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153 अहिंसा का वैज्ञानिक प्रस्थान उनके छत्तो का नाश करना, धुओं और आग के प्रयोग से उनका नाश करना, यह सब हिंसा है, घातकता है और अनावश्यक क्रूरता है, यह भी समाज को समझाना चाहिये।
रेशम के लिये जो हम कीटसृष्टि मे भयानक सहार चलाते है उसका भी हमे विचार करना होगा। इसमे इतना कहने से नही चलेगा कि इतनी हिंसा हम मान्य रखते है, वाकी की मान्य नहीं रखते। केवल मान्यता की ही बात सोची जाय तो उसमे अनेक पथ पैदा होगे ही और ऐसे पथो को मान्य रखना ही धर्म्य होगा।
मनुष्य को मार कर खाने वाले समाज भी इस दुनिया मे थे । प्राचीन या मध्यकालीन जैन मुनियो ने ऐसो के बीच जाकर भी उन्हे अहिंसा की ओर आकृष्ट किया। इसके आगे जाकर पशु-पक्षी का मास खाने वाले लोगो ने गाय-बैल का मास छोडा, यह भी एक प्रगति हुई । लेकिन इतने पर से गाय-बैल का मास खाने वाले को हम पापी या पतित नही कह सकते, उनकी घृणा भी नही कर सकते। दुनिया मे बहुमती उनकी है। उनकी धर्मबुद्वि और हमारी धर्मवुद्धि मे फर्क है। ऐसे करोडो हिन्दू है, जो पूज्यभाव के कारण गाय-बैल का मास नही खाते, किन्तु इतर पशुपक्षिय का मास खाते हैं । ऐसे भी हिन्दू हैं जो बतक के अडे खाते है, किन्तु घृणा के कारण मुर्गी के अडे नही खाते । मुसलमान ऐमी ही घृणा के कारण सूअर का मास नही खाते । यहूदियो के भी अपने नियम है ।
और, हिन्दुनो मे भी गोमास खाने वाले नही सो नही।
यह सारा विस्तार इसलिये किया है कि हम केवल आदर और तिरस्कार पर आधारित मनोवृत्ति के वश न होकर वैज्ञानिक ढग से प्रयोग करते जायें और सब के प्रति हम सहानुभूति रखे ।
और, अव अहिंसा की हमारी साधना केवल शास्त्र-वचनो पर और धार्मिक रस्मरिवाजो पर आधारित न रखकर उसे वैज्ञानिक सशोधन का विषय बनावे ।
आज तक पशु-हिंसा, निरामिपाहार, तपस्या और ग्राहार-शुद्धि इतनी ही दृष्टि प्रधान रख कर अहिंसा का विचार और प्रचार किया और पुराने जमाने की स्थूल वैज्ञानिक दृष्टि के अनुसार एकेन्द्रिय प्राणी, पचेन्द्रिय प्राणी आदि भेदो की बुनियाद पर अहिंसा के नियम बनाये । अब जब विज्ञान