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क्षमापन का दिन
जब कोई नयी दवा बताई जाती है तब हम उसे श्रद्धा से ले लेते है । दूसरा चारा ही नही रहता है । किन्तु जब कोई पुरानी दवा हमारे सामने रखी जाती है, तब हम पूछते है कि क्या ऐसा कोई सबूत है कि इस दवा के सेवन से कोई आदमी रोग मुक्त हुआ है ?
ईसाई धर्म के जगद्गुरु पोप हर साल वडे दिनो मे मैत्री भावना का उपदेश करते है और शान्ति के लिये प्रार्थना करते है । उनके उस प्रयास का कही कुछ असर नही दीख पडता । हमारे जैन भाई भी हर साल सब को क्षमा करते है, और सब से क्षमा की याचना भी करते है, लेकिन अन्य समाज की अपेक्षा हमारे जैन भाई अधिक क्षमाशील हैं, ऐसा कोई अनुभव नही है । साधुग्रो के वीच भी जो ईर्षा, प्रभूया पायी जाती है, वह शाब्दिक सकल्पो से और पवित्र सूत्रो के रटन से दूर नही होती । धर्म का रास्ता कभी इतना सस्ता नही होता है । आज हम अच्छे विचार व्यक्त करके या सुनकर सतोष न माने कि हमने आज कुछ किया । चद लोग तो ऐसा ही मानते है कि श्राज तक का पाप पश्चात्ताप करके धो डाला । अव नया पाप करने की छुट्टी मिल गयी ।
ऐसा कहकर भी हम थक गये है कि वोलने के दिन खत्म हो गये हैं । व कुछ करना चाहिये । व्रत त्योहार का दिन ग्रा गया, इस वास्ते कुछ करना चाहिये, कुछ कहना चाहिये । कम से कम एक अच्छा सकल्प करना चाहिये, ऐसा सोचकर हम इकट्ठा होते हे । सभा के अन्त मे मान लेते है कि हमने कुछ पुण्य कर्म किये सही । किन्तु ग्राज तक ऐसे जितने भी दिन मनाये उसका नतीजा क्या हुआ, सो भी सोचना चाहिये । अगर हम अतर्मुखी हो सके, निश्चय का बल लगाकर कोई सकल्प किया, तो आज का दिन हमने
मनाया ।
एक बात मे हमने प्रगति की है सही। वह यह कि हम छोटे-छोटे फिरको के बाहर निकले । अच्छी बात सुनने के लिये अच्छा कार्य करने के लिये और अगर हो सके तो जीवन मे परिवर्तन करने के लिये हम अपने फिरके मे बधे नही रहते है । कूपमण्डूक वृत्ति हमने छोड दी है । अन्य धर्मी लोगो पर हम विश्वास करने लगे है । उनके साथ मेल-जोल बढा रहे है, उनकी बाते सुनने को तैयार हैं ।