सब तरह के होते है और लोगो को भी तरह-तरह के स्तोत्र भाने है । जो हो, क्षमापन का वायुमण्डल औपचारिक, कृत्रिम और यान्त्रिक न बने तब तक ही उसका कुछ उपयोग है । जो एक दिन के लिये बताया गया है, वह हमेशा के लिये रहे, यही है अन्तिम उद्देश्य । १५ सितम्बर १९५९ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक व्यक्तिवाद "दुनिया भले ही मान ग्रायें, मैं तो श्रमाहारी ही रहेंगा, दुनिया भने कल-कारखाने और बडे-बडे शहर की संस्कृति चहाती जाये, 1 मे ग्रपने इर्दगिर्द गांव का वातावरण ही सभाले रहेंगा, दुनिया भले युद्ध की तैयारियों करे, और समय-समय पर खूनखार युद्ध चलाने में हाथ नहीं दूँगा और युद्ध मे रोक नही हूँगा, दुनिया मने विलाम और मनाचार में टूब जाय, मैं अपने लिये निर्विवारिता और ब्रह्मचयं का ही भागा, दुनिया मे भले प्रव्जपतियो का राज्य चने में तो किचन, परिग्रही रहूँगा, दुनिया में भने पटिन-मे-जटिन पवनवन चढता जाम, मैं अपने जितना स्वावनवन और स्वयंपूर्णता लेकर बैठूंगा--" यह है भारत में धर्म पानन का तरीका | दुनिया में बने हो धमं वले, मेरा गपना व्यतिगन जीवन धर्मपरायण हा तो मुझे तोप है। धमनिष्ठ लोगों का यह व्यक्तिवाद है । 1 व्यापारी कहता है 'मे अपना स्वार्थ मनान लूँगा. मेरे यहाँ आकर चीज खरीदने वाले ग्राहक उना अपना स्वाथ समाने में क्यों उनके स्वाथ को मभालने का जिम्मा लू? Let the buyers beware हर एक अपनेअपने स्वार्थ को गभाल लेगा तो दुनिया में श्राप-ही-प्राप धम की याने गवके स्वार्य की रक्षा होगी ।' यह हुआ स्वायं का व्यक्तिवाद । क्या पहने धार्मिक व्यक्तिवाद मे और दूसरे स्वार्थ के व्यक्तिवाद मे कोई विशेष फर्क है ? धार्मिक व्यक्तिवाद कहना है कि एक श्रादमी अगर अपने धर्म का शुद्ध और परिपूर्ण पालन करे तो श्रीरी को धर्म का पालन करना ही पडेगा । वे उदाहण देते हैं कि नौग्स फ्रेम (चोयटा) का एक कोना पकडकर अगर हमने उसे ठीक काटफोन बना दिया तो बाकी के कोन श्राप ही ग्राम काट-कोन वन जायेग । यह श्रद्धा ठीक है | जब तक चार ही कोने वाली फ्रेम का सवाल है, मिद्धान्त ठीक बैठता है । लेकिन अगर फ्रेम के कोने वढ गये तो एक कोन ठीक करने मे वाकी के आप ही ग्राप ठीक नही होते । I उसमें कोई शक नही है कि मेरा अधिकार मेरे जीवन तक ही मीमित है | लेकिन मेरा वर्त्तव्य वहाँ पूरा नहीं होता। मैं अपने को तो जरूर समालू Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 महावीर का जीवन संदेश लेकिन दूसरे का भी मुझे सोचना चाहिये । उसके विना मेरी धार्मिक साधना पूरी नही हो सकती। मैं अगर अपने धर्म का पालन नही करूंगा तो औरो के धर्म की सोचने की योग्यता और शक्ति मुझ मे नही आएगी । इस सत्य को तो कोई इन्कार नही कर सकता । साथ-साथ यह भी कबूल करना होगा कि अगर मै औरो की बात सोचने से इन्कार करू, ओरो के हितग्रहित के प्रति उदासीन बनू तो मै अपने व्यक्तिगत धर्म का पालन करने की शक्ति भी खो बैठूंगा । व्यक्ति अकेला धर्मपालन की साधना कर सकता है । किन्तु ले की धर्म-साधना चल नही सकती । सारे विश्व मे परस्परावलवन है । मै अकेला मास न खाऊँ इस से प्राणी नही बचेंगे। अगर मासाहार का विरोध करना है तो भे भी मास न खाऊँ और औरो को भी मास छोडने की प्रेरणा । ऐसा करने से ही मास-त्याग के आदर्श की व्यवहारिता और मर्यादा मेरे ध्यान मे आयेगी । अगर मै शस्त्र धारण करने से इन्कार करू, किसी से नही लडने का निश्चय कर बैठ जाऊँ तो मेरी और सब की रक्षा का वोझ मैं औरो के सिर पर डाल दूँगा । इससे झगडा, युद्ध और हिंसा वन्द होने के नही । गाँधीजी अगर अपनी ही वात सोचकर बैठ जाते तो सत्याग्रह का आविष्कार न होता । जो लोग स्वय अपरिगही रहते है उनके कारण रो को अपना परिग्रह aढाना पडता है । गृहस्थाश्रम के प्रादर्श मे यह बात स्पष्ट की है कि गृहस्थाश्रम पर आधार रखने वाले माधु, सन्यासी, विरक्त, वानप्रस्थ, वीमार, वृद्ध, बालक, प्रतिथि-अभ्यागत इन सब के लिये भी गृहस्थ को कमाना हे । ये सव उसके श्राश्रित है । गृहस्थाश्रम का यह प्रादर्श मजूर रखते हुए भी कहना पडता है कि आश्रितो का जीवन धर्म- जीवन नही है । अगर अनेकों का बोझ उठाने का भार गृहस्थाश्रम पर लाद दिया तो हमने ममाजसत्तावाद का, सोशियालिजम का, वीज वो ही दिया । सन्यासी क्यों न हो उसे अगर अन्न खाना है तो उसका धर्म है कि कम-से-कम अपने पेट के जितनी खेती वह जरूर करे । स्वावलबन जरूर सबमे श्रेष्ठ धर्म है । परावलवन शुद्ध धर्म ही हैं । आवश्यक परस्परावलवन है सच्चा सामुदायिक धर्म । अनेक देश अनेक सम्प्रदाय, अनेक जाति और अनेक पेशो मे विभक्त मानव-जीवन एक और अविभाज्य है । सब का मिल करके धर्म भी नही है अपने-अपने व्यक्तिगत धर्म याने कर्तव्य का ही मव का माचने की और सब की सेवा करने की सव के प्रति उदासीन होने मे, सेवा-धर्म का इन्कार होती है । धार्मिक व्यक्तिवाद अन्धा है, व्यर्थ है । मार्च 1951 यथाशक्ति पालन करने मे योग्यता प्राप्त होती है । करने में, धर्म-हानि हो Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म-भावना का सवाल मैने भगवान महावीर को ग्रास्तिक- शिरोमणी कहा है । जव सनातनी पण्डित भारतीय दर्शन के बारे में सोचते है तब ग्रास्तिक और नास्तिक ऐसे दर्शनो के दो भेद करते हैं । इस भेद मे आस्तिक-नास्तिक का अर्थ कुछ ग्रलग है । वेद का प्रमाण मानने वाले दर्शन आस्तिक, नही मानने वाले नास्तिक | ( नास्तिको वेदनिन्दक 1) इस हिसाब से निरीश्वरवादो साउथ ग्रास्तिक है, क्योकि वे वेद को प्रमाण मानते हे । मै जव भगवान् महावीर स्वामी को चास्तिक - शिरोमणि कहता हूँ नब आस्तिक शब्द का मेरा अर्थ कुछ अलग हैं । 'मनुष्य - हृदन पर जिसका विश्वास है, दुरात्मा भी किसी-न-किसी दिन सज्जन बनेगा और महात्मा भी बनेगा ऐसा जिसका विश्वाम हे वह हे ग्रास्तिक । क्रूर से क्रूर आदमी भी किसी-न-किसी दिन दया-धर्म के असर के नीचे आयेगा और दया, करुणा, ग्रनुकम्पा तथा अहिंसा का पालन करते हुये चाहे जितने कप्ट सहन करेगा, अपना प्राण देकर भी दूसरे का प्राण बचाएगा, इतना जिसका मनुष्य हृदय की उन्नतिगीलता पर विश्वास हे वह हे श्रास्तिक | न्यायकारी नृगस भी किसी-न-किसी दिन न्याय का तकाजा ममझ जाएगा और कबूल करेगा और न्याय - पालन करने के लिए अपना स्वार्थ छोड देगा, अपना सर्वस्व खोने के लिये तैयार होगा, ऐना जिसका विश्वास है वह आस्तिक है ।' मनुष्य हृदय पर ऐसे ही विश्वास के कारण महात्माजी सब लोगो के प्रति प्रेम, आदर, विश्वास और प्राशा से पेश आते थे। अगर किसी ने महात्माजी को दन दफा धोखा दिया तो भी ग्यारहनी दफा उस पर विश्वास रखने के लिए वे तैयार होते थे । उनका कहना था कि 'अगर ग्यारह दफा उम ग्रादमी मे सच्वी उपरति हुई और सदाचार के रास्ते पर ग्राने का उसने प्रारम्भ किया और मैंने मेरे अविश्वास के कारण उसके प्रयन्न मे मदद नही की तो फिर मेरी श्रास्तिकता कहाँ गई ? अगर ग्यारहवी दफा भी उम आदमी ने मुझे ठगा तो उमे उसका नुकसान होगा। मेरा तो सचमुच कुछ भी नुकसान नही होगा । सत्याग्रही को कभी हारना है ही नही ।' Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 महावीर का जीवन सदेश भगवान् बुद्ध और भगवान् महावीर के जमाने मे हमारे देश के बहुतसे लोग मास खाने थे । बडे-बडे ब्राह्मण भी मास खाते थे । जनक जैसे थोडे लोग मास से निवृत्त हुए थे । वेद मे गाय को 'अघ्न्या' कहा हे । 'अघ्न्या' माने न मारने योग्य । तो भी पुराने जमाने मे गोहत्या होती थी । सनातनियो ने इस बात से इनकार नही किया है । घर मे ग्राये हुए मेहमानो को मधुपर्क अर्पण करते पशु हत्या करने का रिवाज था । राजा रन्तिदेव चर्मण्वती (चम्बल) नदी के किनारे वडे-बडे यज्ञ करते थे । तब इतने पशु मारे जाते थे कि नदी का पानी लाल रहता था और नदी के किनारे जानवरो के चमडे सूखने के लिए इतने फैलाये जाते थे कि लोगो ने नदी का नाम ही 'चर्मण्वती' रखा । नाहक का झगडा खडा न करने के हेतु मैने ऊपर की बाते सयम से लिखी है । प्राचीन भारत मे, और देशो के समान मनुष्य का मास खाने वाले लोग भी कही-कही पाये जाते थे । मनुष्य - मास के बिना जिसका चलता नही था ऐसे राजा का जिक्र भी पुराने ग्रथो मे पाया जाना है । मुसाफिरी करते जब किसी सौदागर की लडकी रास्ते मे मर गयी और सौदागर के पास खाने का दूसरा कोई अन्न था नही तव उसने अपनी लडकी का मास पका कर खाया ऐसे वर्णन भी उस जमाने के धर्म-ग्रन्थो मे पाये जाते है । , ऐसे गिरे हुये जमाने मे जिसके मन से अहिंसा-धर्म का उत्कट उदय हुआ और जिसने पशु-पक्षी तो क्या, कृमि-कीट की हिसा को भी पाप समझा उसकी कारुणिकता लोकोत्तर थी । सर्वत्र जव मासाहार प्रचलित या, नरमाँस खाने के किस्से भी सुनाई देते थे, ऐसे जमाने मे विश्वास और श्रद्धा के साथ प्रात्यति अहिंसा का प्रचार करना और विश्वास करना कि 'ऐसे लोग भी तेजस्वी धर्मोपदेश असर मे आ सकेगे और मासाहार छोड देगे, प्राणीहत्या से निवृत्त होगे' यह सर्वोच्च प्रास्तिकता का लक्षण है । किसी धर्म का हृदय मे जब उदय होता है तब उसका प्राचरण धीमेधीमे वढता है । कॉलेज के दिनो मे जब मैंने स्वदेशी का व्रत लिया तब शुरु मे घर मे परदेशी चीनी लाना बन्द कर दिया। लेकिन होटलो मे जाकर जव चाय पीता था और मिष्टान्न खाता था तव वहाँ स्वदेशी चीनी का ग्राग्रह नही Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म-भावना का सवाल 167 रखता था। आगे चलकर अपने और अपने मित्रो के घर मे स्वदेशी चीनी का आग्रह रखने लगा। होटल मे जाकर खाना छोड दिया । लेकिन मुसाफिरी मे परदेशी चीनी के पदार्थ ले सकता था। जब स्वदेशी का आग्रह आगे जाकर वढा तो स्वदेशी-परदेशी दोनो तरह की चीनी ही छोड दी। तब भी दवा के लिये स्वदेशी मिश्री लेने की छूट रखी थी। बुद्ध भगवान् ने अपने भिक्षुत्रो से कहा था कि जानवरो को मत मारो। धर्म के नाम से यज्ञ मे जो पशु मारे जाते थे उनका निषेध जैसा भगवान नेमिनाथ ने किया था वैसे भगवान् बुद्ध भी करते थे। लेकिन उन्होने अपने भिक्षुत्रो से कहा था कि मै मास भोजन का निपेध नही करना हूँ। अगर खास तुम्हारे लिये कोई पशु मारता है तो वह मास तुम्हे नही खाना चाहिये । लेकिन अगर कही किसी के घर पर मास पक ही गया है और वह तुम्हे खिलाता है तो ऐसा मास खाने मे हर्ज नही। शायद वुद्ध-महावीर के दिनो मे हर घर में मास पकता ही था । मासाहार न करने का नियम कोई भिक्षु करे तो उसे आसानी से भिक्षा नही मिलती और लोगो को भिक्षुमो के लिये खास अलग रसोई वनानी पडती। भिक्षुमो के अनेक नियमो मे यह भी एक नियम होता है कि अपने आहार के लिये गृहपति को कम से कम तकलीफ दी जाय । जो चीज अनायास मिले उसी से अपना भोजन सम्पन्न करे। भगवान् महावीर ने अपने समय के साधुनो के लिये कैसे नियम बनाये थे उसका स्पष्ट चित्र मिलना जरूरी है। लेकिन उस पर से हम अाज अपने लिये नियम नही बना सकते । __ जो मासाहारी थे उन्होने मासाहार का धीरे-धीरे त्याग किया। उसमे भी कई नियम बनाये गये थे। कैसे पक्षी या जानवर का मास खा सकते हे और कैसा मास नही खा सकते, इसके विस्तृत वर्णन मनुस्मृति आदि ग्रन्थो मे पाये जाते है। मनुष्य की प्रगति धीरे-धीरे और क्रमश हाती है। आज जैनियो ने वहुबीज कन्द और फल खाना भी छोड दिया है। जैन धर्म के इतिहास से हम देख सकते है कि हमारे लोग कहाँ थे और कहाँ पहुँच गये है । कभी-कभी उत्साह मे आकर लोग बहुत कुछ आगे वढने है और फिर अतिरेक से पछता कर सौम्य नियम बनाते है । चन्द साधु श्वासोच्छवास के द्वारा होने Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 महावीर का जीवन सदेश वाली सूक्ष्म कीटो की हिंसा कम करने के लिये नाक के नीचे मुहपत्ती वाँधते है। चन्द लोग नहीं बाँधते । स्वय महावीर स्वामी मुहपती बाँधते थे या नही सो हम नही जानते । वस्त्रमात्र का त्याग करने के बाद मुहपत्ती का तो शायद सवाल ही नही रहता। तो क्या महपत्ती न बाँधने वाले महावीर स्वामी अपने धर्माचरण मे कच्चे या शिथिल गिने जायेंगे ? जो माधु ग्राज मुहपत्ती बाँधते है उनकी अपेक्षा मुंहपत्ती न वांधने वाले साधु कम या हीन समझे जाये ? धर्म का विकास क्रमश होता है । पुराने जमाने के अच्छे-से-अच्छे लोगों का भी अनुमरण आज हम नही कर मकते। वेदकाल मे नियोग की प्रथा थी। वेदव्यास जी के दिनो तक वह प्रथा चान थी। आज उसे हम निन्द्य समझते हैं। व्यास जी का उदाहरण सुनकर अाज हम आज के लोगो के लिये नियोग का समर्थन नहीं करते और यह भी नीं कहते कि व्यास जी के नियोग का अर्थ ही कुछ अलग था। रामायण मे जिक्र पाता है कि श्री रामचन्द्र जी मृगया करते थे और मास खाते थे । सीता माता ने गगा नदी का शराव के घडो से अभिषेक किया था। लेकिन ऐसी पुरानी बातो से हम आज उनका अनुकरण करने को नही तैयार होते और पुरानी वातें छिपाना भी नहीं चाहते । एक वात यहाँ स्पष्ट कर दूं। मै जन्म से निरामिष भोजी हूँ। न कभी मास खागा है और न पाइन्दा खाने की सम्भावना है। मैं आहार के लिए प्राणियो की हत्या करना पाप समझता हूँ। दिल से च हता हूँ कि मनुष्य जाति प्राणी हत्या छोड दे, मामाहार भी छोड दे। लेकिन किसी को मास छोडने की नमीहत देते कई वाते सोचनी पडती है। पुराने जमाने मे लोग अपने व्यक्तिगत धर्म का या सामाजिक धर्म का जब विचार करते थे तव समस्त व्यापक दुनिया का ख्याल उनके सामने हमेशा नही रहता था। नैतिक प्रादर्श के आधार पर वे धर्म-निर्णय करते थे और वह योग्य भी था । आज व्यवहार की दृष्टि से भी सोचना पडता है । गाँधीजी ने कहा भी है कि जो धर्म व्यवहार की कसौटी पर खरा नही सिद्ध होता वह शुद्ध Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म - भावना का मवाल धर्म नहीं है । अब मामाहार-त्याग का श्रादर्श दुनिया के सामने रखते चन्द वाते मोचनी चाहिये | दुनिया को सुधरी हुयो सब सरकारें हर बात के प्रांकडे इकट्ठा करती हैं और जागतिक सम्यायें उनका अध्ययन करती है । इसलिये अव मोचना होगा कि मनुष्य जाति में खाने को माग बागे मुंहे कितने हैंयानी मनुष्य मख्या कितनी है ? माय गाथ यह भी सोचना पड़ेगा कि दुनिया मे गेहूँ, चानन गारु, फन यदि ग्राय परार्थ तिन पैदा होते हैं ? गर धान्याहार, फलाहार और शाकाहार में उतनी लोक-मख्या को हम जिन्दा नही रख मरते हैं तो नाहार को मदर मे ग्रण्टे खाने की उजाजत दे सकते हैं " मनुष्य के जैन नाम लेने वाले पशु-पक्षियों को मभयदान देकर