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क्या जैन समाज धर्मतेज दिखायेगा?
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वह हिन्दू धर्म के बुरे असर से वशनिष्ठ बन गया है। इने-गिने साधु किसी पिछडी कौम के दस-बीस लोगो को जैन धर्म की दीक्षा दे तो इममे जैन धर्म ने अपना मिशन छोड नही दिया है, यह सिद्ध नहीं होता।
साधु लोग श्रावको के सहारे जीते है। श्रावक रूढि की कसौटी पर साधुग्रो के आचार को कसते है। परिणामत श्रावक एव साधु रूढि मे सुधार करने की कल्पना भी नही कर सकते । मनुष्य के आदर्श में सुधार हो, ज्ञान मे विकास हो, परिस्थिति में बदल हो, तो भी रूढि का आग्रह तत्त्वत जो कायम रखे वह समाज चाहे जितना समृद्ध हो, उसे ज्डता का ही उपासक कहना होगा। बिना रूढि के सगठन नही हो सकता और विना मगठन के समाज मे आदर्श टिकते नही, यह बात सही है । परन्तु, जैसे उम्र बढनी जाती है वैसे शरीर बढता है, ज्ञान और अनुभव बढना है वैसे मन भी परिपक्व होता जाता है, उसी प्रकार जमाना बदलता है उसके अनुसार आदर्शों में भी सुधार हो और रूढिया जडता का त्याग करके आवश्यक परिवर्तन समय पर करने को तैयार हो जाये । अगर ऐसा नही होता है तो सामाजिक-जीवन मे दम्भ दाखिल हो जग्येगा, धर्म निष्ठा निष्प्राण हो जायेगी और अन्त मे नये और तेजस्वी तत्त्व पुराने धर्मो का तिरस्कार करके उन्हे खा डागे।
__ पश्चिम की सस्कृति अच्छी हो या बुरी जिदा है, प्राणवान है और अपना असर सर्वत्र फैलाती है। मढिवादी समाजो का रिवाज भी अब निश्चित हुआ है । पश्चिम की ओर से कुछ नया पाया कि 'वह अधार्मिक है, विकृति है' कहकर उसकी निन्दा करना । उसे रोकने का प्रयत्न करने के लिये प्राणशक्ति तैयार करने की जिम्मेदारी के अभाव के कारण तटस्थता से पात्रमण को देखते रहना । वह आक्रमण घर मे सर्वत्र फैल जाय तब मन का विरोध भी ढीला करना और नई वस्तु कोमजूर रखना । कानान्तर से वे ही वस्तुएँ समाजमान्य रूढिया वन जाती है और उसके लिये नया बचाव भी तैयार किया जाना है। हमारे यहाँ जमाना बदलता है हम उसे बदलते नही। बाहर से वस्तुएँ पाती है, हम अपनी संस्कृति के अनुसार और हमारे जीवन की जरूरत के मुताबिक कुछ नया उपजाने का पुरुपार्थ नही करते । पोषाक हो या घर का साज-सामान हो, जो हमारे यहाँ आता है उसको बडबडाते या उत्साहपूर्वक स्वीकार करते है और मानते है कि हम अपने धर्म के प्रति निष्ठावान है। सिर्फ कमाना और जीवनानद लेना इतनी ही हमारी प्रवृत्ति रहती है। (अकसर जीवनानद लेना आता नही है सो अलग बात है।)