________________
140
महावीर का जीवन सदेश
तीर्थकरो मे विश्वास करते हैं । जैन लोग मानते है कि अन्तिम तीर्थकर महावीर हुये है, अब आगे कोई तीर्थकर नही होगे।
लेकिन यह दलील मेरे गले नही उतरती। कोई एक व्यक्ति चाहे जितना महान् हो, फिर भी उसके साथ धर्मशास्त्र पूर्ण नही हो जाता । तव तो माना जायेगा कि मनुष्य-जाति की प्रगति का अन्त हो गया। इससे तो यही माना जा सकता है कि विश्व की रचना को चलाने वाली अगम्य शक्ति या तो तृप्त हो गई है या निराश हो गई है । परन्तु वास्तव मे ऐसा नही है । साधना का सस्करण और परिष्करण वार-बार होना ही चाहिये । यह कार्य करने वाले व्यक्ति भी बार-बार आने ही चाहिये । जिस समय चार व्रतो की आवश्यकता थी उस समय चार व्रतो से काम चला। लेकिन जब उनमे परिवर्तन करके व्रतो की सख्या पाँच करने की आवश्यकता हुई तब ऐसा कहने वाले व्यक्ति निकल पारने और चार के पाँच व्रत हो गये। इसी प्रकार समय-समय पर मार्ग-दर्शन करने वाले महापुरुष निकल ही आते है ।
अहिंसा एक सनातन तत्त्व है। अमुक समय के पहले अहिंसा नही थी, यह नहीं कहा जा सकता। समय-समय पर अहिंसा का प्रचार करने वाले पुरुष निकल ही आते है। मुझे सदा यह लगा है कि अहिंसा की सच्ची साधना ब्रह्मचर्य मे, सयम मे है । जो मनुष्य भोग-विनास मे डूवा रहता है और वैसा करके मरने के लिये बच्चे पैदा करता है, वह अहिंसक नही है। जीवन मे विलासिता कामुकता कम हो तो ही सच्ची अहिंसा को जीवन में उतारा जा सकता है और समाज मे उसे फैलाया जा सकता है।
पुण्य दु खकर है, लेकिन उसका फल सुखकर है, जब कि पाप बाहर से अथवा प्रारम्भ मे सुखकर होता है, लेकिन उसका फल दुखकर होता है । इसलिये भोग-विलास का सुखकर मालूम होना स्वाभाविक है। मनुष्य जिस हद तक विलासिता का त्याग करता है उसी हद तक वह अहिंसा-धर्म के निकट पहुँच पाता है । विलासिता को दूर करने के लिये इन्द्रियो की वृत्नियो को जीतना पडता है। इसी को तप कहा जाता है। यह तप ही अहिंसा है । यह साधना व्यक्तिगत और सामुदायिक दोनो प्रकार से होती है। उसे बताने वाले तीर्थकर समय-समय पर आते ही रहने चाहिये । और, इस प्रकार सनातन अहिंसा-धर्म का विकास होना चाहिये।