जलचर मछलियों को खाने की इजाजत दे सकते हैं " 169 ये दोनो सुझाव या पर्याय हमारे या हमारे जमाने के र प्रगति करने की इच्छा रखने वाले नोगा ने ये मन्जिने मोची है । हिना नहीं है । बीच को हमारे देश मे गौरा का प्रादर्श भी उसी वृत्ति से स्थापित हुग्रा है । जानपरा को तो नही मारना और हल चनाने में, गाडी या ये गाय-चैन को नोनि-धर्म के पशुयों को मार कर खायें तो भी गाय जैम चाहिये, क्योंकि उनमे हमे दूब मिनना है। कोण खीचने मे वैन की मेना जरूरी है। अन्दर लाना चाहिये, यानि उन्हे अपने कुटुम्बी समजकर उनकी रक्षा श्रीर उनका पालन करना चाहिये । हिन्दू धर्म कहना है कि गो-रक्षा धर्म अगर मनुष्य को जँच गया तो वहां से हृदय के विकास का प्रारम्भ हुया । फिर तो प्रादमी धीरे-धीरे मव प्राणियों के प्रति ग्रहिमावृत्ति बढाता जायगा । श्रव आहार का मवान लेकर मनुष्य जाति को बताना होगा कि मामाहार के त्याग को कैसे मफन करें। उसके रास्ते दो है । या तो ग्रन्नोत्पत्ति हम जोरो मे बढाये या मनुष्य की प्रजोत्पत्ति का कुछ नियन्त्रण करें, या दोनो उपाय एक साथ चलायें । मामाहार त्याग का प्रचार करने वाले को इस रचनात्मक प्रवृत्ति से प्रारम्भ करना होगा और जब तक श्राहार और लोक संख्या के मवाल को हल नही किया, मामाहार त्याग का श्रादर्श मनुष्य जाति के सामने अन्तिम श्रादर्श के रूप मे रखते हुये भी मामाहारी लोगो के प्रति धैर्य के साथ सद्भाव रखना होगा। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 महावीर का जीवन सदेश मामाहार ताममी है, मासाहार से मनुष्य क्रूर होता है, ऐसी बातो का प्रचार करने के पहले इस दिशा मे भी पूरा सशोधन करना चाहिये । केवल व्यक्तियो के जीवन मे भी देखा जाय तो मासाहारी लोगो मे न्यायनिष्ठ, दयाधर्मी, कारुणिक लोग भी पाये जाते है और इससे उलटा क्रूर, कठोर, कपटी, श्रन्याई लोग भी पाये जाने है । धान्याहारी लोगो मे भी वैसा ही है । मासाहारी- समाज और धान्याहारी समाज की व्यापक तुलना करने पर भी ऐसा ही पाया जाता है | धान्याहारी लोग अधिक दयावान न्यायनिष्ठ, नि स्वार्थी और विश्ववात्सल्य के उपासक है, ऐसा नही पाया गया । विपय सेवन के वारे मे भी अनुभव ऐसा ही है । भर्तृहरि ने उदाहरण दिया ही है कि हाथी और वन-वराह का मास खानेवाला सिंह साल भर मे किसी एक ही समय रति-सुख लेता है और कीडे भी नही खाने वाला कबूतर हर हमेशा रति-सुख मे ही फसा हुआ रहता है | हमे तो एक ही बात सोचनी है । प्राणी की हत्या करने मे पाप है और प्राणियो को मारने का मनुष्य को अधिकार नही है । ये बाते दुनिया के सामने हम सौम्यता से रखते जाये और ऊपर बताये हुये दो सवालो का हल ढूँढते जाये । राम वनवास मे शिकार करते थे और सीता मास पकाकर उनको खिलाती थी, यह बात हम लोगो के सामने रोज-रोज रखने की कोशिश न करे | लेकिन अगर किसी ने रामायण के श्लोक उद्धृत करके यह बात हमारे सामने रखी तो हम उसके ऊपर चिढ भी न जायें । हम इतना ही कह सकते है कि हम रामचन्द्र जी से वचननिष्ठा, प्रजानिष्ठा, पितृभक्ति आदि बाते सीख सकते हे | हमारे आहार का धर्म उनके पास से हमने सीखने का नही सोचा है, अथवा, हम यह भी कह सकते है कि ऐतिहासिक राम अपूर्ण हो सकते है अथवा, उनके जमाने के आदर्श के अनुसार पूर्ण होते हुये भी आज के हमारे आदर्श के अनुसार अपूर्ण हैं । जिन की हम पूजा और उपासना करते है वे राम तो प्रत्यक्ष भगवान् है । उनकी जीवन लीला तो एक रूपक ही है । महात्मा गाँधी ने अपनी युवावस्था मे मास खाया । उसका वयान उन्होने स्वय किया है । इस पर से उनका माहात्म्य कम नही होता और हम यह भी सिद्ध करने की कोशिश नही करते कि उन्होने जो खाया सो मास नही था किन्तु खुमी (भूछत्र) था । चन्द लोग मास और माष का साम्य लेकर कहते है जहाँ मासाहार की बात श्राती है वहाँ माष यानि उडद का अर्थ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म-भावना का सवाल 171 लेना चाहिये । चन्द लोग यज्ञ करते हुये भी उसमे पशु-हत्या न करते हुये उडद के आटे का पिष्ट-पशु बनाते थे। प्राचीन काल के ऐतिहासिक सबूतो के साथ हम ऐसी खीचातानी क्यो करे ? भगवान् बुद्ध ने बिगडे हुए मास का बनाया हुया पदार्थ खाया होगा और उप्तसे उनका देहान्त हुमा होगा । सचमुच शूकर मद्दव क्या था ? इसकी खोज हम कर सकते है । लेकिन अगर यह सिद्ध हुआ कि भगवान् बुद्ध ने खाया था वह मास ही था तो हम समझ जायेगे कि बुद्ध भगवान् ने आखिर तक मासाहार त्याग का निश्चय नही किया था। हम यह दलील करने नहीं बैठेगे कि जब स्वय बुद्ध भगवान् ने आखिर तक मास खाना नही छोडा था तो फिर हम क्यो छोडे ? जिसे छोडना है वह तो मासहार छोडेगा ही और जिसे नही छोडना है उसे अगर बुद्ध भगवान का उदाहरण नहीं मिला तो और किसी का मिलेगा। किसी असती, कुलटा की बात है कि उसके रामायण-महाभारत सुनने के बाद किसी ने उससे पूछा कि इन पवित्र ग्रन्यो के पढने से तुम्हे क्या बोध मिला ? उसने तुरन्त कहा, 'द्रौपदी के पाँच पति थे।' सीता, सावित्री, मन्दोदरी, गान्धारी की वाते भी तो उन ग्रन्थो मे थी। ऐतिहासिक सशोधन के बारे में हमे नाजुक बदन, चिडचिडा या touchy नही बनना चाहिये । सत्य निर्णय के लिये वाद-विवाद चाहे जितना चले, उसमे धर्म-भावना की वात नही लानी चाहिये । _ 'रिलिजियस लीडर्म' किताव के बारे मे जो चर्चा चली और काण्ड हुआ, उस पर से हमे वोध लेना चाहिये । वह किताब मैने पढ कर देखी, मारी पूरी नही, किन्तु इस्लाम के नवी के बारे में जो लिखा है, और गांधीजी के बारे मे जो लिखा है उतना पढ गया। लिखने वाले की नीयत के बारे मे मन मे प्रादर पैदा नही हुमा । भगवान् श्रीकृष्ण के जमाने मे उनके बारे मे लोगो ने भला-बुरा बहुत-कुछ कहा था । कृष्ण भक्तो ने कृष्णचरित्र लिखते वे सव वाते लिख रखी है। उस पर से हम इतना ही वोध लेते हे कि दुर्जन तो क्या, अश्रद्धालु टीकाकार भी ऐसा ही सोचेगे और ऐसा ही कहेगे। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 महावीर का जीवन सदेश जब जैन धर्मी लोग मानते है और कहते है कि 'श्रीकृष्ण फिलहाल नरक मे है और आगे जाकर किमी समय उनका उद्धार होगा' तव हम उनसे झगडा नही करने बैठते । इतना ही नही हम उनको दुर्जन भी नही कहते । भारतीय संस्कृति को यह लक्षण है, यह खूबी है कि सत्य की खोज में हम निष्ठुर रहते है और किसी की धारणा गलत रही तो उस पर चिढते नही । अगर कोई सनातनी आन्दोलन उठाये कि जैन-ग्रन्थो मे श्रीकृष्ण के बारे मे जो कुछ लिखा है उसे हटाया जाय, तो मै उसका विरोध करूंगा। हम एक सस्कारी राष्ट्र है । नाजुक बदन या चिडचिडे बनने का समय कब का चला गया। प्राचीन काल के साहित्य मे तरह-तरह की वाते होती है । उस जमाने का मानस समझने के लिये वे सब काम की है। उनकी ऐतिहासिक और तात्त्विक चर्चा चलने से किसी का नुकसान नहीं होता। सिर्फ सज्जनता की मर्यादा का भग न हो । अब रही धर्मानन्द कोसम्बी की पुस्तक की बात | ने उस ग्रन्थ का मैं लेखक हूँ, न प्रकाशक । इस ग्रन्थ मे क्या-क्या है वह सब मैने पढा भी नही था । इस ग्रन्थ के प्रकाशन के बारे मे मैने साहित्य अकादमी को सूचना नही की थी। जब मुझ से पूछा गया तब मैने जरूर कहा कि धर्मानन्द