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जैन धर्म और अहिंसा
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अपराध के लिये सजा देना मनुष्य-जाति का वडा अपराध है। दूसरो को सजा देने वाले हम कौन होते है ? अपराध के लिये अपराधी को प्रायश्चित्त करना चाहिये । अपराध के लिये सजा देकर तो हम हिमा को घटाने के बदले प्रतिहिंसा करते है। सजा देने से मनुप्य का सुधार नहीं होता। सजा देकर हम भले ही सतोप अनुभव करे, परन्तु वास्तव मे उमसे हिंमा दुगुनी होती है। अपराध करने वाले की हिमा अप्रतिष्ठित मानी जाती है। जब किमी अपराधी को सजा होती है तो लोग उम कार्य को अच्छा मानने है, इसलिये यह प्रतिहिमा प्रतिष्ठित मानी जाती है। यह उलटे मार्ग की साधना है । इननी वात हम समझ लें, तो अहिमा का मार्ग हमारी ममा मे या जायेगा । भावी तीर्थकर हमें अवश्य कहेंगे कि अपराधी को सजा देना भी अपराध ही है। गोधी के मामने अगर हम ग्रोध न करें, तो अन्न मे उमे शान्त होना ही पडे गा । 'प्रतृणे पतितो वह्नि म्वयमेवोपगाम्यति'-तृणरहित स्थान मे पडी हुई आग अपने पाप धुल जाती है।
आज हम अहिंसा के वाल्यकाल में है। अहिंसा के विकास के लिये वडे धीरज और अम्बूट साहस की जरत है। मार्ग लम्बा है। ममाज में अहिंसा की शिक्षा का कार्य करना आवश्यक है। इसके लिये अनेक महापुरुप आयेंगे और मार्ग दिखायेंगे।
केवल म्यूल हिमा का त्याग पर्याप्त नही होगा। जहां धन के ढेर जमा हो गये है वहाँ उनकी नीव मे शोपण का पाप है--हिमा है । अमेरिका में क्वेकर मम्प्रदाय के लोग अहिंसक है और धनी भी है। भारत में जन लोग अहिंसक होने का सारण दावा करते है। फिर भी वे धनाढ्य है। द्रोह के विना धन नहीं मिलता। इसलिये मेरी ममझ मे नही पाता कि अहिंसा और धन का मेल कैसे बैठ सकता है । आप चीटियो के दर के सामने प्राटा डालें, रात्रि-भोजन न करे, पानू न खायें-यह सब तो अच्छा है। परन्तु यह प्रारम्भ की क्रिया है । हमे तो अहिमा-धर्म मे आगे बढना है। जगत मे जव युद्ध चल रहा हो तब हम शान्त कैसे बैठ सकते है ? हमे उसे रोकने का मार्ग खोजना चाहिये । हमारे विचारो में परिवर्तन की आवश्यकता है। कई लोग कहते है कि युद्ध तो यूरोप मे लडा जा रहा है, हमारे देश मे तो गांधीजी के प्रताप से सब ठीक चल रहा है। लेकिन मैं कहता हूँ कि हमारे देश में प्रत्येक प्रान्त मे भीतर ही भीतर फूट फैली हुई है, हर जगह अविश्वास फैला हुआ है । ये सव हिंसा के ही प्रतीक है। यूरोप के पास अस्त्र-शस्त्र है, इसलिये वहाँ के लोग