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धर्मों से श्रेष्ठ धार्मिकता
"केवल नीति का उपदेश करने में दुनिया मदाचारी नहीं बनती। धर्म-तेज प्राप्त करना केवल बुद्धि का प्रयोग नहीं है। उसके लिये श्रद्धा, निप्छा तो चाहिये ही, इतना ही नहीं किन्तु जिन्हें अतीन्द्रिय भान है ऐसे कोई ऋषि-मुनि, गुरु, पैगम्बर के वचन पर, उसके दिये हुए ग्रन्थ पर अनन्य निष्ठा चाहिये । अपनी बुद्धि का प्रामाण्य चलाने में सतग ह मलिए शाम्य का प्रामाण्य कबूल करना चाहिये । शाम्य-वचन पर श्रद्वा-निप्ठा रखकर ही मनुप्य प्राध्यात्मिक मार्ग में प्रगति कर मकता है और साक्षात्कार तक पहुँन सकता है।"
यह है भूमिका धर्मनिष्ठ लोगो की। श्री राजगोपालाचारी कहते है कि गेमी धर्मनिष्ठा के माथ अगर मकुचितता और एकागिता पाती हो तो उसे वर्दास्त करके भी धर्मनिष्ठा का पक्ष मजबूत करना चाहिए।
सच्ची धर्मनिष्ठा के साथ सकुचितता और एकागिता रह सकती है, लेकिन कभी भी जोर नही पकडती । अनुभव बढने पर एकागिता और मकुचितता पाप ही आप गल जाती है । क्योकि एकागिता और मकुचितता असल मे अधार्मिक चीजें है। धर्मनिष्ठा के साथ उनका कायम का मेल बैठ नही सकता ।
आज की दुनिया में धर्मनिष्ठा कम पाई जाती है। काफी मात्रा में पाये जाते है-धर्माभिमान और धर्मान्धता । अथवा यह कहना ठीक होगा कि असल मे लोगो में होते है एकागिता, सकुचितता, दुरभिमान और असहिष्णुता । ये चारो चाण्डाल अपना राज्य मजबूत करने के लिये जिन-जिन चीजों का सहारा लेते है, उनमे मुख्य चीज है धर्माभिमान। धर्मान्धता की मदद से अमहिष्णुता. व द्वे पवुद्धि जोर पकडती है । जिस जमाने मे जीवन-शुद्वि कम होती है उस जमाने मे प्रेम, सेवा, सहयोग और ममन्वय वाला सद्गुण-चतुष्टय क्षीण होता है । अभिमान, मत्सर, अविश्वास और शत्रुत्व जैसे इन दोपो को प्रश्रय मिलता है और मनुष्य मानता है कि यही है उसकी धर्म-सेवा की पूंजी।