उच्च कोटि के सशोधक है । बौद्ध धर्म के बारे मे उनका ज्ञान असाधारण गहग है, जैन धर्म के प्रति श्रद्धा भक्ति रखने वा ने उनके जैसे बौद्ध बहुत कम होगे। जन्म से ब्राह्मण होने के कारण हिन्दू धर्म के बारे मे टीका-टिप्पणी करने का उनका अधिकार विशेप है । इस टीका-टिप्पणी मे कभी-कभी कटुता भी आ जाती है, जिसकी ओर प सुखलालजी ने इशारा भी किया है । उन्होने गीता के बारे में और महात्मा गाँधी के बारे मे भी जो-कुछ लिखा है उसके साथ सब कोई सहमत नही हेगे। लेकिन उनकी उस टीका-टिप्पणी से न कभी महात्माजी को बुरा लगा, न हममे से किसी को । उनके मन मे महात्माजी के प्रति असाधारण श्रद्धा भक्ति थी। धर्मानन्दजी का जीवन साधु का जीवन था । मै उनसे कहना था कि आप पार्श्वनाथ के शिष्य बन गये हैं। पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म पर उन्हें ने एक महत्व का ग्रन्थ लिखा है। उनके देहान्त के बाद मैंने प्रकाशित करवाया है । जैनियो से मेरी सिफारिण है कि खूव गौर से उसे पढे और धर्म-जीवन का एक आधुनिक तरीका उससे समझ ले। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 173 मेरी प्रार्थना से और जैनियों के धर्म-भावना का सवाल 1 मासाहार के बारे मे उन्होंने जब लिखा तब वे अहमदाबाद मे रहकर गुजरात विद्यापीठ मे काम करते थे बीच ही रहते थे । उनके लेख से जब गुजरात मे खलबली मची तव सत्यशोधक धर्मानन्दजी ने एक निवेदन जाहिर किया और कहा कि बात सत्य-शोधन की है । इस मे कटुना लाने का कारण नही हे । श्राप लोग गुजरात के किसी हरसिधभाई दिवेटिया जैसे सर्वमान्य हाइकोर्ट जज को निर्णायक के नौर पर नियुक्त कीजिये । मेरी बात मै उनके सामने रखूंगा, ग्राप लोग अपनी चात रखिये । निर्णय अगर मेरे विरुद्ध हुआ तो मै मेरा लिखा हुग्रा वापस खीच लूंगा और सब से क्षमा मागूँगा । निर्णय ग्रापके विरुद्ध हुआ तो ग्रापको मेरी क्षमा माँगने की जरूरत नही है। चर्चा खत्म कर दे तो काफी होगा । किसी ने इस चुनौती को स्वीकार नही किया और चर्चा शान्त हुई । इसके बाद गुजरात विद्यापीठ के अध्यापक गोपालदास ने भी इसी विषय पर लिखा या । तब भी काफी चर्चा हुई और फिर से लोग शान्त हुये । मेरे मित्र श्री लाड ने धर्मानन्दजी के पास बौद्ध धर्म का अध्ययन किया था । धर्मानन्दजी के समग्र ग्रन्थ प्रकाशित करने की इजाजत जव लाड साहब ने उनसे माँगी तव उन्होने कहा, “मैं खुशी से इजाजत दूंगा, इस शर्त पर कि जो कुछ मैंने लिखा है वह वैसा का वैसा ही छापा जाय। उसमे एक शब्द का तो क्या, स्वल्पविराम का भी फर्क न हो ।” ग्रन्थकार को ऐसा वचन देने के वाद और खास करके उनके देहान्त के बाद उनके ग्रन्थो मे से कुछ निकालना योग्य नही होगा । भगवान् बुद्ध के चरित्र के वारे मे जो कुछ मौलिक मसाला मिलता है उसे छानकर और आज तक जितना संशोधन हुआ है उसका पूरा अध्ययन करके धर्मानन्दजी ने एक प्रमाणभूत ग्रन्थ लिखा है । भारतीय संशोधन का वह उत्कृष्ट नमूना गिना जाता है । बौद्ध धर्म और जैन धर्म दोनों के अध्ययन के लिये ये दो ग्रन्थ - 'पार्श्व नाथ का चातुर्याम धर्म' और 'बुद्धचरित्र' हरएक को विवेचक बुद्धि से पढ़ने चाहिये | Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का जीवन सदेश सिद्धार्थ गौतम ने गृह त्याग क्यो किया, इसके वारे मे गत्रेपणा करते जो कल्पना धर्मानन्दजी को जच गई उसे समझाने के लिये उन्होने 'वोधिसत्व' नामक एक नाटक लिखा है । वह भी पढने लायक है, क्योकि उसमे शाक्य मुनि के समय की राजनीतिक परिस्थिति का चित्र हमे मिलता है और गृहत्याग के पीछे रहे हुये राजनीतिक हेतु के बारे मे भी सोचने को मिलता है । 174 24-12-56 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामानव का साक्षात्कार पर्युषण पर्व व्यारयान - माला के साथ मेरा सम्वन्ध माला के प्रारम्भ से हो रहा है । अहमदाबाद, बम्बई, कलकत्ता, उन्दीर, श्राकोला प्रादि में मैने पर्युषण पर्व के अवसर पर व्याख्यान दिये है । और बम्बई की व्याज्यान माना मैं ग्राम तौर पर हर साल हाजिर रहा ही हूँ । उगमे अगर विन्न श्राया है तो स्वराज - प्रान्दोलन के फलस्वरूप जेल -याना में ही । मे पर्युपण-पर्व व्याख्यान माला गुरु हुई और जब वक्त एक सनातनी जैन माई ने कुटकर मुझे लिखा था जिस तरह की रूढि हमारे जात- भाइयो मे चली आई है उसे तोड़ने का काम श्री परमानन्द भाई जैसे लोग करते हैं । ग्राप जैनेनर है । श्रत ग्राम जैगी को उसमे क्यो हिस्सा लेना चाहिये ? इस व्याख्यान-माना मे बडे-बडे लोग नाकर व्याख्यान देते है । फिर ढिगत कार्यक्रम का भाव कौन पूदे 2 ग्रामको चाहिये कि आप इस पर्यु पण व्याख्यान माला मे हिम्मा न ले ।" लोकप्रिय हुई, उस "पयुषण पर्व मे उस माई के शब्द बहुत ही मौम्य मापा मे मैंने यहाँ दिये है । उम व्यारयान - माला को यह एक उत्तम सर्टिफिकेट मिला है, ऐसा उस वक्त मैंने माना था। लेकिन साथ-साथ यह विचार भी किया था कि उम भाई को रूढिचुस्त श्रात्मा की भावना को समालने के लिये उम व्यान्यान-माला के साथ का अपना सम्बन्ध में क्यो न तोड दूँ ? फिर मुझे खयाल थाया कि उस माला मे व्याख्यान करने के लिये जिन भाइयो को बुलाया जाता है, वह जैन हो या जैनेतर, उन सब मे जैन धर्म के मुख्य सिद्वानो के प्रति सच्चा हार्दिक श्रादर रहता है । जैन धर्म के स्याद्वाद और सप्तभगी न्याय का प्रत्यक्ष श्रोर जीवन्त उदाहरण इस व्याख्यान - माला मिलता है । सर्व धर्म समन्नय, धारिकता के प्रति उच्च भावना, धर्म के आधार पर ममाज-सुधार का चिन्तन और सामाजिक सम्बन्धो मे विशाल हृदय की श्रात्मीयता को भावना, इस माला के यह सब गुण देखकर मुझे लगा कि रुढिवादी एनराजो के वश होना श्रावश्यक नही हे । यथासमय रूढिवादी जैन भी इस प्रवृति को अपना लेंगे । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 महावीर का जीवन सदेश ___ इतने साल का इस माला का कार्य देखते और उसका सिंहावलोकन करते हुये, इस माला के प्रति आदर पैदा होता है। माला की लोकप्रियता से होन्मत्त होकर इस प्रवृति पर असह्य नये बोझ लादने की भूल प्रवर्तको ने नहीं की, यह अभिनन्दनीय है । प्रवर्तको की यह प्रौढता इस माला को पोपक सिद्व हुई है। माला ने बम्बई के संस्कारी गुजरातियों मे-केवल जैनो मे ही नही बल्कि इतर लोगो मे मी-जो विचार की उदारता कायम की है वह कोई मामूली कार्य नहीं है । अाज हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी, सुधारक, उद्धारक सव तरह के लोग इस माला मे भाग लेते है । और, श्रोता-लोग विवेक और आदर पूर्वक उनकी बाते सुनते है और अपनाते है। भगवान् महावीर का जीवन चरित्र, अहिंसा और उनका तपस्या प्रधान उपदेश, जैन धर्म के सिद्वान्त की खूवियाँ और वारीकियां इत्यादि विषय तो इममे होते ही है। इसके अलावा धर्म के विनिमय के तमाम साहित्यिक, सामाजिक, आर्थिक और अन्य शास्त्रीय क्षेत्र भी यहाँ खोले जाते हैं और विकसित किये जाते है। मैने खुद यहाँ किन-किन विपयो पर व्यारयान दिये उसका मुझे स्मरण नही है। लेकिन सास्कृतिक-जागृति और सास्कृतिक समन्वय के अनेक पहलुग्रो मे से जिम साल जो पहलू मुझे महत्त्व का लगा उस साल उस पहलू के बारे मे बोलने का मैंने