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महावीर का जीवन संदेश
तेज हो जब खाना हराम मालूम हो तब खाने से परहेज रखना, यह हे मनुष्य का धर्म ।
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सकट देखते ही जान बचाने के लिये भाग जाना यह है प्राणिमात्र का स्वभाव-धर्म | लेकिन किसी को सकट से बचाने के लिये अपने प्राण खतरे मे डालना, प्राणो की परवाह नही करना, यह है मनुष्य का कर्त्तव्य-धर्म ।
ऐसे धर्म का आविष्कार किसने किया ? गीता कहेगी कि प्रजापति भगवान् ने स्वयं प्रजा के साथ-साथ ही उसके कर्त्तव्य-धर्म का भी सर्जन किया है । स्वभाव धर्म मनुष्य को प्रकृति ने दिया और जीवन को कृतार्थ करने वाला कर्त्तव्य धर्मं भगवान् ने मनुष्य के हृदय में जागृत किया । (प्राणियो मे भी अपने बच्चे की या अपने समूह की रक्षा का भाव भगवान् ने इतना उत्कट किया है कि नर-मादा अपने बच्चे की या समुदाय की रक्षा के लिये अपना प्राण भी देते है । इस बात से प्राणियो
कुछ हद तक मनुष्य के जैसा
धर्मोदय हुआ है सही 1)
ऐसा धर्मोदय भगवान् की प्रेरणा से ऋषि-मुनियों के, साधु-सतो के, समाज नेता-धर्म सस्थापको के हृदय में होता है । ऐसा धर्म धीरे-धीरे मनुष्यहृदय में विकसित होता जाता है । लेकिन किसी भी देश मे, किसी भी जमात मै, किसी भी जमाने मे देखिये, धर्मभेद होते हुए भी धर्म - विकास की दिशा एक ही होती है ।
अपनी वासनाओ के ऊपर विजय पाना, जो उचित है उसी को करना, अनुचित नही करना, अपने हृदय का विकास करते-करते अन्यो के साथ अपनी एकता का अनुभव करना, यह है धर्म का व्यापक स्वरूप | ऐसे धर्म का स्पष्ट उपदेश सुनते ही हृदय धीरे-धीरे उसके अनुकूल होने लगता है । ऐसे धर्म के पालन के लिये शक्ति इकट्ठा करना, यही है मनुष्य की साधना ।
मनुष्य-स्वभाव मे और एक बात भरी पडी है कि जो कोई सच्चे धर्म का बोध कराता है अथवा धर्म-पालन के लिये जरूरी शक्ति कमाने मे मदद करता है उस के प्रति कृतज्ञ बनना, उसके कहे अनुसार चलना, उस के हाथ मे अपना जीवन अर्पण करना, मनुष्य के लिये स्वाभाविक है । ऐसी अर्पण वुद्धि जव बढती है तब मनुष्य लोकोत्तर त्याग और पराक्रम कर सकता है ।