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का विचार तथा आचार अटक कर रह गया है। उक्त सूक्ष्म अहिंसा का विचार-व्यवहार भी अयुक्त नही है। परन्तु काका साहेब इस पर जो कटाक्ष जैसी शब्दावली का प्रयोग करते है, उसका अर्थ कुछ और है। काका की दृष्टि जनजीवन पर सब ओर व्यापक रूप में जल रहे हिंसा के दावानल पर है, जिस मे मानव-जाति की मानवता का शिवत्व ही अनियन्त्रित गति से भस्म होता जा रहा है । आप सब देख रहे है, आज क्या स्थिति है, देवदुर्लभ कहे जाने वाले पवित्र मानवीय जीवन की। आये दिन हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख आदि साम्प्रदायिक धर्मों के नाम पर मानव का रक्त बह जाता है, उच्च और निम्न वर्ण के जातीय संघर्ष मे निर्दोष नर नारी मौत के शिकार हो जाते है। वैज्ञानिक एव चिकित्सा सम्बन्धी परीक्षण, खाद्य समस्या का समाधान, विलास एव सौन्दर्य-सामग्री का निर्माण तथा देवी-देवतापो को बलिदान आदि के रूप मे मूक पशु-पक्षियो तथा जलचर आदि पर जो क्रूरतापूर्ण हत्याकाण्ड के कार्य हो रहे है, वे कितने भयकर हृदयप्रकम्प है, कुछ पूछिए नही। दहेज आदि के रीति-रिवाजो पर नारी-जाति पर क्रूर अत्याचार हो रहे है-बलात्कार ही नही सामूहिक बलात्कार जैसे नृशस अपकर्म भी कम नही है । आर्थिक शोषण, युद्ध, विग्रह, कालावाजार और तस्करी आदि की हिंसा का ताण्डवनृत्य अलग ही अपनी विभीपिका दिखा रहा है। अपराधकमियो द्वारा खुले आम हत्या, लूटमार, छीना-झपटी आदि के कुकृत्यो का अभिशाप अपनी चरम-सीमा पर पहुंच रहा है । मब ओर भय व्याप्त है। कही भी मनुष्य का जीवन और मान-मर्यादा सुरक्षित नहीं है । "जीवन व्यापी अहिंसा और जैन समाज" शीर्पक से काका साहेव इसी अोर सकेत करते है । स्पष्ट है, जब तक हम सब ओर फैल रही उक्त व्यापक हिंसा का प्रतिरोध न करेगे, व्यापक स्तर पर अहिंसा एव मंत्री का प्रचार-प्रसार न करेंगे, तव तक मानव न अपना आध्यात्मिक विकास कर पाएगा और न सामाजिक मगल और कल्याण । प्रस्तुत संग्रह मे काका के अहिंसा से सम्बन्धित विचार पक्षमुक्त भाव से मननीय है, मननीय ही नही सर्वात्मभाव मे जीवन मे अवतारणीय है। इसके अतिरिक्त दूसरा कोई पथ नही है मानव-जाति के अभ्युदय एव नि श्रेयस् का।
प्रस्तावना का अक्षरदेह लबा होता जा रहा है। विचार क्रान्ति के सूत्रधार काका साहेव के एक-एक विचार-चिन्तन पर बहुत कुछ कथ्य है, परन्तु