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धर्मों से श्रेष्ठ धार्मिकता
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और जो लोग श्रद्धा-भक्तिपूर्वक पशु को बलिदान चढाते है, उनको पशु-हत्या का तनिक भी बुरा न लगता हो तो भी जिनको कुरा लगता है उनका भाव समझने की और उनके हृदय की वेदना की कद्र करने की शक्ति होनी चाहिये ।
___ इसके मानी ये हुए कि मनुष्य को भिन्न-भिन्न विचार और परम्पर विरोधी भावनाये समझने की और उनके साथ सहानुभूति रखने की शक्ति होनी ही चाहिये । यह तभी हो सकता है जब मनुष्य सभी धर्म-ग्रन्थ और सभी धर्म-सस्थापको के प्रति आदर रखे । और, यह भी तभी बन सकता है जब हरेक धर्म की छोटी-छोटी और गौण वस्तु के प्रति आदमी उदासीन वन जाये सर्व-धर्म-समभाव के माथ अपने धर्म की खामियां और उसकी कमजोरियां समझने की और उनका स्वीकार करने की शक्ति भी होनी चाहिये।
अनेक देशो के कानूनो का तुलनात्मक अध्ययन करने वाले के पास एक सार्वभौम मर्वसामान्य कानूनी दृष्टि खडी होती है। फिर वह उम (Jurisprudence) को ही-सार्वभौम न्यायदृष्टि को ही-प्रधानता देने लगता है और सब देशो के कानूनो की कद्र करते हुए और उस-उस देश में वहाँ के कानूनो का पालन करते हुए, वह अपनी भूमिका उच्च रस मकता है। ऐसे मनुष्य की श्रद्धा-भक्ति कुछ हद तक-काफी हद तक बुद्धिप्रधान ही होती है । नीति और सदाचार के कानून कभी-कभी सापेक्ष (relative) और साकेतिक (conventional) होते है। यह समझकर उनसे ऊपर उठने का कर्तव्य वह स्वीकारता है । ऐमे उदार व्यक्ति की धर्मनिष्ठा अन्धी न होने के कारण, एकागी लोग उमे शिथिल भी कह सकते है। लेकिन मत्यप्राप्ति का
और आध्यात्मिकता वढाने का वही तरीका है। सर्वधर्म-समभाव के साथ पक्षपात-राहित्य आ ही जाता है । क्योकि मनुष्य धर्मों को पहचान कर उनमे रही हुई धार्मिकता पाता है और इस चीज का साक्षात्कार करता है कि सार्वभौम धार्मिकता धर्मों से भी श्रेष्ठ है।
२८ मई १ ५७