रिवाज रखा। इस साल मेरी दृष्टि के अनुसार महामानव के साक्षात्कार पर यहाँ कुछ विचार पेश करना चाहता हूँ। मनुष्य की अदम्य जिज्ञासा ने जांच-पड़ताल और अध्ययन के लिये असख्य विपय खोजे है। आसमान के सितारों से लेकर पृथ्वी के गर्भ की ज्ञात अजात धातुनो तक कोई भी चीज मनुष्य ने अपने जिज्ञासा क्षेत्र से बाहर नही रखी। पदार्थ-विज्ञान, रसायन-शास्त्र, जीवविद्या, गणित और फलज्योतिप, इत्यादि शास्त्रो मे मनुष्य ने कई विभागो पर चिन्तन किया है। लेकिन मनुष्य के रस और उपके जीवन की कृतार्थना को देखते हुये यह मालूम होता है कि जांच-पड़ताल और अध्ययन की दृष्टि से मनुष्य के लिये मनुष्य खुद ही सब से महत्त्व का विषय है। "प्रात्मान विजानीयात्" इस ऋपि-वचन का जितना चाहे उतना विस्तृत अर्थ कर सकते है। अगनी जात को पहचानने के लिये मनुष्य ने हर Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 177 महामानव का माक्षात्कार एक समाज के इतिहास लिख रखे और राष्ट्रीयता या मानवता तक उनकी चर्चा की। अपने आपको पहचानने के लिये उसने अपने शरीर की जांच की और शरीररचना - शास्त्र, आरोग्य-शास्त्र, आहार - शास्त्र वैद्यक इत्यादि शास्त्र रचे । उसके बाद उसको लगा कि अब हमे अपने मन को पहचानना चाहिये । सृष्टि की तमाम प्रद्भुत चीजो मे अगर कोई सब से प्रद्भुत तत्त्व है तो वह मनुष्य का मन है । मनुष्य जैसा शोधक कारीगर मन का पीछा करे तो उसमे से क्या-क्या ढूंढ नही निकालेगा ? योगविद्या और प्रयोगविद्या का विकाम करके उसने मन की गहराई जाँची । ( उसकी शक्तियाँ खोज निकाली, उसकी विकृतियो के इलाज ढूंढे ) और श्राखिर जिन्दा रहते हुये भी अपने मन को मार कर उसके स्थान पर आत्मा और आत्मशक्ति को स्थापित करने की राज-विद्या का भी उसने विकास किया । मनुष्य ने देखा कि अपने मन का वास शरीर मे होने पर भी उसका व्यक्तित्व उसमे नही समाना । 'सारा मानव समाज ही मानव जाति के लिए प्राथमिक इकाई (Unit) है । इसलिये उसने मानस शास्त्र को मामाजिक रूप दिया, सपत्ति-शास्त्र विकसित किया, समाजशास्त्र जैसे एक नये ही शास्त्र का निर्माण किया । इतिहास मे जो न मिल सका सो नृवश शास्त्र ( anthropology) के जरिये जान लिया और ग्राखिर श्रव मनुष्य सामाजिक-अध्यात्म तक पहुचा है। इस सामाजिक-अध्यात्म मे से नयी तरह का योग शास्न निर्माण होता है, विश्वात्मैक्य का नया दर्शन तैयार होता है, विश्व संगीत और विराट कला कायम होती है, इतना ही नही, बल्कि हम देखते हैं कि उसमे से नई राजनीति का भी जन्म हो रहा है। इसके वारे मे थोडे प्राथमिक विचार यहाँ प्रकट करना चाहता हूँ । मनुष्य ने अपनी जीवनानुभूति के विकास के मुताबिक पहले गोत्रो की ( clans and tribes ) की कल्पना की । बाद मे राष्ट्र और साम्राज्य कायम किये । विशाल समाज की शास्त्रीय रचना करने के लिये उसने वर्ण व्यवस्था श्रौर श्राश्रम व्यवस्था की कल्पना की । इतना ही नही बल्कि उनका श्रमल भी कर देखा । हुनर उद्योग-धन्धो का विकास करते-करते उसने ट्रेड गील्डस ( trade-gurlds ) ग्राजमाये और फिलहाल राष्ट्रसघो की स्थापना करके मानवता का साक्षात्कार करने के लिये वह प्रयत्नशील है । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 महावीर का जीवन सदेश शक्ति का उपासक होकर मनुष्य ने मानवता का साक्षात्कार करने के लिये राजनीति का प्राश्रय लिया और अनेक धर्म जो न कर सके वह सगठनशक्ति के बल पर सिद्ध करने का बीडा उठाया। मनुष्य के यह प्रयोग अभीअभी शुरू हुए है और उनकी आजमाइश चालू ही है।। लेकिन यह प्रयोग ज्यो-ज्यो जटिल होते जाते है त्यो त्यो मनुण्य देखने लगा है कि इन प्रयोगो मे मतलव की कोई महत्व की चीज ही रह जाती है। शारीरिक और बौद्धिक-शक्ति, सगठन-शक्ति, तालीम और प्रचार के जरिये खिलती विचार-शक्ति--इन शक्तियो का नये-नये और अद्भुत ढग से इस्तेमाल करने पर भी मनुष्य अपने ध्येय की ओर आगे नही बढ सकता। यह देखकर अब वह अन्तर्मुख होने लगा है । शक्ति की उपेक्षा करके सदाचार का जीवित प्रचार करने का काम सतो ने प्राचीन काल से किया है। उसका गहरा असर हुआ है लेकिन वह (असर ) व्यापक नहीं है । यह देख कर और यह महसूस करके कि इस मार्ग मे अपनी जाति के ऊपर ही सब से ज्यादा अकुश रखना पडता है, उम के प्रति मानव-जाति कुछ अश्रद्धालु और कुछ उदासीन बनी और उसने सैन्य-शक्ति, कानून की बागडोर, आर्थिक-सगठन और तालिम के प्रचार द्वारा ध्येय प्राप्ति का मनसूवा किया। लेकिन इसमे वह सफल रहेगी ऐसा विश्वास उसको नही हुआ। पुरानी परिभाषा मे कहे तो सतो के विकसित किये हुये कल्याण मार्ग -~-शिव मार्ग पर मनुष्य को श्रद्वा होते हुये भी वह उस मार्ग को व्यापक न कर सका, और सेनापतियो ने तथा राज्यवर्तामो ने यह अनुभव किया कि उनका अत्यन्त आग्रह और विश्वासपूर्वक बताया हुआ शक्तिमार्ग सफल सिद्ध नही होता। अत अव मनुष्य जाति ने शक्ति-तत्त्व को शिव-तत्व के अधीन किया। शिव-शक्ति के समन्वय के द्वारा वह अपनी उन्नति करने की बात सोच रही है। इस तरह के प्रयोग पुराने समय से हो रहे है। फिर भी अभी-अभी मनुष्य-जाति उस मार्ग पर अधिक ध्यान देने लगी है। लेकिन यहाँ भी फिर पुराना अनुभव होता है कि शक्ति की पार्थिव अथवा पाशविक शक्ति से शिव तत्त्व का सामर्थ्य बढने के बजाय घटता है और वह अप्रतिष्ठित होता है। अत पार्थिव और पाशविक शक्ति का पूरा बहिष्कार करके शिवतत्त्व मे ही जो Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामानव का साक्षात्कार 179 अपनी आन्तरिक शक्ति निहित है उस पर ही अनन्य आधार रखना चाहिये । और, उसके आधार पर ही मनुष्य की सिर्फ व्यक्ति की ही नही बल्कि समस्त मानव-समाज की उन्नति होने वाली है, ऐसी श्रद्धा रखकर उस शिव-शक्ति का अनुभव करना चाहिये। गांधीजी ने उम शिव-शक्ति का नाम सत्याग्रह रखा है। उन्हें ने कहा कि सत्य अपनी आन्तरिक शक्ति से ही बलवान है। बाह्य शक्ति द्वारा उसकी (मत्य की) मदद करने से वह अपमानित और कमजोर होता है। ( Truth is humiliated and weakened when backed by mere physical and brute forcc ) 1 जिसको इस महान् मिद्वान्त का अनुभव हुआ है उमे ही महामानव का साक्षात्कार होगा । जव तक मानव-जाति का हृदय सकुचित था, उमका अनुभव भी एकदेशीय था, तब तक मनुप्य को महामाराव का साक्षात्कार नही हुया । यूनान के लोगो ने अपने आपको ही सस्कारी, पूर्णमानव मानकर अन्य लोगो को जगली (Barbarians) कहा और यह मिद्वान्त जारी किया कि कुदरत ने ही उनको गुलाम होने के लिये पैदा किया है। (अाज भी चन्द मानव जातियां मानती है कि आत्मा तो मनुष्य को ही हो सकती है । पशु-पक्षी आदि जलचर, खेचर तमाम मनुष्येतर प्राणियो को प्रात्मा है ही नहीं। अत ग्रीक लोगो के प्रति हंसने की जरूरत नहीं है ।) प्रार्य लोगो ने भी अपने आपको श्रेष्ठ मानकर अनार्यों को हीन ममझा। यहां तक कि मर्यादा पुरुपोत्तम रामचन्द्र जी ने भी माना कि जो न्याय पार्यो के लिए लागू था वह शूर्पणखा, वालिके शवूक जैसो के लिये लागू नहीं हो सकता । आज गोरे लोग भी मानते है कि सभ्यता का विरसा हमारा ही है, रगीन प्रजा पिछड़ी हुई है उसके लिये स्वराज्य या स्वातन्त्र्य नही है। हालाकि वह