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सुधारक मे धर्म मे सुधार
आज का जमाना चर्चा का है। प्राचीन नियम यह था जिस वात के लिए मन मे परम प्रादर हो, उसकी चर्चा नहीं की जा सकती । माता, पिता या गुरु की आज्ञा पर कोई विचार किया ही नही जा सकता था-'प्राज्ञा गुरुणा ह्यविचारणीया।' गुरुजनो के आचरण के काजी हम न बनें, वे जो कुछ करते हैं यह उत्तम ही है 'वृद्धास्ते न विचारणीयचरिता' इस वृत्ति का भी खव विकास हा था। आज एक भी वस्तु इतनी पवित्र नही रही, जिसकी चर्चा ही न की जा सके। सभी लोग सभी वस्तुओ की चर्चा करें, इसमे एक प्रकार की शिक्षा भी है और अनधिकार चेष्टा भी है। इसमे समाज का नेतृत्व क्षुद्र-वृत्तियो को उत्तेजित करने वाले गैर-जिम्मेदार लोगो के हाथ मे आसानी से चला जाता है। परन्तु इस दोष से बचने के लिए यदि यह नियम बना दिया जाय कि 'अधिकारी पुरुप ही चर्चा करने योग्य माने जाने चाहिये,' तो इसके भी अपने अलग गुण-दोष है ही। ऐसा करने से समाज-हित का विचार एक तरह से परिपक्व रूप में होता है, लोगो मे बुद्धि भेद उत्पन्न नहीं होता, स्थिरता बनी रहती है और समाज प्रचण्ड सामर्थ्य का विकास कर सकता है । परन्तु ऐसी स्थिति मे लोक-शिक्षण बहुत वार रुक जाता है और नेतानो की ही एक जाति खडी हो जाती है । समाज की कार्य-शक्ति बढने पर भी उसकी सूझ-बूझ की शक्ति को जग लग जाता है और नेता वर्ग का नैतिक अध पतन होने पर सारा ममाज टूट जाता है ।
धार्मिक सुधार करने वाले लोग परम धार्मिक और त्रिकालज होने चाहिये। जो लोग धर्म के विधि-विधान में और बाह्म प्रथानो मे प्राति कर सकते है, उनके पास धर्म की आत्मा अखण्ड जागृत होनी चाहिये । उन्हे धर्म तत्त्व का प्राकलन स्वय करना चाहिये । ऐसे लोग हर समाज मे और हर देश में अथवा समाज में उत्पन्न होते ही है, यह धर्म-ग्रन्यो मे लिखा हुआ है और इतिहास में देखा गया है ।
यिकालज्ञ शब्द का अर्थ हमे भली-भांति समझ लेना चाहिये । 'लाखो वर्ष पहले कौन-कौन सी घटनायें घटी है और लाखो वर्ष बाद कौन-कौन मी पटनाये घटने वानी है, प्रत्येक व्यक्ति क्या-क्या कर चुका है और आगे क्या करने वाला है, यह मव विस्तार में जानने वाला मनुप्य त्रिकालज है,-ली जड मान्यता ममाज में फैली हुई है। ईश्वर की ओर से मदेश प्राप्त करने का दावा करने वाले मुहम्मदपैगम्बर कहते हैं कि दृमरे क्षण क्या होने वाला है