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अजितवीर्य वाहूवलि
वैराग्य-मार्ग ग्रहण कर लिया। रजोगुण से सतोगुण प्रकट हो गया । महत्वाकाक्षा की अपेक्षा भ्रातृ प्रेम, स्वजन - वात्सल्य और विरक्ति की श्रेष्ठता सिद्ध हो गई ।
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गुरु की शरण में जाने से ग्राध्यात्मिक मार्ग मे सरलता हो जाती है । बाहुबलि के लिए भी प्रठ्यानवे भाग्यो द्वारा ग्रहण किये मार्ग पर जाना श्रीर भगवान् ऋषभदेव को शरण लेना, स्वाभाविक मार्ग था, परन्तु नाभिमानी बाहुबलि को यह असगत जान पडा । छोटे भाइयो ने पहले दीक्षा ले ली थी, इनलिए वे वन्दनीय हो गये थे । बाहुबलि को दीक्षा लेकर उनकी वन्दना करना अनिवार्य था, यह उनमे कैसे हो सकता था ? श्रेष्ठत्व तो नला हो गया, अव रहा ज्येष्ठत्व भी खो दिया जाय, यह नही हो सकता । उमगे तो अपनी तपस्या के बल पर केवल ज्ञान प्राप्त करना कही अधिक अच्छा है । बाहुबलि ने यह निश्चय कर लिया। इस प्रकार माघना के प्रारम्भ मे हो दर्प और ग्रहकार ने अपना अधिकार जमा लिया ।
बाहुबलि ने इस निश्चय पर कठिन तपस्या मारम्भ कर दी। वे जहां डे थे, वहां दीमक मिट्टी के ढेर लग गये । उसमे बडे-बडे काले नपं श्राश्राकार रहने लगे । माधवी लता ने दीमक-मिट्टी के उमर को घेर लिया और बाहुबलि के पंगे तथा हाथो मे लिपट गई। नमार इम पूवं तपस्या को देख कर दंग रह गया पर बाहुबलि को केवल ज्ञान की प्राप्ति न हुई । वे श्राकुल हो कर अपनी तपस्या को और भी उग्र करने लगे । श्रन्त मे उन मी भाइयो को दो प्यारी बहिनें - ब्राह्मी और मुन्दरी जो स्वय त्याग की दीक्षा ले चुकी थीवहाँ आ पहुँची । स्त्री हृदय परिस्थिति की गहराई को झट पहचान लेता है सो उन वहिन ने भाई से प्रेम के साथ कहा - "वीरा गज मे नीचे उतरो" अर्थात्हे प्यारे भाई, हाथी से नीचे उतरो । बाहुबलि को यह सुन कर श्राश्चर्य हुआ । उन्होने सोचा - " मैं तो इतने दिनो से कठिन तपस्या कर रहा हूँ श्रोर
हिने कह रही हैं कि मैं हाथी से नीचे उतम ।" क्षण भर बाद ही उन्हे पता चला कि वे अभिमान श्रीर ग्रहकार के हाथी पर चढे हुए थे, जहाँ सभी प्रकार के मम्कारो से मुक्त होने का निश्चय किया गया है, वहाँ श्रेष्ठ प्रथवा ज्येष्ठ होने का अभिमान रह नही सकता । जहाँ सम्पूर्ण विश्व के साथ तादात्म्य स्थापित करना है, वहाँ ठयानवें भाइयों से ईर्ष्या कैसी ? ताहुवलि की बहिने ही उसकी गुरु वनी । उन्होने ग्रहकार को छोड़ कर सभी त्यागी भाइयो के चरण छुए और जिस स्थान पर वे खड़े-खडे तपस्या कर रहे थे, वहाँ से पैर उठाने से पहले ही उन्हें केवल ज्ञान (सर्वज्ञता ) हो गया । इस प्रकार वह वीर पुरुष अपनी तपस्या मे सफल हो गया ।