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अहिंसा की पुण्यभूमि
यहाँ पावापुरी मे धान के खेतो के बीच शोभा देने वाला यह कमल-कासार अपनी स्वाभाविकता से राज करता है और उसमे वना हुया जल-मन्दिर किसी लोभी मनुष्य की तरह सारे द्वीप को व्याप नही लेता। उसने अपने चारो तरफ घूमने-फिरने के लिए काफी खुली जगह रख छोडी है और अपरिगह का वातावरण बनाया है। मदुरा के विशाल मन्दिरो मे अगर भव्यता है, तो पावापुरी के इस छोटे-से मन्दिर मे लघिमा और लावण्य की सिद्धि है।
यहाँ की तरह अगर जैन लोग अपने मन्दिरो मे सगेमरमर का उपयोग करे, तो उनकी कोई निन्दा नहीं करेगा। हाँ, उन्हे एक बात छोड देनी चाहिए । मालूम होता है कि जैनो मे भगवान् की भक्ति की अपेक्षा अपने नाम की अभिलाषा कुछ अधिक होती है। जहाँ पर नजर डालिए, दरवाजो या महाद्वारो पर बडी-बडी तख्तियाँ दिखाई देगी और उन पर नाम लिखे हुये पाये जायेगे। कई एक तो उन्होने कितने पैसे दिये है, इसका व्यापारी झिाव भी खुदवाते है। यह सब जाहिर ही करना हो, तो दरवाजो के माथे की अपेक्षा यदि दरवाजे के दोनों तरफ की दीवार पर जमीन से दो-तीन फुट की ऊँचाई पर ही किया जाय, तो ख्याति भी मिलेगी और नम्रता की भी क्षति नहीं होगी।
कुछ वैष्णव भक्त दूसरे छोर को जाकर मन्दिर के महाद्वार के सामने के फर्श पर अपने नाम और प्राकृतियाँ खुदवाते है। मशा यह होती है कि दर्शन के लिए आये हुए असख्य भक्तो की चरणरज हमारे नाम पर पडेगी, तो उससे हम पावन ह गे। इसमे नम्रता को पराकाष्ठा का परिचय मिलता है, लेकिन मुझ-जैसे दर्शनार्थिय को जो परेशानी होती है, उसका तो कोई खयाल ही नही किया जाता। उस भाई को नम्रता ने घेरा, इसलिए क्या मै उसके उद्धार के लिए लापरवाही अख्तियार करू और धूल से मलिन पैर उसके नाम पर रखू ? वैष्णव भक्तो को जरा तो दया-धर्म निवाहना चाहिए।
इस बार पावापुरी के सरोवर मे सॉप न देख सकने मे कुछ निराशा हुई । साँप जव पानी मे नाचता है, तब वह दृश्य मछलिये के विहार से कही अधिक वालात्मक होता हे और पावापुरी को छोड दूसरे किस स्थान में ऐसा