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महावीर का जीवन सदेश
जिस तरह हम अपने व्रत-उत्सव मे औरो को बुलाते है उसी तरह हमे भी उनके व्रत-उत्सव में शरीक होना चाहिये। सिर्फ मुसलमानो की वात मै नही कर रहा हूँ। ईसाई, यहूदी, पारसी आदि सब धर्मों के और सब देश के लोगो के शुभ कार्यों मे हमे शरीक होना चाहिये । दिल्ली जैसे राजधानी के शहर मे दुनिया के सब देशो के प्रतिनिधि पाये जाते है । यहाँ हम सब से मिल सकते है, सब के साथ मैत्रीभाव बढा सकते है। यह भी कोई छोटी माधना नही है।
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प्रवृत्तिशील इस दुनिया मे सब लोग बाहर देखते है । दूसगे की टीका टिप्पणी करते है । यह देखकर उपनिषद् के ऋषि कहते हैं, 'विधाता ने जब शरीर मे आँख, कान आदि इन्द्रियों कुरेदी, तब उन्हे बाहर देखने वाली बनाया । अतर्मुख होकर अपनी ओर देखना और अपने गुण-दोष को पहचानना कोई बुद्धिमान आदमी ही कर सक्ता है-(परॉचि खानि व्यतृणत् स्वयम्भू तस्मात् पराड पश्यति नान्तरात्मन् । कश्चिद् धीर प्रत्यग् आत्मान ऐक्षत् आवृत्तचक्षु अमृतत्वमिच्छन् ।”
अपने गुण-दोप देखने की आदत डालने के लिये हमारे पुरखो ने खास रिवाज, व्रत और त्यौहार बनाये है । उस दिन सुबह उठते ही मनुष्य अपने स्वभाव और जीवन की जांच करता है और जिस किसी का तनिक भी बिगाडा हो, किसी का अन्याय किया हो, मन से भी किसी का अहित सोचा हो, उसके पास जाकर उसकी क्षमा मांगने का रिवाज है । इस विधि को क्षमापन कहते है।
इस क्षमापन मे मुख्य भाग तो अन्तर्मुख होकर अपने दोप को देखना और जिस किसी का अन्याय किया हो उसके पास जाकर अपने दोप का स्वीकार करना और बाद मे उसकी क्षमा मांगना है।
अगर मैं हरएक के पास जाकर इतना ही कहूँ कि, "इस साल के दरमियान मेरी ओर से जो कुछ भी गलती हुई हो, दोप हुया हो, उसकी क्षमा कीजिये", तो उसमे से कुछ भी निकलता नही दीख पडता । सुनने वाला आदमी भी कह देता है 'बहुत अच्छा' । इसके अन्दर भी गहराई नही