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महावीर का जीवन सदेश लिये भी, निष्ठा और दृढता के साथ उस धर्म का स्वय पालन करता है (स्वय पाचरते वस्तु ), ऐसे समाज-नेता को प्राचार्य कहा है । ( स प्राचार्य प्रचक्षते)।
समाज का प्राण वढे, उस की सस्कारिता मे उत्तरोत्तर वृद्धि हो और सामाजिक जीवन के आदर्श तक मनुष्य पहुँच जाय इसलिये जो धर्म की स्थापना करता है, प्रचार करता है और आचरण करता हे ऐसो के द्वारा ही युग-धर्म कृतार्थ हो सकता है।
'प्राचिनोति हि शास्त्रार्थ, आचारे स्थापयत्युत । स्वय आचरते यस्तु, स आचार्य प्रचक्षते ॥
२६-३-५७