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जीवन-व्यापी अहिंसा और जैन समाज'
लोग पूछते हैं, और अचरज की बात तो यह है कि मेरे जैन मित्र भी मुझे पूछने लगे है, कि आप इस युग में अहिंसा और मासाहार की बात क्या लेकर बैठे है ? एक पुराने जैन मित्र तो मुझे समझाने लगे कि "हम जैनियों का जो वर्तमान रुख है उससे हम मन्तोप है । हम प्राणी-हत्या नहीं करते । कोडे-मकोडे भी हमारे हाथो न मर जाय इसकी सम्भाल रखते है । बहुवीज वास्पति भी नही खाते । इस तरह मे अपना जीवन निष्पाप बनाने की कोशिश करते हैं। हमारे साधु हम लोगो की इस वृत्ति को बढावा देते हैं । महावीर की वाणी सुनाने है । स्वय सूक्ष्म हिंसा से भी वचने की कोशिश करते हैं । वे तप करते है । हम दान करते है। इससे अधिक आजकल के जमाने मे क्या हो सकता है ? दूसरे लोग मासाहार करते है । प्राणी-हत्या करते है । इसका हमे दुख है। लेकिन हम न कभी उनकी निन्दा करते है,न उनको रोकते है। दुखी होकर बैठ जाते है । यही तो आपका Peaceful Co-existence है न? इसी नीति से हम और हमारा धर्म वच गये है।"
____ मैं इस अलम् बुद्धि से और सन्तोप से डरता हूँ। इस भूमिका की बुनियाद मे केवल बौद्धिक ही नही, किन्तु नैतिक अप्रगतिशील आलस्य और जडता है । भगवान् महावीर ने क्या चाहा था और हम कहाँ ठहर गये है यह गम्भीरता से सोचना चाहिये । हम निष्पाप बने इतना वस नही है। आज की स्थिति में अपने को निष्पाप मानना हृदय को धोखा देना है । क्या दुनिया भर की प्राणी-सृष्टि को हत्या से बचाने का, उसे अभयदान देने का हमारा कर्तव्य नहीं है ? मनुष्य मनुष्य के वीच जो वैर, द्वेष और हिंसा विश्वव्यापी बन रही है, उसे रोकना नही है ? ज्ञानी, बुद्धिमान और चतुर लोग सारी दुनिया को निचो रहे है यह क्या हम स्वस्थचित्त होकर वर्दाश्त कर सकते हैं ?
हमारी तिजारत और हमारी महाजनी हिंसा से मुक्त है ?
जव गाँधीजी ने विश्व के लिये अहिंसा का नया प्रयोग शुरु किया तब उसमे जैनियो का सहयोग कितना था ? जब सव राष्ट्रो के शान्तता-वाद के प्रतिनिधि इकट्ठा होते है तब जैन धर्म के चन्द जागरूक प्रतिनिधि जीवदया