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महावीर का जीवन सदेश
प्रत्येक धर्म अनेक तरह के जीवन काव्य से भरपूर होता है। सच पूछा जाय तो धर्मज्ञान का समर्थ वाहन दलील या युक्ति और तर्क नही है, उसका सच्चा वाहन काव्य है । इसलिए काव्य-विहीन धर्म हो ही नही सकता । परन्तु जहाँ-जहाँ समाज मे अज्ञान और जडता का साम्राज्य होता है वहाँ धार्मिक काव्य के शब्दार्थ को ही सच्चा मान लिया जाता है, और अपने अज्ञान के कारण मनुष्य जहाँ न हो वहाँ भी गूढता और जादू का श्रारोपण करने लगता है । इस वृत्ति से अधिक धर्मविघातक वृत्ति कोई हो सक्ती है या नही, इसमे मुझे शक ही है । इसके विपरीत, धर्म के विषय मे वढने वाले इस पागलपन से ऊबे हुए लोग ऐसे मौको पर धर्म मे भरे हुए काव्य को जड़ से मिटा देने का निरर्थक और निष्फल प्रयत्न करते है । सच्चा उपाय तो यह है कि लोगो की बुद्धि को तीव्र बनाया जाय और उनकी काव्यरसिकता को विवेक पूर्ण बनाकर धर्म मे काव्य की वृद्धि की जाय । लोगो की काव्यरसिकता वढने पर वे धर्मं को आसानी से समझ सकेगे और धर्म मे घुसे हुए अधविश्वासो को भी पहचान सकेंगे ।
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परन्तु यह सब करने के लिए ज्ञानवान लोगो को शहरी आदते छोडकर गाँव की जनता के श्रम से पवित्र और प्रकृति से मधुर बने हुए दैनिक जीवन श्रोतप्रोत हो जाना चाहिए। ग्रामवासियो के जीवन से अलग रहकर उनके सरपरस्त, आश्रयदाता बनने से अब काम नही चलेगा ।
कोई भी समाज युग - कल्पना से पीछे रहकर सफल नही हो सकता । प्राज का युग केवल सैद्धान्तिक मानव-समानता का युग नही है | स्त्री-पुरुष की समानता को और जातियो की समानता को आज अमली रूप मे स्वीकार करना होगा । इतना ही नहीं, सब धर्मों को भी समान प्रतिष्ठा और समान आदर मिलना चाहिये। आज सब धर्मों के प्रति एक से अनादर की समानता पसद की जाती है, और उनके प्रति एक सी अनास्था अथवा एक से अज्ञान को भी समानता का एक मार्ग समझा जाता है । लेकिन यह मार्ग घातक है । आज के युग मे समाज मे रहने वाले प्रत्येक मनुष्य को मुख्य-मुख्य धर्मों का सामान्य ज्ञान होना चाहिये । परन्तु ऐसा ज्ञान लेने या देने मे केवल तार्किक, श्रालोचनात्मक अथवा ऐतिहासिक दृष्टि रखने से काम नही चल सकता । प्रेम, प्रादर और सहानुभूति के साथ जाग्रत जिज्ञासा बुद्धि से सब धर्मों का परिचय प्राप्त करना चाहिये । गाँवो का धर्म-ज्ञान वहुत पिछडा हुआ होता है, उनकी दृष्टि सकुचित होती है और उनका जीवन का हेतु वहुत उन्नत नही होता । श्राज