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तिवीर्य बाहुवल
व्रत करनी मूर्तियो की तरह अपनी नग्नता छिपाने का प्रयत्न नही करते । उनकी निर्लज्जता ही जब उन्हे पवित्र करती है, तब दूसरा आवरण उनके लिए किस काम का ?
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जब मैं कारकल के पास गोमटेश्वर की मूर्ति देखने गया था, तब मेरे साथ स्त्री और पुरुष, बालक और वृद्ध सभी थे । हममे से किसी को मूर्ति के दर्शन करते समय अस्वस्थता का अनुभव नही हुआ । अचभा पैदा होने का प्रश्न ही नही था । मैंने अनेक नग्न मूर्तियाँ देखी है, परन्तु उनके दर्शन से मस्त मन विकारी होने की अपेक्षा निर्विकारी ही हुआ है । मैंने ऐसी भी प्रतिमाएँ तथा तस्वीरे देखी है जो वस्त्राभूपणालकृत होने पर भी केवल विकारोत्पादक तथा उत्तेजक जान पडी है । केवल एक मामूली-सी लगोटी लगाने वाला नागा साधु हमे वैराग्य का पूरा-पूरा अनुभव करा देता है, जब कि सिर मे पैर तक ढके हुए व्यक्ति की एक ही कटाक्ष और उसका तनिक-सा नखरा मनुष्य को अस्वस्थ बना कर पतित कर देता है ।
नग्नता के प्रति हमारी दृष्टि और विकारो के प्रति हमारा रुख दोन ही बदलने चाहिए । हम विकारो का भी पोषण करना चाहते है और विवेक की भी रक्षा करना चाहते है, यह कैसे हो सकता है ?
यद्यपि बाहुबलि बलवान हैं, फिर भी उनका शरीर यहाँ पहलवान जैसा नही दिखाया गया है। ऐसा करने की प्रवृत्ति तो यवन मूर्तिकार मे थी । हमारे यहाँ के मूर्तिकार तो जड द्वारा चैतन्य की सृष्टि करना चाहते थे । वे मनुष्य की पाशविक शक्ति के व्यीक्तकरण की अपेक्षा पाशविक शक्ति पर विजय होने वाले वैराग्य और आत्म-सयम की प्रसन्नता का भाव प्रकट करने के लिये अधिक प्रयत्न करते थे । बाहुबलि की कमर मे दृढता है, उनकी छाती विशाल है, सारी दुनिया का भार उठाना उनके लिए मामूली बात है । यदि वे कम्बुग्रीव होते, गूढजानु होते तो सम्पूर्ण मूर्ति अधिक शोभायमान होती - यह ठीक है, परन्तु यह छोटा और मोटा गला अनायास ही 'कॉलर' की शोभा देता है, और अपने ऊपर शोभित मस्तक के कौमार्य को भली प्रकार व्यक्त करता है ।
सम्पूर्ण शरीर कटा हुआ, यौवनपूर्ण, कोमल और कातिमान है । ऐसी मूर्ति मे अगो के प्रमाण (Proportion) की रक्षा करना सयोग की ही बात है । एक ही पत्थर मे से खोदी हुई ऐसी सुन्दर मूर्ति ससार मे कोई दूसरी