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________________ प्राण और सस्कारिता 119 इस तरह धर्म में अधिकार भेद आ गया और समाज मे ऊँच-नीच श्रेणी बंध गई। जिनका मर्वमान्य ग्रादर्श एक है, किन्तु अनुशीलन-शक्ति कम या अधिक है, वैमे ही लोग ऊँच-नीच की श्रेणी-व्यवस्था खुशी से मान्य करते है । जब ऐसा नही होता तव समाज मे दम पैदा होता है । लोग सिद्धान्त का पालन न करते हुए भी ऊपर से बताते है कि वे उस का पालन कर रहे है। तीसरा मार्ग पर्याय-धर्म का है । जब मनुष्य फाका रखने का व्रत लेता है लेकिन भूखा नहीं रह सकता, तब माहार का अर्थ करता है धान्याहार और फलाहार करने पर व्रत-पालन का सतोप मानता है । अगर मास का यज न कर सका तो माप का यज्ञ करके पिप्ट पशु का बलिदान देंगे । ऐसा पर्याय-धर्म चलाने में धर्म निष्प्रभ होता है और उसका फल नही मिलता। मनुस्मृति ने साफ कहा है कि प्रधान धर्म का पालन करने की शक्ति होने पर भी जो मनुष्य आपद्धर्म का आश्रय लेता है उसे धर्म-पान का फल नही मिलता। प्राण और सस्कारिता दोनो का यथाप्रमाण मिश्रण करने से मनुष्य का उत्तम विकास होता है । अपनी शक्ति की अपेक्षा कडे धर्म का पालन करने से वह निष्फल होता है । ऐसे आदमी को गीता ने मिथ्याचारी कहा है । केवल प्राण को समझने वाले को असुर कहा है। केवल सयम को प्रधानता देने से मनुष्य ऋपि मुनि की कोटि प्राप्त करता है। जो दोनो का समन्वय करता है, वही सामाजिक दृष्टि रखने वाला धर्मकार, समाज-धुरीण बनता है । वह हर चीज की मर्यादा जानता है और समाज के कल्याण की भावना मन मे रखकर लोगो का नेतृत्व करता है । अाज ऐसे समाज-धर्म की सब से वडी आवश्यकता है । उसी से धर्म-तेज प्रकट होगा और सब का कल्याण होगा। यह काम करने वालो को प्राचार्य कहते है । सब शास्त्रो का निरीक्षणपरीक्षण करके उस मे से अपने जमाने के समाज के लिये हितकर भाग जो इकट्ठा करता है (प्राचिनोति हि शास्त्रार्थम् ), उस के बाद ऐसे लोकहितकारी धर्म की जो समाज मे स्थापना करता है (प्राचारे स्थापयत्युत), और उस धर्म का लोग श्रद्धापूर्वक पालन करें इसलिये, और अपने कल्याण के
SR No.010411
Book TitleMahavira ka Jivan Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajasthan Prakruti Bharati Sansthan Jaipur
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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