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महावीर का जीवन सदश
उठाना, त्याग करना, सयम का पालन करना यह मब क्रियात्मक वाते अहिंसा मे आ जाती है।
आजकल जैन समाज मे इसकी चिन्ता नही चलती कि हम हिसा के दोप से कैसे बचे। जो कुछ जैनियो के लिये आचार बताया गया है उसका पालन करके लोग सतोष मानते है। धर्मबुद्धि जाग्रत है, लेकिन धार्मिक पुरुषार्थ कम है तो साधक अणुव्रत का पालन करेगे। साधना वढने पर दीक्षा लेकर उग्र व्रतो का पालन करेंगे।
अव जिन लोगो ने जीवदया के अहिंमक आधार का विस्तार किया उन लोगो ने अपने जमाने के ज्ञान के अनुसार बताया कि पानी गरम करके एकदम ठडा करके पीना चाहिये । आलू, वैगन जैसे पदार्थ नही खाने चाहिये । क्य कि हरएक वीज के साथ और हरएक अकुर के साथ जीनोत्लत्ति की सम्भावना होती है । एक पान खाने से जितने अकुर उतने जीवो की हत्या करने का पाप लगेगा । मूक्ष्मातिसूक्ष्म जीवो की हत्या से बचने के लिये इनना सतर्क रहना पडता हे कि वही जीवन-व्यापी साधना बन जाती है। पानी गरम करके एकदम ठडा करना, मुहपत्ती लगाना, शाम के बाद भोजन नही करना इत्यादि रीतिधर्म का विकास हुआ।
__शुरु-शुरु मै यह सब वैज्ञानिक शोध-खोज थी। हमारा वैज्ञानिक ज्ञान जैसा वढेगा उसके अनुसार हमारा अहिंसा का आकलन भी बढेगा, वढना चाहिये । और, उसके अनुसार आचार-धर्म मे सूक्ष्मता भी पानी चाहिये । साथ-साथ अगर अनुभव से कोई वात गलत साबित हुई तो पुराने प्राचारधर्म बदलने भी चाहिये । अहिंसा धर्म जड रूढिधर्म नही है । वह है वैज्ञानिक धर्म । विज्ञान के द्वारा जैसे-जैसे हमारा जीवविज्ञान, प्राणिविज्ञान बढ़ेगा वैमा हमारा अहिंसा का प्राचारधर्म भी अधिकाधिक सूक्ष्म बनेगा । विशिष्ट प्राणी मे या वस्तु मे जीव है या नही है इसकी खोज तो होनी ही चाहिये । जैन तीर्थकर और प्राचार्यों के दिनो मे जीव-सृष्टि का विज्ञान जहाँ तक वढा था, उसके अनुसार उन्हें ने अहिंसक धर्म का प्राचार-धर्म कैसा-कैमा होता है यह बताया । वे लोग अपने जमाने के विज्ञान-निष्ठ थे।
अाज उसी प्राचीन वैज्ञानिक दृष्टि का हम ने म्पान्तर कर दिया है वचननिष्ठा मै और रूढिनिष्ठा मे।