मोह और मद अब ठीकठीक उतरा है, कम हुआ है। अपने यहां तो हमने चार वर्ण और असख्य जातियो की सीढी बनाकर मानवता को करीब-करीव मिटा दिया। यहां तक कि न्याय-मन्दिर मे भी सव के लिये एक सरीखा न्याय नही। एक ही गुनाह के लिये ब्राह्मण को अलग सजा, क्षत्रिय और वैश्य के लिये अलग सजा, शूद्रो के लिये भयानक सजाये रखी और चण्डालो को सजा करते-करते हम खुद ही अन्याय करने लगे। अब हम उस पुरातन पाप मे से मुक्त होना चाहते हैं । अब हम मानव मात्र की समानता कबूल करने लगे है। हाँ, पुरानी रूढि अव तक मिटाई नहीं Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 महावीर का जीवन सदेश जा सकी है और हमारे देश के अधिकाश लोग समानता की नई कल्पना से अब भी अकुलाते है। हमे इस नई समानता का स्वरूप स्पष्ट समझ लेना चाहिये । सदाचारी और दुराचारी, देशभक्त और देशद्रोही, पुण्यात्मा और आतताई, धनवान और दरिद्र, ज्ञानी और अजानी, अपना और पराया सभी अपने ही भाई-वन्धु है। मुझे यह समझना चाहिये कि मेरे पूर्वजो के पुण्य-प्रताप से जिस तरह मैं मगर होता हूँ और अपनी भूनो मे शर्माता हूँ, उसी तरह तमाम मानव जाति के समस्त व्यक्तियो के चारित्र में अयवा उसके अभाव मे मेरा हिस्सा है, काफी हिम्सा है । भोली, दवी हुई और पिछडी हुई जातियो के दोपो के लिये उनको सजा मिले उमके बजाय मुझ ज्यादा सजा मिलनी चाहिये, क्योकि वे अपने दोपो के बारे मे जागृत नही है, और, मै इन दोषो के बारे मे जागृत होने पर भी मैने उनके हाथो ये दोप होने दिये और पाइन्दा भी मुझे इन दोपो का भान रहने वाला है, अत मुझे उनके हाथ से होते रहते इन दोपो को यकायक जवरदस्ती रोकना नहीं है, लेकिन वन्धु-भाव से उनकी सेवा करके उनमे यह भाव जागृत करना है। एक ही मिसाल लें। मुझे इस बात का भान हुआ कि पशु-पक्षी या मछलियों को मार कर खाना पाप है और मैने वह पाहार छोड दिया । इतना करने मे मै अपने आपको निप्पाप नही मानूंगा । मेरे कुनवे वाले अगर मासाहार करते है तो जिस तरह मुझे महसूस होता है कि इसमे मेरा भी थोडा दोप हे, उमी तरह अधिकाश मानव-जाति मासाहार करती है तो मुझे समझना चाहिये कि इम पाप मे में भी शामिल हूँ। यह समझने के साथ अगर मै मासाहारियो से नफरत करूं या कानून के जरिये उनको मासाहार करते रोकू तो वह मेरे लिये ठीक न होगा। इस बात को स्वीकार करके कि मानव-जाति इतनी आगे नहीं वढी है, मुझे चाहिये कि मै धीरज रखू। मासाहारी लोगो से द्वेष या उनसे तिरस्कार तो मै कभी न करूं, उनको पापी भी न समझू', उनसे दूर भी न रहूँ। लेकिन उनके प्रसग मे आकर प्रेम और सेवा के जरिये उनको अपनाऊँ और विश्वास रखू कि इतनी अनुकूलता के वाद आहिस्ता-आहिस्ता वे मासाहार-त्याग के सिद्धान्त को जरूर समझ जायेगे। हमारे पूर्वजो ने इस धीरज को श्रद्धा नाम दिया है । और, श्रद्धा ही धार्मिकता की मुख्य निशानी है । मासाहार का पूरा-पूरा त्याग Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 181 महामानव का साक्षात्कार करने पर भी मासाहारी लोगो को अपनाने मे मुझे थोडा भी सकोच न होना चाहिये । अपनी दुकान 'काम करते जैन कारकुनो को और जैन चपरासियो को जैन मालिक जिस तरह जाति की दृष्टि से अपना भाई मानता है और कोई भेद नही मानता, उसी तरह अपने घर मे नौकरी करने वाले तमाम नौकरी के लिये मनुष्य के रूप मे हमारे मन मे आत्मीयता होनी चाहिये । भारत के वासिंदो के बारे मे विचार करते वक्त और उनके नागरिकत्व को स्वीकारते वक्त वह हिन्दू है या मुसलमान, पारसी है या क्रिश्चन, उनके रिश्तेदार पाकिस्तान मे रहते है या हिन्दुस्तान मे, ऐसा भेद मन मे नही श्राना चाहिये । अपने देश मे वास करने वाले सब मेरे देश वन्धु है, इस बात को स्वीकारने मे मन मे कोई भी अन्तराय न होना चाहिये और जब हमारे हृदय मे महामानव का साक्षात्कार होगा तब हमारे मन मे जो इज्जत सरदार वल्लभभाई पटेल के लिये है वही इज्जत विन्स्टन चर्चिल के लिये भी रहेगी । भारत अगर पुण्य भूमि है तो इजिप्ट, इटली, जर्मनी और इ गलैण्ड भी हमारे लिये पुण्यभूमि ही है । हरेक भूमि पर किसी-न-किसी मानव महात्मा ने पुण्यकार्य किये ही हैं । अगर गंगा नदी पवित्र है तो नील या कोगो, व्हाईन या व्होलगा, मी सुरी - मी सीसीपी श्रोर हो- हाग हो, ऐरावती और सीतावाका, सभी नदियाँ पवित्र है । क्योकि इन सब नदियो ने माता होकर मानव-जाति का पोषण किया है । किसी भी देश में किमी भी आदमी के प्रति अन्याय होता हो तो वह मेरे भाई के प्रति ही होता है, ऐसी भावना मेरे मन मे पैदा होनी चाहिये | मेरे भाइयो मे से अगर कोई मेरे पास खड़ा है और उसको कोई मारता हो तो मै बीच मे पहूंगा, मेरा और एक भाई कलकत्ता या श्रीनगर मे हा और उसे कोई मारता हो तो वहाँ उसे बचाने के लिये तुरन्त चाहे जा न सकूँ लेकिन यथासम्भव इलाज किये वगैर न रहूँ और कुछ भी न कर सकूं तो कमसे-कम यह हरगिज न कहूँ कि वह मेरा भाई नही है । दुनिया के तमाम लोगो के प्रति मेरी ऐसी ही भावना होनी चाहिये । मेरा दान का प्रवाह अपने कुनबे के प्रति या अपने जाति- भाइयो के प्रति ही नही, बल्कि आसपास के मभी मानवो के प्रति वहना चाहिये और उस Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का जीवन सदेश प्रवाह में दूर तक वहने की शक्ति हो तो जहाँ तक वह पहुंचे वहाँ तक वगैर किसी पक्षपात के तमाम मानवो को अपनाना चाहिये । 182 और, जहाँ पक्षपात करना पड़े वहां अपनो को प्रथम याद करने के बजाय जिनके प्रति मेरे या मेरे लोगो के हाथो अन्याय हुम्रा हो, जो ज्यादा असहाय हो, दवे हुये या निराश हो, उनके प्रति दान का पक्षपात होना चाहिये । इस तरह की भावना जब उत्पन्न होगी, स्वीकृत होगी और सहज होगी तभी हिंसा धर्म का सस्थापन कायम होगा। तभी मानव जाति के वीच चलता सघर्ष और विग्रह शान्त होगा । उच्च-नीच भाव गायव होगा, प्रेम की भावना बढेगी और फैलेगी। और, विराट मानव के साथ मानवो के मे हृदय वसने वाले भगवान् का साक्षात्कार होगा । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार क्या जैन समाज धर्म तेज दिखायेगा? Page #200 --------------------------------------------------------------------------  Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या जैन समाज धर्मतेज दिखायेगा ? जैन लोगो से मेरा सम्बन्ध इतना पुराना है और उन्होने मुझे इस प्रकार अपनाया है कि यहाँ आते मुझे पराया जैसा लगता ही नही । मै जन्म से जैन नही हूँ, सनातनी ब्राह्मण हूँ । परन्तु ब्राह्मण का आदर्श मुझे हमारी स्मृतियो मे से मिला उससे कही अधिक बौद्ध और जैन ग्रन्थो मे सच्चे ब्राह्मण की जो व्याख्या दी है उसमे से मिला है । 