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हिन्दू की हष्टि से जैन धर्म
जैनियो के साथ मेरा ऋणानुवन्ध कुछ अजीव-सा है। मेरे वचपन मे एक दिगम्बर जैन-परिवार हमारे पडोस में रहता था। मैं उनके घर मे खेलने जाता । लेकिन देखा कि इर्द-गिर्द के लोग उनसे सम्बन्ध नही रखते । कहते कि "ये बोपारी लोग अच्छे नही।" मेरे साथ तो उनका सलूक अच्छा था, इसलिए मैंने अपने लोगो से पूछा कि "इनमे क्या बुराई है " कहा गया कि "इनके मन्दिर मे नग्न मूर्ति की उपासना होती है ।" दूसरा कारण यह बताया कि " ये लोग अहिंसा को मानते तो है, लेकिन चलने-फिरने में जो अपरिहार्य हिंसा होती है उसका पाप वडी खूबी से दूसरे किसी के सिर पर डाल देते है।" इस जवाव से मुझे सन्तोप नही हुआ, लेकिन जैनो के बारे में जानकारी हासिल करने का कुतूहल जागा।
मैं देखता हूँ कि अपने देश मे हम हजारो वर्षों से ऐसा कूप-मडूक का जीवन व्यतीत करते है कि पडोसियो के बारे में भी घोर अज्ञान रहता है । लोग अपने सम्प्रदाय के बाहर का कुछ जानते ही नहीं । जो जानते है वह विकृत स्प मे और मशोधन तो कभी करते ही नहीं । नग्न मूर्ति की पूजा का नाम सुनते ही गावत-सम्प्रदाय की कल्पना मन मे खडी हो जाती है और स्वाभाविक रूप से मन मे जुगुप्सा पैदा होती है । किन्तु वीतराग मुनियो की नग्नता कुछ और चीज है । आज मैं कला और नीति दोनो दृष्टियो से इस नग्नता का समर्थक हूँ और अहिंसा के बारे मे तो कह सकता हूँ कि अपना पाप दूसरे के मत्थे मढ देने की बात जैन धर्म मे नही है । कायिक, वाचिक और मानसिक हिसा का स्वरूप पहचानते-पहचानते जैन-मुनि बहुत गहराई तक पहुंचे है। हिसा करना, करवाना या उसका अनुमोदन करना-तीनो को वे एक-सा पाप समझते है ।
धर्मों की स्थापना भले ही शुद्ध, सात्विक लोगो ने की हो, किन्तु उनके सम्प्रदायो का विस्तार और प्रचार करने वालो मे रजोगुण की कमोबेश मात्रा होने के कारण सब धर्म-परम्परागो मे कुछ न कुछ दोप आ ही जाते है ।
* 28 फरवरी 1959-फिरोजाबाद मे श्री वर्णी अभिनन्दन सभा मे दिया गया भापण।