________________
38
महावीर का जीवन सदेश
सकता है कि 'I shall neither break nor bend' (मैं न तो टूटूगा और
न झुकू गा)।
इस विश्व मे अहिमा के समान दूसरा कोई धर्म नही है। इसे आप और मैं दोनो मानते है। फिर भी इस शरीर के साथ इस जीवन मे सपूर्णतया अहिंसा का आचरण करना किसी भी मनुष्य के लिए सभव नही हो सका। भविष्य में भी कभी यह सभव नही होगा। हमारे जीवन का उद्देश्य अपनी वर्तमान प्रवृत्तियो में हिंसा को यथामभव कम करना ही हो सकता है । इसका अर्थ यह हुआ कि जब तक हमारी सासारिक प्रवृत्तिया चलती रहे तब तक अहिमा-धर्मियो को अहिंसा के नये-नये प्रयोग चान रखने ही होगे, इसी प्रकार हमे यह भी देखना चाहिए कि खेती के काम मे अहिंसा की ओर बढने की कितनी मभावना है, क्योकि खेती को हम जितनी अहिंसक बना सकेंगे सम्पूर्ण जगत उतना ही अहिंसक बनेगा। वाहर के जीवन मे हम अहिंसा की चाहे जितनी बातें करें, परन्तु जिस अन्न के विना हमारा और जगत का जीवन एक दिन के लिए भी नही चलता, उमे उत्पन्न करने वाली खेती को जब तक हम विशुद्ध नही वनायेंगे तब तक अहिंसा-धर्म हमारे जीवन के मूल को स्पर्श नही कर सकता। सन्यासी समस्त प्रवृत्तियो से दूर रहकर स्वय वडा अहिंसक होने का दावा कर मकता है, परन्तु उसके दावे की बहुत कीमत नही है। अहिंसा-धर्म जीवित और जाग्रत विश्वधर्म है और उसकी पूर्णता हम जीवन में कभी सिद्ध कर ही नही सकते । इस अहिंसा-धर्म का आचरण हिंसक मानी जाने वाली प्रवृत्तियो से दूर रह कर तथा दूर रहते हुए भी उन प्रवृत्तियो के फलो का लाभ उठाकर हम कभी करा ही नही सकते । मैं इस बात की ओर जैन मित्रो का खास तौर पर ध्यान खीचना चाहता हूँ कि हमारा कर्तव्य ससार की स्थिति के लिए अनिवार्य प्रवृत्तियो से हिंसा के तत्त्व को यथासभव दूर करने में निहित है।
इस तरह विचार करने पर मैं यह मानता हूँ कि जैन समाज को प्रार्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, बौद्धिक, स्वास्थ्य-विषयक दृष्टि अथवा अत मे मोक्ष की दृष्टि से भी जमीन के साथ अपना सम्बन्ध बढाना ही चाहिये । मैं यह कहने की इजाजत लेता हूँ कि जब तक जैन लोग ऐसा नही करेंगे तब तक उनकी प्रतिष्ठा स्थिर भूमि पर टिकी हुई नही मानी जा सकती।
जैन समाज के साथ मेरा बहुत गहरा अथवा विस्तृत परिचय नही है । मेरा परिचय है पेड-पौधो और पशु-पक्षियो के साथ तथा जिन लोगो की सेवा