'ब्रह्म जानाति ब्राह्मण ' यह तो बहुत बडा आदर्श हुआ । सनातनी कहते है जिसके माँ-बाप ब्राह्मण है वह ब्राह्मण है । सनातनियो को अपना हिन्दू धर्म वश-परम्परा से मिला है । दुनिया मे जो बडे-बडे धर्म है उनके मुख्य दो विभाग होते है । (1) वश-परम्परा का । ऐसे धर्म गुण-कर्म का अनुशीलन करते है सही, परन्तु अपने धर्म-समाज मे किसी और को दाखिल होने के लिये निमत्रण नही देते । और, यदि कोई दाखिल होना चाहे तो उसका शायद ही स्वीकार होता है । मैं मानता हूँ कि इस प्रकार के मुख्य धर्मं तीन है - ( 1 ) हमारा सनातन हिन्दू धर्म (2) पारसियो का जरथुस्त्री धर्म और (3) यहूदी धर्म । सब यहूदी एक ही वश के होते है क्या, इस बारे मे मेरे पास सही जानकारी नही है । परन्तु मे मानता हूँ कि यहूदी धर्म वश-परम्परा प्राप्त ही होता है । I (अभी-अभी एक पुरुषार्थी सौराष्ट्री गुजराती ने पजाव जाकर आर्यसमाज की स्थापना की और उसने सनातनी हिन्दू धर्म का रूप बदलने का प्रयत्न किया। आर्यसमाज मे किसी भी देश का, किसी भी वश का मनुष्य दाखिल हो सकता है, मात्र श्रमुक शर्तों का स्वीकार करना काफी होगा । ) (2) धर्मो का दूसरा विभाग है - प्रचार-परायण धर्म । श्रमुक सिद्धान्त का स्वीकार कीजिये, अमुक जीवन-क्रम पसन्द कीजिये और अमुक धर्मसस्थापक को मान्य रखिये, अमुक ग्रन्थो के प्रामाण्य को स्वीकार कीजिये, तब आप उस धर्म मे प्रवेश कर सकते है । फिर तो आपका वश, ग्रापका देश या Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 महावीर का जीवन सदेश आपकी सस्कृति उसमे आडे नही आयेगे । ऐसे धर्म दुनिया के सब लोगो का स्वागत करते है, सबको निमन्त्रण देते है । ऐसे धर्मो मे मुख्य तीन है - (1) बौद्ध धर्म (2) ईसाई धर्म और (3) इस्लाम । - बौद्ध धर्म वास्तव मे हिन्दू धर्म मे सुधार करने को प्रवृत्त हुआ था । परन्तु उस धर्म मे वश-निष्ठा नही किन्तु विशिष्ट प्रकार की जीवन-निष्ठा सर्वोपरि हुई । प्रथम वह धर्म भारत मे सब जगह फैला । हिन्दू धर्म के कर्मकाण्ड से और ऊच-नीच भाव से ऊवे हुए लोगो को वौद्ध-विचार से नई प्रेरणा मिली। पुराने धर्म के श्रभिमानी और ठेकेदार लोगो ने वौद्ध धर्म का जबरदस्त विरोध किया, इसके इतिहास में यहाँ नही उतरूंगा । मै इतना ही कहूँगा कि इस बौद्ध धर्म का हिन्दुस्तान के बाहर सतत स्वागत हुआ है । वौद्धप्रचारक पैदल हिमालय लाघ कर तिब्बत, चीन, मंगोलिया आदि देशो मे पहुँचे । जिस धर्म से, जिम उपदेश से और जिम जीवन-दृष्टि से अपना कल्याण हुआ वह समस्त मानव जाति को अगर हम न दे तो स्वार्थी कहलायेगे । जीवन का रहस्य और जीवन के उद्धार का मार्ग यही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान है । इसका प्रचार यदि न करेंगे तो 'वह मानवता का और सच्चे ज्ञान का द्रोह ही होगा' इस भावना से बौद्ध प्रचारक एशिया मे सर्वत्र फैल गये । एक ओर लका, दूसरीओर ब्रह्मदेश और उत्तर में तिब्बत से जापान तक का सारा एशिया खण्ड, सारे को वे बौद्ध धर्म के प्रभाव मे लाये और अज्ञान में सड़ने वाले लोगो को उन्होने रत्नत्रयी की भेंट की । यही प्रभाव आप एक ईश्वर भक्त यहूदी के पुरुपार्थ मे देखेंगे । जैसे एक हिन्दू गौतम बुद्ध ने कल्याण मार्ग का प्रचार किया उसी प्रकार ईसा ने यहूदियों को अपना धर्म परिपूर्ण करने की आवश्यकता समझाई। और, ईसा के शिष्य ने धर्मवीर को शोभा दे इस प्रकार बहादुरी से ईसाई सघ की स्थापना की । उनका वह उत्साह लगभग दो हजार वर्ष हुए, अभी कम नही हुआ है । वे यूरोप मे फैले, अमेरिका को अपना बनाया, एशिया और अफ्रिका मे उनके प्रयत्न अखण्ड चालू ही है!-- मानवी प्रयत्नो मे गुण-दोष साथ-साथ प्रायेगे ही। पवित्र हेतु मे भी अपवित्रता दाखिल हो जायेगी । कल्याण की प्रेरणा से किये हुए कुछ कामो मे कल्याण के फल भो बटोरने होगे । परन्तु हमे कुल विचार कर मनुप्यजात वढी है या नही, ऊर्ध्वगामी हुई है या ग्रधोगामी, यही देखना है । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या जैन समाज धर्मतेज दिखायेगा? 187 प्रचार-परायण तीमग धर्म इनाम है। हजरत मोहम्मद पैगम्बर साहव ने अरबस्तान की हालत देनी । उमका बहुत चिन्नन किया। उन्हें ईश्वरी प्रेरणा हुई। उन्हें शिप्य भी अच्छे मिले। और, उम धर्म का प्रचार पूर्व और पश्चिम दानो तरफ हुना। योगेप मे स्पेन तप उम धर्म का अमर पहुंचा था। तुकिम्तान, ईरान, मध्य एगिया वगंग प्रदेशो में वह धर्म फैला । प्रवास-कम से वह भारत में भी पाया। यहां हिन्दू धर्म में उमका मघर्ष हुमा । हम यह न मान बैठे कि उस धर्म ने पठान और मुगल गजमत्ता के जोगे यहां अपना पैर जमाया। हिन्दू सम्कृति में पिछड़े लोग, की अत्यन्त उपेक्षा थी। पवित्रता के अपने प्रादर्ण जिसे मान्य न हो उसके बारे म हिन्दू नोग नफरत की भावना रखते है, उगका वहिष्कार करते है और उसे तिरस्कृत दशा में रखते है । यह अधार्मिक वृत्ति तो है ही लेकिन उसमे भी अमाद्य बात यह है कि कोई मनुष्य अपने चारित्य में और जीवन-नम में ऊँचा उठना चाहना हो तो जान-पांत में मानने वाले हिन्दू अगुना हीन मानी जाने वाली जाति को ऊँचा उठने नहीं देते। हिन्दू के मन मे हीनता भी म्वधम होने मे रक्षणपाय यी । इम घोर अन्याय के विरुद्व मन्तो ने बार-बार आवाज उठाई, परन्तु अन्याय का जबरदस्त प्रतिकार न किया । इमलिये यदि अपना उद्वार चाहते है तो धर्मान्तर करना ही होगा, ऐसी परिस्थिति हमने देश में दाखिल की। मागे मानव-जाति को अपने धर्म का लाभ पहुंचाने के प्रयत्न में एक वडा दोप घुम गया और वह है मघ वढाने की लालसा । मुसलमान और ईमाई लोग के बीच सघर्प चला, उन्ह ने अनेक युद्ध किये जिन्हे Wars between the Cross and the Crescent के तौर पर पहचाना जाता है। ऐसा है दुनिया के धर्मों का इतिहास । इममे जैन धर्म कहाँ बैठता है, इसका उत्कट चिन्नन होना जरूरी है। भगवान् महावीर का जैन धर्म वशनिष्ठ नही है। विशिष्ट जीवनदृष्टि और जीवनक्रम मानव-जाति के लिये अत्यन्त कल्याणकारी है ऐसा देख कर उन्होने प्रचार शुरू किया। ऐसे मुधार-धर्म मे जात-पात का भेद और उच्च-नीच का पाखण्ड हो ही नहीं सकता। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का जीवन सदेश क्या कोई कह सकता है कि ज्ञान तो ग्रमुक मनुष्य को ही मिल सकता है, दूसरे लोगो को अज्ञानी ही रहना चाहिये, अमुक लोग अहिंसा धर्म का स्वीकार कर कैवल्य प्राप्त करे वह काफी है, वाकी की दुनिया हिंसा का स्वीकार कर एक-दूसरे का नाश करे तो हमे हर्ज नही ? 188 जैन धर्म सिद्धान्त से, स्वभाव से और मूल प्रेरणा के अनुसार सार्वभौम मानव-धर्म बनने के लिये पैदा हुआ है । उस धर्म के श्राद्य प्रचारक मे धर्मतेज था तब तक वह धर्म फैला। परन्तु साधु तपस्या बढाते-बढाते स्वार्थी मोक्षार्थी हुये और श्रावक तो बेचारे अनुयायी । श्रमुक श्राचारधर्म का पालन करे, शाकाहार का आग्रह रखे, यथाशक्ति दानधर्म करके छुट्टी पायें और धर्म कार्य के तौर पर साधुओ की पूजा करें, साधुओ को श्राश्रय दे और अपनी तपश्चर्या बढाने मे प्रोत्साहन दे । जिसकी तपस्या ज्यादा वह ज्यादा वडा साधु । उसी के वचन सुनने के लिये लोग दोडते है । और साधु भी जानते है कि श्रावक तो आखिर श्रावक ही रहेगे । वे अमुक सदाचार का पालन करे वह काफी है, फिर तो खूब कमाये और सुखी रहे । जैन धर्म का रहस्य और स्वरूप समझने वाले साधुओ के कुछ ग्रन्थ मैंने देखे हैं । वे कहते है- जैन धर्म मे जात-पांत को स्थान नही है । बात सही है, परन्तु वे उदाहरण देते है साधुओ के । पिछडी जमात के लोग भी जैन साधु बन जाये तो लोग उन्हे समान भाव से पूजते है । साधु ज्ञान और तपस्या आगे बढते है तो उन्हे गुरु बनने मे कोई कठिनाई नही है । परन्तु, श्रावको ने जैन धर्म की यह उदारता अपने साधु लोग को ही भुवारक बख्शी । अव ये साधु न विवाह करे, न कमाये, तपस्या बढ़ाते जाये, उपदेश करते जाये । उन्हे जात-पाँत से सम्बन्ध आवे तो कैसे ? साधुओ मे जाति का उच्च-नीच भेद नही है यह ठीक है, पर साधु की जाति श्रावको से ऊँची है । और, इसलिये साधुओ के अमुक अधिकार लोगो को मान्य रखना ही चाहिये, इस प्रकार का आग्रह और अभिमान साधुओ मे कम नही है । जहाँ सभी समाज शिथिल है और मानवो की दुर्बलता तथा विकृति समान रूप से फैली है वहाँ कौन किसको दोप दे ? जहाँ-जहाँ ज्ञान, पवित्रता, कारुण्य, सेवाभाव और उदारता हो वहाँ उसकी हम कदर करे । मेरा उद्देश्य किसी भी समाज या वर्ग के गुण-दोप की चर्चा करने का है ही नही। मुझे इतना ही कहना है कि जैन धर्म, जो मूल मे विश्व कल्याण के लिये प्रवृत्त हुआ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या जैन समाज धर्मतेज दिखायेगा? 