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त्रिवेणी समन्वय
होगे, हमे उनकी चर्चा मे नही पडना है । हम केवल 'धम्म' को मानते है । उसी के पालन मे अपना कल्याण देखते है । 'धम्म' के मानी है सदाचार का सार्वभौम नियम | 'धम्म' ही सच्चा सत्पुरुष धर्म है । बुद्ध भगवान् का कहना था कि मुझको भी 'धम्म' का ही प्रतीक समझो– 'यो म पश्यति सो धम्म पश्यति यो धम्म पश्यति सो म पश्यति ।' 'कल्याणो धम्मो ।' बुद्ध भगवान् के प्रार्य अष्टांगिक मार्ग का प्रचार जगत् के विशाल क्षेत्र मे और अधिकाश मानव जाति मे स्थूल रूप से हो चुका है ।
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बुद्ध भगवान् के समकालीन भगवान् महावीर ने भी ऐसा ही एक युग-सन्देश दे दिया । ययाति जैसे सम्राट् ने अपने सौ लडको का यौवन अनुभव करने के बाद और हर तरह के विलास मे डूबने के बाद कहा था"इस सारी दुनियाँ मे जितने चाँवल है, गेहूँ है, तिल है - यानी साधन सम्पत्ति है - और जितने भी दास-दासियाँ है, एक आदमी के उपभोग के लिये भी पर्याप्त नही है, इसलिये भोग-विलास को बढाते मत जाओ, मयम करना सीखो ।” भगवान् महावीर ने भी यही तपस्या का व सयम का मार्ग सिखाया । उन्होने यह भी कहा कि मनुष्य का अनुभव एकागी होता है, दृष्टि एकागी होती है, इन सब दृष्टियो के समन्वय से ही केवल सत्य का, सम्पूर्ण सत्य का ज्ञान होगा | भगवान् महावीर ने यह भी बताया कि लोभ और वासना पर विजय पाने के लिये और सर्व कल्याणकारी समन्वय दृष्टि प्राप्त करने के लिये श्रात्म-शक्ति बढानी चाहिये । स्याद्वाद या अनेकान्तवाद को मैने बौद्धिक हिंसा का नाम दिया है । जिस तरह peaceful Co-existence राजनीतिक सामाजिक अहिंसा है, उसी तरह एकान्तवाद बौद्धिक अहिंसा है ।
इस एकान्तवाद को परिपूर्ण समन्वय का रूप दिया भगवान् गौडपादाचार्य ने । लोग उन्हे अद्वैताचार्य कहते है । मैं उन्हे समन्वयाचार्य कहता हूँ । वेदान्त की सर्व - सग्राहक दृष्टि का वर्णन करते हुये उन्होने कहा कि "और दर्शन आपस मे लड सकते है, हमारा किसी से झगडा नही है । हम ऐसी भूमिका पर खडे है कि जहाँ से हम सब दर्शनो की खूबियाँ देख सकते है । इसलिये हम सब को स्वीकार करते हैं और उनकी व्यवस्था भी कर सकते है ।" यह वेदान्त दर्शन आज दुनिया के दार्शनिको मे अधिकाधिक प्रतिष्ठा पाने लगा है । यह दर्शन कहता है कि "धर्म" की स्थापना श्रात्मशक्ति से ही होगी जरूर, लेकिन उसकी बुनियाद मे विश्वात्मैक्य भाव होना