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महावीर का जीवन सदेश
जब जैन धर्मी लोग मानते है और कहते है कि 'श्रीकृष्ण फिलहाल नरक मे है और आगे जाकर किमी समय उनका उद्धार होगा' तव हम उनसे झगडा नही करने बैठते । इतना ही नही हम उनको दुर्जन भी नही कहते ।
भारतीय संस्कृति को यह लक्षण है, यह खूबी है कि सत्य की खोज में हम निष्ठुर रहते है और किसी की धारणा गलत रही तो उस पर चिढते नही । अगर कोई सनातनी आन्दोलन उठाये कि जैन-ग्रन्थो मे श्रीकृष्ण के बारे मे जो कुछ लिखा है उसे हटाया जाय, तो मै उसका विरोध करूंगा। हम एक सस्कारी राष्ट्र है । नाजुक बदन या चिडचिडे बनने का समय कब का चला गया। प्राचीन काल के साहित्य मे तरह-तरह की वाते होती है । उस जमाने का मानस समझने के लिये वे सब काम की है। उनकी ऐतिहासिक और तात्त्विक चर्चा चलने से किसी का नुकसान नहीं होता। सिर्फ सज्जनता की मर्यादा का भग न हो ।
अब रही धर्मानन्द कोसम्बी की पुस्तक की बात | ने उस ग्रन्थ का मैं लेखक हूँ, न प्रकाशक । इस ग्रन्थ मे क्या-क्या है वह सब मैने पढा भी नही था । इस ग्रन्थ के प्रकाशन के बारे मे मैने साहित्य अकादमी को सूचना नही की थी। जब मुझ से पूछा गया तब मैने जरूर कहा कि धर्मानन्द उच्च कोटि के सशोधक है । बौद्ध धर्म के बारे मे उनका ज्ञान असाधारण गहग है, जैन धर्म के प्रति श्रद्धा भक्ति रखने वा ने उनके जैसे बौद्ध बहुत कम होगे। जन्म से ब्राह्मण होने के कारण हिन्दू धर्म के बारे मे टीका-टिप्पणी करने का उनका अधिकार विशेप है । इस टीका-टिप्पणी मे कभी-कभी कटुता भी आ जाती है, जिसकी ओर प सुखलालजी ने इशारा भी किया है । उन्होने गीता के बारे में और महात्मा गाँधी के बारे मे भी जो-कुछ लिखा है उसके साथ सब कोई सहमत नही हेगे। लेकिन उनकी उस टीका-टिप्पणी से न कभी महात्माजी को बुरा लगा, न हममे से किसी को । उनके मन मे महात्माजी के प्रति असाधारण श्रद्धा भक्ति थी। धर्मानन्दजी का जीवन साधु का जीवन था । मै उनसे कहना था कि आप पार्श्वनाथ के शिष्य बन गये हैं। पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म पर उन्हें ने एक महत्व का ग्रन्थ लिखा है। उनके देहान्त के बाद मैंने प्रकाशित करवाया है । जैनियो से मेरी सिफारिण है कि खूव गौर से उसे पढे और धर्म-जीवन का एक आधुनिक तरीका उससे समझ ले।