189 वह हिन्दू धर्म के बुरे असर से वशनिष्ठ बन गया है। इने-गिने साधु किसी पिछडी कौम के दस-बीस लोगो को जैन धर्म की दीक्षा दे तो इममे जैन धर्म ने अपना मिशन छोड नही दिया है, यह सिद्ध नहीं होता। साधु लोग श्रावको के सहारे जीते है। श्रावक रूढि की कसौटी पर साधुग्रो के आचार को कसते है। परिणामत श्रावक एव साधु रूढि मे सुधार करने की कल्पना भी नही कर सकते । मनुष्य के आदर्श में सुधार हो, ज्ञान मे विकास हो, परिस्थिति में बदल हो, तो भी रूढि का आग्रह तत्त्वत जो कायम रखे वह समाज चाहे जितना समृद्ध हो, उसे ज्डता का ही उपासक कहना होगा। बिना रूढि के सगठन नही हो सकता और विना मगठन के समाज मे आदर्श टिकते नही, यह बात सही है । परन्तु, जैसे उम्र बढनी जाती है वैसे शरीर बढता है, ज्ञान और अनुभव बढना है वैसे मन भी परिपक्व होता जाता है, उसी प्रकार जमाना बदलता है उसके अनुसार आदर्शों में भी सुधार हो और रूढिया जडता का त्याग करके आवश्यक परिवर्तन समय पर करने को तैयार हो जाये । अगर ऐसा नही होता है तो सामाजिक-जीवन मे दम्भ दाखिल हो जग्येगा, धर्म निष्ठा निष्प्राण हो जायेगी और अन्त मे नये और तेजस्वी तत्त्व पुराने धर्मो का तिरस्कार करके उन्हे खा डागे। __ पश्चिम की सस्कृति अच्छी हो या बुरी जिदा है, प्राणवान है और अपना असर सर्वत्र फैलाती है। मढिवादी समाजो का रिवाज भी अब निश्चित हुआ है । पश्चिम की ओर से कुछ नया पाया कि 'वह अधार्मिक है, विकृति है' कहकर उसकी निन्दा करना । उसे रोकने का प्रयत्न करने के लिये प्राणशक्ति तैयार करने की जिम्मेदारी के अभाव के कारण तटस्थता से पात्रमण को देखते रहना । वह आक्रमण घर मे सर्वत्र फैल जाय तब मन का विरोध भी ढीला करना और नई वस्तु कोमजूर रखना । कानान्तर से वे ही वस्तुएँ समाजमान्य रूढिया वन जाती है और उसके लिये नया बचाव भी तैयार किया जाना है। हमारे यहाँ जमाना बदलता है हम उसे बदलते नही। बाहर से वस्तुएँ पाती है, हम अपनी संस्कृति के अनुसार और हमारे जीवन की जरूरत के मुताबिक कुछ नया उपजाने का पुरुपार्थ नही करते । पोषाक हो या घर का साज-सामान हो, जो हमारे यहाँ आता है उसको बडबडाते या उत्साहपूर्वक स्वीकार करते है और मानते है कि हम अपने धर्म के प्रति निष्ठावान है। सिर्फ कमाना और जीवनानद लेना इतनी ही हमारी प्रवृत्ति रहती है। (अकसर जीवनानद लेना आता नही है सो अलग बात है।) Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का जीवन सन्देश हमारी इतनी बडी संस्कृति है, इतना बडा देश है और इतनी जवरदस्त लोकसख्या है, पर हमारा नेतृत्व कही भी नही है । 190 यदि हम अहिंगा-धर्म को मानते है और गांधीजी ने अहिसा को जो व्यापक रूप दिया है उसके लिये हमे गर्व है तो हमे रुदियं का साम्राज्य तोडना चाहिये । जैन - रुढि अनुसार खाने-पीने की सुविधा हो उसी प्रदेश मे जैन साधु रहे, विदेश जाये ही नही, तो अहिंसा धर्म का प्रचार कैसे होगा ? यदि डॉक्टर कहे कि मैं तो अपनी जात को नीरोगी रखने मे मानता हूँ, रोगियो का सम्पर्क मुझे नही चाहिये, तो उसे प्राप डॉक्टर कहेंगे क्या ? एक अमेरिकन अग्रेजो के खिलाफ लडा और उसने अमेरिका को स्वतन्त्र किया। बाद मे फ्रेंच लोगो की तकलीफे दूर करने के लिये और उस प्रजा को स्वतन्त्र करने के लिये दह फाम पहुंचा। किसी ने उसे ललकारा और पूछा, "स्वदेश छोड़कर तू यहाँ कैसे प्राया ? तेरा स्वदेश तो अमेरिका है न ?” उसने जो जवाब दिया वह विश्व - साहित्य मे अमर हो गया है । उसने कहा, "अमेरिका मेरा स्वदेश था सही, परन्तु अब वहाँ पारतन्त्य नही रहा । और मुझे तो पारतन्त्र्य के खिलाफ लडना है । इसलिये जहाँ पारतन्त्र्य हो उस देश को ही अपना स्वदेश बनाऊँगा । ( My home is where liberty is not } । जैन धर्म मे मानने वाले को चाहे वह साधु हो या श्रावक - ऐसा ही कहना चाहिये कि 'जहाँ हिंसा फैल गयी है, निर्बल लोगो की दुखमय हालत है, निर्बल प्राणियो की हाय कोई सुनता नही, वही मुझे दौड जाना है । अपने सुख का विचार किये बिना, कोई भी जोखिम उठाकर, हिंसा-तत्त्व का विरोध करता रहूँगा । अहिंसा ही मानव धर्म है, यह बात मनुष्य जाति को समझाते रहना ही मेरा जीवन-धर्म है ।' महात्मा गाँधी ने मनुष्य जाति को दिखा दिया कि अहिसा धर्म का पूरा पालन करके भी मनुष्य हिंसा के खिलाफ लड सकता है । श्रहिसा मे रहा हुआ क्षात्रतेज दुनिया के सामने प्रकट करना, यह था गांधीजी का युग-कार्य । मानवी सस्कृति मे गाँधीजी ने जो यह महत्त्व की वृद्धि की उस कार्य को श्रागे चलाने के लिये जो सारी दुनिया में हो आाय वे ही सच्चे हिंसाधर्मी है | Page #207 --------------------------------------------------------------------------  Page #208 --------------------------------------------------------------------------  Page #209 --------------------------------------------------------------------------  Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 गणधरवाद (दलसुखभाई मालवणिया लिखित 50-00 गुजराती गणधरवाद का हिन्दी अनुवाद) अनु० प्रो० पृथ्वीराज जैन सम्पादक-महोपाध्याय विनयसागर 11 जैन इन्सक्रिप्सन्स (राजस्थान के प्राचीन, ऐतिहासिक 7000 आफ राजस्थान एव वैशिष्ट्यपूर्ण जैन शिलालेखो, मूर्तिलेखो का परिचयात्मक वर्णन) ले० रामवल्लभ सोमानी 12 एग्जेक्ट सायन्स फ्रोम जैन ले० प्रो० लक्ष्मीचन्द जैन 1500 सोर्सेज पार्ट I, बेसिक मेथेमेटिक्स 13 प्राकृत काव्य मञ्जरी ले० डा० प्रेम सुमन जैन 1500 14 महावीर का जीवन प्राचार्य काका कालेलकर 2000 सन्देश युग के सन्दर्भ मे 15 जैन पोलिटिकल थोट डॉ० जी० सी० पाण्डे 16, स्टडीज् प्राफ जैनिज्म डॉ० टी० जी० कलघटगी 3500 17 जैन बौद्ध और गीता डॉ० सागरमल जैन का साधना मार्ग 18 जैन बौद्ध और गीता डॉ० सागरमल जैन का समाज दर्शन 25 00 १ एक हजार स्पये से अधिक प्रकाशन खरीदने पर ४०% कमीशन और सस्थान के प्रकाशना का पूरा सेट खरीदने पर ३०% दिया जाता है। डाक-व्यय एव पैकिंग व्यय पृथक् से होगा। प्राप्ति स्थान राजस्थान प्राकृत भारती सस्थान, यति श्यामलालजी का उपासरा, मोतीसिंह भोमियो का रास्ता, जयपुर-३ पिन कोड नम्बर-३०२ ००३ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- _