________________
प्राण और सस्कारिता
धर्म का प्रयोजन जीवन के विकास के लिये-जीवन-शुद्धि और जीवनसमृद्धि के लिये है, इतना तो हमने देख लिया । असली वस्तु जीवन है। उसे कृतार्थ करने के लिये धर्म की प्रवृत्ति है।
जीवन का आधार है प्राण । प्राण व्यक्तिगत भी होता है और सामुदायिक भी होता है । इस प्राण की अदम्य स्फति के कारण जीवन अखण्ड चलता आया है। जीवन मे अगर प्राण (Vitality) है तो धर्म मे प्रयोजन है, सयम है। इस सयम का अगर योग्य उपयोग किया तो प्राण-शक्ति बढती है, घटती नही। जिस तरह लगाम खीचने से घोडा अधिक जोर से दौड सकता है अथवा जिस तरह भाप (Steam) को कोठी मे वद करने में शक्ति हासिल होती है उसी तरह सयम के द्वारा प्राण-शक्ति का कार्य वढता है, प्राण-शक्ति कार्य-समर्थ होती है।
सामान्य रूप से स्वीकार करना पड़ेगा कि सस्कारिता बढने पर प्राणशक्ति कुछ सौम्य होती है, कुछ क्षीण भी होती है, लेकिन अधिक कारगर होती है।
अगर जीवन-शक्ति को अनिरुद्ध काम करने दिया तो उस मे जोश आता है । लेकिन वह कार्य कृतार्थ नही होता। अगर सयम की मात्रा हद से ज्यादा वढाई तो प्राण क्षीण होता है, अथवा उसमे विकृति आती है।
जब धर्म अपनी जीवन-निष्ठा छोड सिद्धान्तनिष्ठ बनता है तब उस से जीवन-शुद्धि का काम कुछ हद तक अच्छी तरह से होता है । लेकिन सारा-कासारा समाज उस के तकाजे को न कभी मान सकता है, न निभा सकता है।
प्राकृत लोग कहते है कि 'धर्म का सिद्धान्त तो ठीक ही है, बुद्धि उस को स्वीकार भी करती है। लेकिन जीवन उस के लिये तैयार नही है । जो लोग सर्वोच्च सिद्धान्त का पालन कर सकते है, वे महात्मा है। उन की श्रेष्ठता हम मजूर करते है। हम अल्पात्मा है। हम आदर्श तक नहीं पहुंच सकते । आदर्श तक पहुँचने का हमारा अधिकार भी नहीं। हम महाव्रत का पालन भी नही कर सकते, अणुव्रत से सतोप करेगे।'