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जैन समाज के साथ मेरा परिचय
समाजशास्त्र के आज तक के अपने अध्ययन के आधार पर मैने एक अचूक नियम ढूंढ निकाला है। जिस जाति ने जमीन के साथ अपना सीधा सम्बन्ध नही रखा है, उसने अपनी जडे कमजोर बना ली है । मै यह मानता हूँ कि जो अनाज हम खाते है वह कैसे और कहाँ उत्पन्न होता है, यह हमे अनुभव से जानना चाहिये । कही कही खेती मे होने वाली हिंसा के कारण खेती से दूर रहने की बात कही जाती है । लेकिन मेरा अनुमान है कि जैन लोग ऐसा तर्क नही कर सकते क्योकि जैनमत ने तो किये हुए, कराये हुए और अनुमोदित कार्य मे समान दोप बताया है । जो अनाज खाया जाता है उससे सम्बन्धित खेती का दोप खाने वालो को लगता ही है । इतने पर भी यदि आपका धर्म इससे भिन्न कुछ कहता हो, तो मैं लाचार हूँ । मुझे जो कुछ उचित लगता है उसे आपके सामने रखना मै अपना धर्म मानता हूँ ।
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धनी होने के दो ही मार्ग है (1) व्यापार उद्योग और (2) लूटपाट | व्यापारी व्यापार करते है और खूब धन इकट्ठा करते है । सरकार कानूनन् लूटपाट करती है और धन के भण्डार भरती है । सरकार से मेरा मतलब केवल अग्रेज सरकार से ही नहीं, आज की प्रत्येक सरकार यही काम करती है । वह व्यक्तियो को चूसती है और पशुवल से सर्वत्र राज्य चलाती है । व्यापार से समाज मे पैसा आता है, परन्तु जमीन के साथ सम्बन्ध रखे बिना समाज मे स्थिरता नही आती । पैसा शहर की चीज है । नही कि हमने शहर मे ही रहने के कारण अपने अनेक गुण खो के साथ सीधा सम्बन्ध तो गाँव मे रहने से ही स्थापित हो मनुष्य गाँव मे रहता है वह ऋतु के परिवर्तनो का, खुली हवा का, खूली धूप, ठण्ड - गरमी और बरसात का, भव्य आकाश तथा पक्षियो के मीठे कलरव का अनुभव कर सकता है । जिसे खेती करनी होती है वह आकाश की ओर टकटकी लगाकर बैठता है और रात के तारो तथा दिन के सूर्य प्रकाश के साथ एक रूप होकर जीवन बिताता है । आत्म-रक्षक वृत्ति का विकास करने के लिए भी खेती अत्यन्त आवश्यक है, क्योकि किसान को कुदरत के तथा पशु-पक्षियो के अनेक आक्रमणो के सामने निरन्तर जूझना पडता है । इसी दृष्टि से मै कहता हूँ कि क्षत्रिय और क्षेत्रीय (किसान) मे मै बहुत भेद नही करता। गाव के किसानो
इसमे कोई शका दिये है । कुदरत सकता है । जो
सदा ही आत्म-रक्षक वृत्ति दिखाई है। शिवाजी ने और वारडोली के किसानो ने यह बात सिद्ध कर दिखाई है । जब सत्ताधारी का प्रादेश निकलता है कि ‘you shall yield' (तुझे झुकना ही पडेगा ) तब किसान ही यह उत्तर दे