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महावीर का जीवन सदेश दोन मोर से कहने के लिए काफी है। दोनो ओर की दलीलो पर विचार करते-करते नजर फिर गोमटेश्वर की ओर गई। देखता हूँ तो मूर्ति, मूर्ति ही नही रह गई। स्वय गोमटेश्वर ही मूक वाणी मे कहने लगे- 'कितने नीच हो तुम ? मैने वैराग्य की साधना की है, और तुम इस मूर्ति को कृपा की दृष्टि से देखते हो । इसकी सुन्दरता पर मुग्ध होते हो ! मैने तो क्षण भर मे सारे ससार का चक्रवर्तित्व छोड दिया और तुम इस पत्थर की विरासत को भविष्य की पीढियो के लिए सुरक्षित रखना चाहते हो। तुम आधुनिक भौतिकवादी इस पत्थर के रूप-लावण्य की उपासना करते हो और वे सनातनी जैन मेरी जीवन-कथा पर मुग्ध है और मेरे नाम पर रचे गये शास्त्र-वचनो के शब्दार्थ मात्र से चिपके हुए है। मेरे जीवन का ज्ञान इनको वहुत ऊँचा लगता है, इमलिए पूजा का लालच देकर मुझे, अपने जितना नीचा लाने का प्रयत्न करते रहते है। तुम दोनो एक से हो। अपनी इस चर्चा को एक ओर रखो। वैराग्य का सदेश सुनाते, सयम की शिक्षा देते मैं नौ-सौ इक्कीस वर्ष से तपस्या कर रहा हूँ और तुम्हारे ऊपर कोई असर नही होता ? तुम दिनदिन अपने कल्याण मार्ग से दूर होते जा रहे हो । क्या तुम नही देखते कि इसी कारण मेरे मुख पर विपाद का भाव गहरा होता जा रहा है ? तुम सर्दीगर्मी, हवा और बरसात से मेरी रक्षा करना चाहते हो, लेकिन तुम्हारी वेहोशी और पागलपन की वढती मात्रा को देख कर मेरे मुह पर जो दुख, ग्लानि और विषाद अधिकाधिक वढता जा रहा है, इससे मेरी रक्षा करने के लिए तुम क्या करने के लिए तैयार हो ? उसकी चर्चा करो, इसकी चिंता करो, विचार करो। पत्थर तो किसी न किसी दिन चूर्ण होता ही है । जो मूर्ति है वह नो कभी न कभी नष्ट होगी ही, लेकिन जो अब तक अवसर मिला उसका तुमने क्या उपयोग किया ? इम पत्थर की मूर्ति की रक्षा करनी हो तो भले ही करो। इसके बनाने वाले कारीगरो के प्रति यह तुम्हारा कर्तव्य है । परन्तु तुम्हारा मुख्य धर्म तो, जो बोध मुझे हुआ है और जिससे मेरा जीवन सफल हुआ है, उसकी परम्परा को अखण्डित या अविचलित बनाए रखना है । यही नही, यदि तुम्हारे वाद भी हजारो लाखो वर्ष तक यह मानव जीवन की परम्परा चले तो उन सब मनुष्यो को--अशेष सत्वो को मोक्ष का ज्ञान-केवल ज्ञान और मोक्ष की साधना का धर्म भी सुलभ हो जाय, इसका विचार करना भी तुम्हारा कर्तव्य है। यदि ऐसा हुआ तो निश्चय ही प्रत्येक का जीवन-कला, लावण्य और आनन्द से पूर्ण हो जायगा।"