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मेरी प्रार्थना से
और जैनियों के
धर्म-भावना का सवाल
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मासाहार के बारे मे उन्होंने जब लिखा तब वे अहमदाबाद मे रहकर गुजरात विद्यापीठ मे काम करते थे बीच ही रहते थे । उनके लेख से जब गुजरात मे खलबली मची तव सत्यशोधक धर्मानन्दजी ने एक निवेदन जाहिर किया और कहा कि बात सत्य-शोधन की है । इस मे कटुना लाने का कारण नही हे । श्राप लोग गुजरात के किसी हरसिधभाई दिवेटिया जैसे सर्वमान्य हाइकोर्ट जज को निर्णायक के नौर पर नियुक्त कीजिये । मेरी बात मै उनके सामने रखूंगा, ग्राप लोग अपनी चात रखिये । निर्णय अगर मेरे विरुद्ध हुआ तो मै मेरा लिखा हुग्रा वापस खीच लूंगा और सब से क्षमा मागूँगा । निर्णय ग्रापके विरुद्ध हुआ तो ग्रापको मेरी क्षमा माँगने की जरूरत नही है। चर्चा खत्म कर दे तो काफी होगा ।
किसी ने इस चुनौती को स्वीकार नही किया और चर्चा शान्त हुई ।
इसके बाद गुजरात विद्यापीठ के अध्यापक गोपालदास ने भी इसी विषय पर लिखा या । तब भी काफी चर्चा हुई और फिर से लोग शान्त हुये ।
मेरे मित्र श्री लाड ने धर्मानन्दजी के पास बौद्ध धर्म का अध्ययन किया था । धर्मानन्दजी के समग्र ग्रन्थ प्रकाशित करने की इजाजत जव लाड साहब ने उनसे माँगी तव उन्होने कहा, “मैं खुशी से इजाजत दूंगा, इस शर्त पर कि जो कुछ मैंने लिखा है वह वैसा का वैसा ही छापा जाय। उसमे एक शब्द का तो क्या, स्वल्पविराम का भी फर्क न हो ।”
ग्रन्थकार को ऐसा वचन देने के वाद और खास करके उनके देहान्त के बाद उनके ग्रन्थो मे से कुछ निकालना योग्य नही होगा । भगवान् बुद्ध के चरित्र के वारे मे जो कुछ मौलिक मसाला मिलता है उसे छानकर और आज तक जितना संशोधन हुआ है उसका पूरा अध्ययन करके धर्मानन्दजी ने एक प्रमाणभूत ग्रन्थ लिखा है । भारतीय संशोधन का वह उत्कृष्ट नमूना गिना जाता है । बौद्ध धर्म और जैन धर्म दोनों के अध्ययन के लिये ये दो ग्रन्थ - 'पार्श्व नाथ का चातुर्याम धर्म' और 'बुद्धचरित्र' हरएक को विवेचक बुद्धि से पढ़ने चाहिये |