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महावीर का जीवन सदेश अतिशयोक्ति, अहकार, अभिमान, परनिन्दा, असहिष्णुता आदि दोप सब धर्म के लोगो में पाये जाते हैं। जहाँ आग्रह आया, वहाँ एकागिता आ ही जाती है। यह सब जानते हुए भी जिम तरह मैं अपने धर्म के प्रति श्रद्धा-भक्ति रखता हूँ, वैसे ही और धर्मों के प्रति भी रखता हूँ। अपने दोपो के प्रति जैसा सौम्यभाव रहता है वैसा ही सबके दोपो के प्रति भी आवश्यक समझ गया हैं। अगर भेद-भाव रखना ही है तो हम अपने दोपो के प्रति कठोर बन सकते है । स्यावाद ने मुझे सिखाया है कि औरो की स्थिति को हम वरावर समझ नहीं सकते, इस कारण भी औरो के दोपो के प्रति क्षमाभाव और सौम्यता धारण करनी चाहिये ।
'हिन्दू' शब्द हमारे धर्मशास्त्र मे कही नही पाता। औरो ने हमारे देश, हमारी संस्कृति और हमारे समाज के लिए 'हिन्दू' शब्द लगाया है । सिन्धु नदी के किनारे जो सस्कृति संगठित हुई और सारे देश में फैली, वह सस्कृति हिन्दू-सस्कृति है। सस्कृति के मानी है, जीवन-दृष्टि और जीवनव्यवस्था । इस हिन्दू-सस्कृति के अन्तर्गत अनेक धर्म, अनेक सम्प्रदाय, अनेक साधनाएँ, पथ और फिर्के पाये जाते है, उनके अन्दर सूक्ष्म और मौलिक भेद जरूर है, लेकिन जिस तरह एक ही परिवार के लोगो की शक्लो मे पारिवारिक साम्य दीख पडता है, वैसे ही हिन्दू-सस्कृति के सब सम्प्रदायो मे एक-जातीयता पायी जाती है। इन सब का स्वभाव एक-सा है, इनकी समाजव्यवस्था करीब-करीव एक-सी है । गुण-दोष भी एक-से पाये जाते है। यह सब देखकर 'हिन्दू' शब्द की व्याख्या करनी चाहिये, निरुक्ति के सहारे हम कह सकते है कि
'हिंसया दूयते चित्त यस्या सौ हिन्दुरीरित'-'हिसा की कल्पना मात्र से ही जिसका चित्त दुखी होता है, उद्विग्न होता है, वह है 'हिन्दू' । हिन्दू का स्वभाव ही है कि वह 'भूतानुकूल्य भजने' सब प्राणी स्वभाव से ही प्रोगे का द्रोह करके जीते है । धर्म कहता है कि द्रोह बुरी चीज है । 'अद्रोहेणैव भूताना अल्पद्रोहेण वा पुन' अपनी-अपनी आजीविका प्राप्त करनी चाहिये । मनुष्य से लेकर सूक्ष्म जीवो तक सब के प्रति प्रतिकूल भाव छोड देना और सब के प्रति अनुकूल बनना-यही है हिन्दू-वृत्ति, हिन्दू-स्वभाव । इस स्वभाव का विकास सब मे एक-सा नही हुआ है। कोई बहुत आगे बढे है, कोई कम, लेकिन सब का प्रस्थान उस एक ही दिशा मे है । इसीलिये ये सव हिन्दू हैं। इन हिन्दुओं की धार्मिक जीवन-धारा प्राचीन काल से श्रमण और ब्राह्मण इन दो