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अंहिसा का वैज्ञानिक प्रस्थान
151 इधर आज की दुनिया मे, विशेष कर पश्चिम मे जीव-विज्ञान बहत कुछ आगे बढा है। जीव किसे कहे, किस चीज मे जीव तत्त्व कितना है, उसका विकास कैसे होता है, जीवो को मरण क्यो आता है, मरण से बचाने के लिये क्या-क्या करना चाहिये आदि अनेक बाते नये ढग से, नई दृष्टि से सोची जाती है और सोचनी चाहिये। यह है अनुसधान का विपय, न कि तीर्थकर, के, गणधर के, प्राचार्यों के प्राप्त-वचनो का अर्थ करने का। अगर हम वैज्ञानिक दृष्टि छोड कर व्याकरण, तर्क और दृष्टि-समन्वय के आधार पर चर्चा ही करते रहे तो वह दृष्टि वैज्ञानिक न रह कर वकीलो के जैसी चर्चात्मक ही बन जायेगी।
इसलिये हमे जीवविज्ञान मे, मनोविज्ञान में और समाजविज्ञान मे अनुसधान करना होगा। प्रयोग और चिन्तन चला कर गहरा अनुसधान करना पडेगा और वह भी हमारी निजी मौलिक दृष्टि से ।
पश्चिम के प्रयोग-वीरो ने जो आज तक अनुसधान किया है, उससे हम लाभ उठायेंगे जरूर, लेकिन उनका प्रस्थान ही हमे मान्य नही है । पश्चिम मे वनस्पतिविज्ञान, जीवविज्ञान, कृमि-कीट आदि सूक्ष्म प्राणीविज्ञान, आदि विज्ञान के अनेक विभाग अथवा क्षेत्र दिन-पर-दिन प्रगति करते जा रहे है, लेकिन उनका प्रस्थान ही गलत है। सामान्य तौर पर नीचे दिये गये सिद्धान्त ही उनके बुनियादी सिद्धान्त है।
(1) जिस तरह मिट्टी, पत्थर, पानी, सोना, चाँदी, लोहा आदि धातु, यह सारी भौतिक सृष्टि मनुष्य के उपयोग के लिये है, उसी तरह सारी की सारी मनुष्येतर सृष्टि भी मनुष्य के उपयोग के लिये है । वृक्ष, वनस्पति, कद मूल, फल आदि वनस्पति-सृष्टि मनुष्य के उपभोग के लिये है, उसी तरह कोट-सृष्टि, पशु-पक्षी, आदि द्विपाद, चतुष्पाद और वहुपाद प्राणियो की सृष्टि, पशु-पक्षी आदि स्थलचर, सॉप आदि सरिसृप और मछलियां आदि जलचर सब मनुष्य के आहार के लिये, सेवा के लिये, उपभोग और आनन्द के लिये है। इन्हे मार कर खाना, पकड कर काम मे लाना और उन पर अपना स्वामित्व रखना यह सव मनुष्य के अधिकार में आता है।
(2) अगर इनकी संख्या कम होने लगी तो इनकी पैदाइश बढे, इनकी नई-नई नस्लें तैयार हो जाये और इनसे अधिकाधिक सेवा मिल जाय इसलिये सब तरह से पुरुषार्थ करने का भी मनुष्य को अधिकार है।